बेबाक : ऊर्जा निगमों के अध्यक्ष का प्रस्तावित निजीकरण पर व्याख्यान! (Part-2)

मित्रों नमस्कार! पिछले अंक में आपके द्वारा यह पढ़ा गया कि किस प्रकार से ऊर्जा निगमों के अध्यक्ष महोदय द्वारा ऊर्जा निगमों के निजीकरण की आवश्यकता एवं उससे कार्मिकों को मिलने वाले लाभ पर शोध करके एक लम्बा-चौड़ा व्याख्यान दिया गया। जिसमें उनके द्वारा निजीकरण होने पर, कार्मिकों को साप्ताहिक अवकाश अनुमन्य होने की गारण्टी देकर, ऊर्जा निगमों के नियमित कार्मिकों को लुभाने का प्रयास किया गया।

विदित हो कि अध्यक्ष महोदय के पास, प्रदेश में सबसे अधिक राजस्व देने वाले पश्चिमांचल डिस्काम का एक लम्बा अनुभव भी है। जिसके आधार पर, सभी वितरण कम्पनियों एवं अन्य सभी ऊर्जा निगमों के अध्यक्ष पद पर काबिज होने के बाद, वितरण कम्पनियों के हित में महत्वपूर्ण निर्णय ले सकते थे। परन्तु उनके द्वारा ऊर्जा निगमों का अध्यक्ष होते हुये भी Corporate Sponsored Management के समान निजीकरण की वकालत की जा रही है। जोकि पूर्णतः दुर्भाग्यपूर्ण है। स्मरण रहे कि यदि कुछ इसी प्रकार का व्याख्यान, किसी अन्य अभियन्ता अधिकारी द्वारा दिया जाता, तो उसके विरुद्ध कर्मचारी आचरण नियमावली-1956 का उल्लंघन करने के तहत, उनके द्वारा तत्काल कठोर कार्यवाही कर दी जाती। परन्तु उनके द्वारा, संवैधानिक पद पर रहते हुये भी अपने ही विभाग को बेचने पर, मिलने वाले लाभ की वकालत की गई। जोकि विभाग में टीम भावना एवं औद्योगिक माहौल को बिगाड़ने की चेष्टा के समान है।

सबसे ज्यादा दुखद यह है कि निगमों के घाटे से उबारने हेतु, आजतक न तो प्रबन्धन और न ही कार्मिक संगठनों के द्वारा कोई ठोस कार्य योजना बनाई गाई है। जिस पर अमल एवं करते हुये, ऊर्जा निगमों को लगातार बढ़ते घाटे से उबारा जा सके। जिसका कारण स्पष्ट है कि प्रबन्धन बाहरी है, निदेशक संविदा पर अधिकतम 3 वर्ष की अवधि के लिये नियुक्त हैं और अधिकांश कार्मिक निहित स्वार्थ में लिप्त हैं। कार्मिक संगठनों में अपने ही उद्योगों के प्रति समर्पण एवं निष्ठा के घोर अभाव है। क्योंकि उनके अधिकांश पदाधिकारी गण या तो बाहरी हैं, या पदाधिकारी बनने के योग्य नहीं हैं अथवा सेवानिवृत्त कार्मिकों के मोहरे हैं। जिसके ही कारण प्रबन्धन निर्भीक होकर, उन्हें स्थानान्तरण के लिये डरा-धमकाकर, प्रणाली सुधार की एक ऐसी योजना पर कार्य करा रहा है जिसमें कि सामग्री एवं कार्य की गुणवत्ता का घोर अभाव है।

जहां तक बकाया वसूलने की बात है तो विभाग के नियमित कार्मिकों के साथ बिना किसी समन्वय के एक तरफा निर्णय के कारण सारी की सारी योजनायें रखी रह जाती हैं। इससे पूर्व विलम्ब अधिभार में छूट की घोषणा होते ही, अगले दिन से लागू हो जाती थी परन्तु अब लगभग 20 दिन के बाद छूट का लाभ दिये जाने की घोषणा के कारण, बकायेदारों से राजस्व वसूली शून्य हो चुकी है। सरकार को यह सोचना होगा कि ऊर्जा निगम, जनता एवं राजनीतिज्ञों के Welfare के लिये नहीं हैं बल्कि एक कम्पनी के रुप में लाभ अर्जित करने के लिये पंजीकृत हैं।

स्पष्ट है कि बाहर से थोपे गये प्रबन्धन द्वारा अपने नियुक्तिकाल में, अपनी ही कार्ययोजनाओं के माध्यम से, नये-नये प्रयोग किये जाते हैं। जिन पर जनता के हजारों करोड़, उपभोक्ता की सुविधा के नाम पर, उड़ा दिये जाते हैं। अधिकांश कार्मिकों की स्थिति यह है कि बाहर से घूमने आये प्रबन्धन के समक्ष ”आग लगे अपनी झापड़िया में, हम गांवे मल्हार“ की तर्ज पर उन्हें खुश करके, अधिक से अधिक टिप प्राप्त करने की चेष्टा में लगे रहते हैं।

विदित हो कि सरकारी धन का निहित स्वार्थ में प्रयोग करने का एकमात्र मार्ग, ”विकास“ है। जिसकी आड़ में अधिक से अधिक विकास करने के नाम पर अधिक से अधिक हिस्सेदारी अर्जित करना ही मूल उद्देश्य बनकर रह गया है। जिसमें सरकारी और निजी घराने का फेवीकोल से बना गठजोड़, पूर्णतः ईमानदारी से कार्य करता है। जिसमें रंगे हाथ पकड़े जाने का भी कोई खतरा नहीं होता। क्योंकि वहां पर सरकारी अधिकारी एवं निजी उद्योग, दोनों के ही हित आपस में जुड़े हुये होते हैं। जिसका एक छोटा सा उदाहरण है पश्चिमांचल में एक अधिकारी द्वारा अपने पास से 50 लाख रुपये विभागीय खाते में जमा करा देना है। जोकि पर्दे के पीछे की कहानी का एक छोटा सा नमूना मात्र है। क्योंकि यह तो एक छोटे से अधिकारी का खेल था। जबकि प्रबन्धन के खेल की स्थिति यह है कि 2600 करोड़ के GPF घोटाले में CBI (जोकि भारत सरकार की सबसे प्रतिष्ठित जांच एजेन्सी है) को प्रबन्धन से जुड़े अधिकारियों से, सरकार द्वारा जांच की अनुमति न देना, बहुत कुछ बयां करता है। जबकि ऊर्जा निगमों में मात्र प्रबन्धन की नीतियों से सहमत न होने के अहसास मात्र पर ही, सम्बन्धित कार्मिक के विरुद्ध, प्रथमचरण में, बिना कोई कारण बताओ नोटिस जारी किये अथवा स्पष्टीकरण मांगे, स्थानान्तरण अथवा निलम्बन की कार्यवाही, हाथ के हाथ कर दी जाती है। परन्तु प्रबंधन द्वारा अपनी असफल कार्य योजनाओं का कहीं भी जिक्र तक नहीं किया जाता।

काश, अध्यक्ष महोदय, निजी उद्योगों पर अपने शोध का प्रयोग, निगम एवं जनहित मे ंकरते हुये, वितरण कम्पनियों को घाटे से बाहर निकालने का एक उदाहरण प्रस्तुत करते। यक्ष प्रश्न उठता है, कि क्या वितरण कम्पनियों के नियमित कार्मिकों को यह जानने का हक नहीं है, कि जिस बाग को उन्होंने अपने खून पसीने से सींचा है, अचानक उसके निजीकरण कराने के पीछे क्या कारण हैं? उनकी मेहनत में कहां कमी रह गई? माननीय मुख्यमन्त्री जी को भी यह संज्ञानित कराना है कि ऊर्जा निगमों के कार्मिकों की बड़ी से बड़ी त्रुटि अथवा लापरवाही से निगमों को कुछ हजार या लाख का ही घाटा होता है। परन्तु प्रबन्धन के एक गलत निर्णय से, निगमों को करोड़ों का नुक़सान होता है। जिस प्रकार से किसी भी इन्सान की सन्देहास्पद मृत्यु होने पर उसकी अंत्येष्टि करने से पूर्व, उसका पोस्टमार्टम कराया जाना अनिवार्य होता है। ठीक उसी प्रकार से प्रदेश के यशस्वी मुख्यमन्त्री जी से सादर अनुरोध है कि ऊर्जा निगमों के निजीकरण करने की अनुमति देने से पूर्व, जनहित में अनविर्य रुप से उन तथ्यों की भी जांच कराई जानी चाहिये, कि योग्य प्रशासनिक अधिकारियों एवं निदेशकों के रहते हुये भी आखिर ऊर्जा निगमों का घाटा, एक लाख करोड़ से भी अधिक कैसे हो गया? कहीं प्रस्तावित निजीकरण के पीछे उपरोक्त घाटे के साक्ष्यों को मिटाना तो नहीं है? क्रमशः….. राष्ट्रहित में समर्पित!

जय हिन्द! बी0के0 शर्मा महासचिव PPEWA.

 

👉 बेबाक : ऊर्जा निगमों के अध्यक्ष का प्रस्तावित निजीकरण पर व्याख्यान! (Part-1)

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