
मित्रों नमस्कार! ऊर्जा निगमों के अध्यक्ष महोदय का ऊर्जा निगमों के प्रस्तावित निजीकरण पर दिया गया मैराथन व्याख्यान सुना। जिसमें उनके द्वारा एक अध्यापक की तरह निगमों के कार्मिकों को प्रस्तावित निजीकरण के सम्बन्ध में विस्तार से समझाया गया और विरोध करने वाले लोगों को नासमझ बालक तक बताया गया, जिसमें उनके द्वारा बहुत ही चतुराई से एक ही कार्मिक संगठन का उल्लेख करते हुए यह बताने का प्रयास किया गया, जैसे कि ऊर्जा निगमों में सिर्फ एक ही कार्मिक संगठन कार्यरत् है। उनके अनुसार, जिसके पदाधिकारी विभागीय पदों के अनुसार अनुभवहीन बालक के समान हैं… जोकि दुर्भाग्यपूर्ण एवं उस संगठन के संविधान में सीधे-सीधे हस्तक्षेप के समान है। इसी के साथ-साथ, उनके द्वारा अधिशासी अभियन्ता के कार्यों को गिनवाते हुये उसकी विवशता को प्रकट किया गया, सुनकर अच्छा लगा कि उन्हें एक अधिशासी अभियन्ता के कार्यभार एवं विषमतः परिस्थितियों में कार्य करने के सम्बन्ध में इतना बारीक ज्ञान है। परन्तु वहीं दूसरी ओर उनके ही द्वारा समीक्षा बैठकों के दौरान बात-बात पर अधिकारियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने के निर्देश दिये जाते हैं।
अध्यक्ष महोदय द्वारा निजीकरण के उपरान्त कार्मिकों को मिलने वाले लाभ, कुछ इस तरह से गिनवाये गये कि जैसे वो सारे लाभ उन्हें को देने हैं। जबकि आज वे सभी वितरण कम्पिनियों के साथ-साथ पारेषण एवं उत्पादन निगमों के भी सर्वे-सर्वा हैं और यदि वे चाहें तो वितरण निगमों के लाभ का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। जिसके लिये सिर्फ और सिर्फ माननीय प्रधानमन्त्री जी के उन वचनों का पालन करना होगा, जिसमें सभी कार्यों में से ”मेरा क्या“ को विलुप्त करना होगा। जोकि शायद एक स्वप्न से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक एवं सुखद बात यह है कि अध्यक्ष महोदय को कार्मिकों के जीवन में साप्ताहिक अवकाश तक के महत्व का भी बारीकी से आभास है। जिसके लिये उनके द्वारा निजीकरण के उपरान्त, साप्ताहिक अवकाश की छुट्टी मिलने के लाभ से भी अवगत् कराया गया। अर्थात वे स्वयं इस सत्य को स्वीकरते हैं कि वितरण निगमों में कार्मिक किन-किन विषम परिस्थितियों में, उनके ही नेत्रत्व में कार्य कर रहे हैं। परन्तु दुखद यह है कि जो लाभ वे स्वयं दे सकते हैं, उन लाभों से अपने ही कार्मिकों को उन्हीं के द्वारा जानबूझकर वंचित रखा जा रहा है। विदित हो कि ज्ञान से खतरनाक कोई हथियार नहीं है। जो दुधारी है अर्थात उसे निर्माण के लिये अथवा विध्वंश दोनों के लिये ही प्रयोग किया जा सकता है।
विगत् लगभग 24 वर्षों से प्रशासनिक अधिकारी अपनी सुधार योजनाओं के कार्यान्वयन के नाम पर हजारों करोड़ का कर्ज लेकर भी, वितरण निगमों के घाटे के ग्राफ को ऊपर जाने से रोक नहीं पाये हैं। वास्तविकता यही है कि सुधार हेतु योजनायें प्रबन्धन अपने विवेकानुसार लाता है और लागू करता है, कार्मिक सिर्फ उनके आदेशों का पालन करते हैं। आदेशों के पालन में लेशमात्र भी चूक अथवा शिथिलता पर तत्काल कार्मिक बिना विचारे दण्डित किये जाते हैं। इसके बावजूद योजनाओं की विफलता के लिये सिर्फ और सिर्फ कार्मिक ही उत्तरदाई हैं। समय-समय पर ऊर्जा निगमों के कार्मिक संगठन सुधार में सहयोग करने का संकल्प लेते दिखलाई देते नजर आते हैं। परन्तु वास्तविकता यह है कि उनके हाथ में सुधार हेतु करने के लिये कुछ भी नहीं होता। सुधार के नाम पर उन्हें सिर्फ और सिर्फ चिड़िया उड़ और घोड़ा उड़ ही कहना होता है और यदि किसी ने विवेक लगाकर यह कहने का साहस भी किया, कि घोड़ा उड़ता नहीं है, तो उसे काला पानी की सजा देकर, अन्य को यह बतला दिया जाता है, कि यदि प्रबन्धन कहे कि घोड़ा उड़ तो घोड़ा उड़ता है। बस यही असली सुधार है।
कटु सत्य यह है कि निगमों को वाणिज्यिक तौर पर कभी भी चलाने का प्रयास ही नहीं किया गया। ऊर्जा निगम वो संस्थान है जिसकी छोटी से छोटी साख भी राजनीति से प्रभावित है। जहां निगमों के हितों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण राजनीतिक हित हैं। प्रबन्धन अपने साधन एवं क्षमता के अनुसार नहीं, बल्कि राजनीतिक आकाओं के आदेशानुसार कभी बिजली चोरी पकड़ने पर रोक लगाता है तो कभी बकायेदारों के संयोजन काटने पर रोक लगाता है तो कभी बिजली न होने के बावजूद बढ़े हुये दामों पर बिजली खरीदकर 24 घण्टे आपर्ति करता है। जिसका खर्चा, ऊर्जा निगमों को ही वहन करना होता है। जोकि अप्रत्यक्ष नहीं बल्कि प्रत्यक्ष रुप से सीधे-सीधे निगम के घाटे में वृद्धि ही करता है। जिसकी कोई भरपाई नहीं है। परन्तु ऊर्जा निगमों को वाणिज्य संस्थान कहने वाले माननीय ऊर्जा मन्त्री एवं ऊर्जा निगमों के अध्यक्ष महोदय, प्रत्यक्ष रुप से विभाग पर पड़ने वाले अतिरिक्त वित्तीय भार को भूलकर, सार्वजनिक रुप से अपनी-अपनी पीठ थपथपाते नजर आते हैं। सबसे रोचक तथ्य यह है कि विद्युत खरीद पर विलम्ब से भुगतान पर विभाग 12% ब्याज देता है। जबकि उपभोक्ताओं द्वारा समय पर बिल जमा न करने पर उन्हें विलम्ब शुल्क में छूट, वर्ष में दो-दो बार तक दी जाती है। जोकि सीधे-सीधे उपभोक्ताओं को समय पर बिल न जमा करने के लिये प्रेरित करता है।
स्पष्ट है कि एक तरफ विलम्ब अधिभार में छूट, तो वहीं दूसरी ओर कम राजस्व वसूली के कारण कार्मिकों को दण्डित कर स्थानांतरण एवं नियुक्ति उधोग चलाया जाता है। बेबाक शुरु से यह कहता आया है कि विभाग के अधिकांश अधिकारी निजी कम्पनियों के Marketing Agent के रुप में कार्य करते हैं तथा प्रबन्धन के बारे में भी यह विचार आता था कि कहीं न कहीं वे भी Corporate Sponsored Management के अंग हैं। परन्तु जब अध्यक्ष महोदय द्वारा अपने मैराथन व्याख्यान में जिस प्रकार से बड़ी सूक्ष्मता से निजीकरण के लाभ गिनवाये, तो एक विचार मन में कौंधा कि काश ऊर्जा निगमों के घाटे के कुछ मूल कारणों के साथ-साथ विफल हुये प्रयासों पर भी उनके द्वारा प्रकाश डाला होता। जिन पर कार्य करके वितरण कम्पनियों को लाभ के मार्ग पर पुर्नस्थापित किया जा सके। प्रश्न उठता है कि निजी कम्पनियों के पास ऐसे कौन से महामानव हैं और वे ऐसी कौन सी विशेष सामग्री का प्रयोग करती हैं, कि उनकी कम्पनियां अवकाश के दिन की छुट्टी का लाभ देकर भी लाभ कमाती हैं। क्रमशः…..
राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द! बी0के0 शर्मा महासचिव PPEWA.