
मित्रों नमस्कार! पिछले अंक पर कुछ प्रतिक्रियायें प्राप्त हुई हैं जिसमें कुछ मित्रों के द्वारा कार्मिक संगठनों की भूमिका एवं निजीकरण के लाभ एवं हानि के बारे में जानना चाहा है। किसी भी संस्थान के औद्यागिक वातावरण एवं उसकी उन्नत्ति में उसके कार्मिक संगठनों का बहुत बड़ा योगदान रहता है। क्योंकि कार्मिक संगठनों का उत्तरदायित्व अपने साथियों के उज्ज्वल भविष्य एवं हितों के साथ-साथ संस्थान के हितों एवं उसके उद्देश्यों की पूर्ति का होता है। परन्तु दुर्भाग्य से ऊर्जा निगमों में, कार्मिक संगठनों के अधिकांश पदाधिकारी गण अपने-अपने निहित स्वार्थों की प्राप्ति हेतु इस कदर डूब चुके हैं कि उन्हें अपने उत्तरदायित्वों का बोध ही नहीं रह गया है। जिसके ही कारण, उन्हें यह पता ही नहीं चला, कि कब उनका अस्तित्व ही समाप्त हो चुका है और वे आज प्रबन्धन के रहमों-करम पर उनकी ही काठी पर टिके हुये हैं।
विदित हो कि प्राचीन काल में राजा महाराजा तक, प्रौढ़ अवस्था में अपना राजपाट युवराज को सौंपकर वन के लिए प्रस्थान कर जाते थे। परन्तु आज अधिकांश कार्मिक संगठनों के वरिष्ठ पदाधिकारियों के द्वारा निहित स्वार्थ में, आजीवन अपने संगठनों पर मजबूत पकड़ बनाये रखने के उद्देश्य से नई फसल को कभी अपनी जड़ें जमाने ही नहीं दी गई। परिणामत: आज अधिकांश संगठन 10-15 वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त हो चुके कुछ पदाधिकारियों के बगैर कोई भी निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं। भले ही वर्तमान युवा पदाधिकारियों की अक्षमता से वरिष्ठ सेवानिवृत्त पदाधिकारियों को गौरव की अनुभूति होती हो, परन्तु यह उन सभी वरिष्ठ पदाधिकारियों की विफलता का जीता जागता प्रमाण है कि वह समय पर युवा पीढ़ी को अपना स्थान लेने के लिये तैयार नहीं कर पाये।
हालात ये हैं कि एक संगठन में तो पदोन्नत्ति के बाद संवर्ग एव श्रेणी तक बदल जाने के बावजूद अपने से निम्न श्रेणी के संगठन पर काबिज होकर अपना एवं उक्त श्रेणी के युवाओं के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने में लगे हुये हैं। ठीक इसी प्रकार से एक संगठन के पास तो कोई नियमित अधिकारी तक नहीं है जोकि उनके अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी वहन कर सके। जिसके ही कारण उक्त संगठन पर एक गैर संवर्गीय एवं बाहरी व्यक्ति के कार्यवाहक अध्यक्ष पर लम्बे समय से काबिज है। ऐसा प्रतीत होता है कि उक्त संवर्ग में नियमित अध्यक्ष के चुनाव का कोई संविधान ही नहीं है। दुखद है कि संविधान का हवाला देने वालों के लिये संविधान के कोई मायने नहीं हैं। ऊर्जा निगमों के प्रबन्धन द्वारा कार्मिक संगठनों के नियम विरुद्ध आचरण पर मौन धारण करना, स्वतः उनकी कार्य योजना को स्पष्ट करता है। जोकि निगमों के औद्योगिक वातावरण में उपस्थित भ्रष्टाचार के प्रदूषण स्तर को प्रमाणित करता है।
विदित हो कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार किसी भी कार्मिक को सामान्य परिस्थितियों में तीन माह से अधिक समय तक निलम्बित नहीं रखा जा सकता। परन्तु इसके बावजूद निलम्बित पदाधिकारियों का लगभग दो वर्ष तक मौन रहना, बात-बात पर आन्दोलन करने की धमकी देने वालों के संगठन द्वारा उनकी बहाली के लिये न तो कोई आन्दोलन करना, और न ही अदालत का दरवाजा खट-खटाना। प्रबन्धन की ही बातों का समर्थन करना, उनके आत्म समर्पण को पूर्णतः स्पष्ट करता है। बेबाक का मूल उद्देश्य कार्मिक संगठनों की दूषित मानसिकता को उजागर करना एवं युवा पीढ़ी को अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वों के प्रति चैतन्य करना है। स्पष्ट है कि यदि इन कार्मिक संगठनों के पदाधिकारियों ने निगम एवं कार्मिक हितों हेतु अपनी आवाज उठाई होती तो आज न तो निगम एक लाख करोड़ से अधिक के घाटे में डूबता और न ही निजीकरण का जिन्न बाहर आता। यदि निजीकरण के जिन्न के बाहर आने के पूरे घटना क्रम पर घ्यान केन्द्रित करें तो लगभग दो वर्ष से निलम्बित पदाधिकारियों की बहाली एवं बहाल हुये पदाधिकारियों द्वारा, बहाल होने के बाद प्रबन्धन एवं शासन को धन्यवाद ज्ञापित करना। उसके बाद अचानक निजीकरण के जिन्न का बाहर आना और पुनः एक बार फिर आन्दोलन का माहौल बनाने का प्रयास करना। यह पूर्णतः फिल्मों की उस कहानी के समान है, जिसमें अपराधी जेल से बाहर आने से पूर्व ही, उसे बाहर आकर क्या करना है, उसकी Script तैयार कर, बाहर आते ही अपनी Script पर कार्य करने के समान है।
लोकतन्त्र में विपक्ष अर्थात विरोध का सर्वोच्च स्थान है जोकि शासन और कुशासन में अन्तर को प्रदर्शित करता है। परन्तु आज स्वार्थपूर्ण राजनीति में बहुत कुछ पूर्व नियोजित एवं प्रायोजित हो रहा है। अतः कहीं ऐसा तो नहीं है कि बहाली से पूर्व ही प्रबन्धन द्वारा कतिपय लोगों के साथ Script तैयार कर ली गई हो कि किसे क्या और कैसे करना है। जिसके अनुसार ही अचानक निगमों के घाटे की पूर्ति हेतु नहीं, बल्कि भविष्य के घाटे से बचने हेतु निजीकरण का जिन्न छोड़़ दिया गया है।
विदित हो कि लगभग 24 वर्ष पूर्व मात्र 70 करोड़ के घाटे पर सुधार के नाम पर विघटित होकर बने ऊर्जा निगमों को घाटे से उबारने हेतु निगम प्रबन्धन द्वारा निदेशक मण्डल के साथ मिलकर सुधार के नाम पर तैयार कार्य योजनाओं का कड़ाई से पालन कराने हेतु, समय-समय पर बारीकी से समीक्षा की जाती रही तथा कार्य में असफल होने तो कभी कार्य में रुचि न लेने के नाम पर विभाग के नियमित कार्मिकों को दण्डित किया जाता रहा है। परन्तु विगत 24 वर्षों में ऊर्जा निगमों का घाटा कम होने के स्थान पर तीर्व गति से निरन्तर बढ़ता ही रहा। जिससे यह स्वतः प्रमाणित होता है कि लागू कार्य योजनायें पूर्णतः दूषित एवं निहित स्वार्थ की पूर्ति हेतु तैयार की गई थी।
यक्ष प्रश्न उठता है कि जब बात-बात पर विभाग के नियमित कार्मिकों को दण्डित करने में कोई कोताही नहीं बरती गई तो लगातार पिछले 24 वर्षों से दूषित कार्ययोजनायें लागू करने के कारण ऊर्जा निगमों को एक लाख करोड़ से भी अधिक घाटे में डुबोने वाले कथित प्रबन्धन एवं निदेशक मण्डल के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही क्यों नहीं की गई? यह गम्भीर रुप से विचारणीय एवं आश्चर्यजनक है कि जिस विभाग में 5 से 6 हजार करोड़ की दर से लगातार प्रति वर्ष घाटा हो रहा हो तथा जो विभाग एक लाख करोड़ से भी अधिक के घाटे में डूब चुका हो, वहां अधिकारियों एवं ठेकेदारों के घर ED (Enforcement Directorate) द्वारा Raid क्यों नहीं हुई। इससे पूर्व भी 2600 करोड़ रुपये के GPF घोटाले में CBI द्वारा UPPCL से जुड़े रहे तीन IAS अफसरों की जांच हेतु मांगी गई अनुमति, सरकार द्वारा नहीं दी गई थी।
स्पष्ट है कि जिस दिन सुनियोजित लूट की कड़ियां खुलनी शुरु होंगी तो भूचाल आने से इन्कार नहीं किया जा सकता। क्रमशः…..’
राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द! बी0के0 शर्मा महासचिव PPEWA.