बेबाक : क्या निजीकरण वाला जिन्न, उपभोक्ता देवो भव: (विकास) की आड़ में जनता के धन के सुनियोजित बन्दरबाट का एक बहाना तो नहीं है… (Part-2) 

मित्रों नमस्कार! पिछले अंक में बेबाक द्वारा यह प्रश्न उठाया गया था कि जिस विभाग में 5 से 6 हजार करोड़ प्रति वर्ष की दर से, एक लाख करोड़ से भी अधिक का घाटा हुआ हो, प्रश्न उठता है कि वहां पर सम्बन्धित अधिकारियों एवं ठेकेदारों के घर ED (Enforcement Directorate) द्वारा Raid क्यों नहीं की गई। इसी प्रकार GPF घोटाले में CBI को UPPCL से जुड़े रहे तीन IAS अफसरों की जांच की अनुमति, सरकार द्वारा नहीं दी गई थी। जबकि बाहरी प्रशासनिक अधिकारी कुछ अवधि के लिये ऊर्जा निगमों में नियुक्त होते हैं और आते ही अपनी कार्य योजनाओं को सीधे-सीधे लागू करने के लिये, नियमित कार्मिकों के बीच दहशत फैलाते हैं। बात-बात पर नियमित कार्मिकों को दण्डित करते हैं, तो यक्ष प्रश्न उठता है कि आखिर सरकार को प्रति वर्ष 5 से 6 हजार करोड़ का घाटा क्यों नहीं दिखलाई पड़ा तथा प्रबन्धन एवं निदेशक मण्डल के विरुद्ध कठोर कार्यवाही क्यों नहीं की गई। क्या उपभोक्ता देवो भव की आड़ में निगमों को सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी मानकर, प्रबन्धन एवं कार्मिक संगठनों के द्वारा निगमों को सुनियोजित तरीके से लूटा तो नहीं गया।

मात्र 70 करोड़ के घाटे पर, सुधार के नाम पर तत्कालीन उ0प्र0रा0वि0प0 का विभक्तीकरण और उसके बाद प्रबन्धन द्वारा पिछले 24 वर्षों में, बिना किसी अनुभव के सिर्फ और सिर्फ अपनी-अपनी कार्य योजनाओं के प्रयोग से सभी निगमों को डुबोकर गर्त में पहुंचा दिया गया। जिसमें प्रबन्धन के साथ-साथ कार्मिक संगठन भी पूर्णतः उत्तरदायी हैं।

आईये आज बाहरी प्रबन्धन एवं संविदा पर नियुक्त निदेशकों के द्वारा, किस प्रकार से निगमों के मूल ढांचे को ही समाप्त करने की योजनाओं पर कार्य किया, उस पर चर्चा करें। यह कटु सत्य है कि भ्रष्टाचार रुपी वायरस आज ऊपर से नीचे तक अधिकांश कार्मिकों के खून में घुल चुका है। जिसका मूल कारण है समय-समय पर प्रबन्धन द्वारा निगमों के निजीकरण का शिगूफा छोड़ना। जिसके कारण ऊपर से नीचे तक, निगमों को एक डूबता हुआ जहाज मानते हुये, निरंकुशता के साथ लूट मचाना है। आज दण्ड के मायने ही बदल गये हैं क्योंकि आज किसी भी कार्मिक को लूट से वंचित करने को ही दण्ड माना जाता है। बार-बार यही प्रश्न उठता है कि निगमों के पास आज क्या है जिस पर वह घमण्ड कर सके। क्योंकि इन्जीनियरों की अब खाली “इ” ही बची है, अर्थात “इ” के बाद (इ0) पूर्णतः शून्य। डाल-डाल पर ठेकेदार से कार्य कराने की नीति ने, योग्यता को सीधे-सीधे चापलूसी के रुप में परिवर्तित कर दिया है तथा स्थानान्तरण एवं नियुक्ति उद्योग ने योग्यता को शून्य कर दिया है। आज एक पूर्णतः तकनीकी विभाग में उसके नियमित कार्मिकों के तकनीकी ज्ञान की उपयोगिता शून्य हो चुकी है।

अब कार्य योजनाओं से लेकर निविदा तक बाहरी लोग, ठेके पर तैयार करते हैं। जिसका जीता-जागता एक छोटा सा प्रमाण है, जहां ऊर्जा निगमों के अध्यक्ष महोदय द्वारा गत् माह परिवर्तकों की क्षतिग्रस्तता दर को कम करने के लिये लगभग 36 परिवर्तक निर्माताओं को सुझाव देने के लिये आमन्त्रित कर बैठक की गई थी। तदुपरान्त उनके यहां पर सुधार हेतु सुझाव प्राप्त करने के लिये विभागीय टीमें भेजने का निर्णय लिया गया था। प्रश्न उठता है कि पॉवर कारपोरेशन में कुल 91 परिवर्तक कार्यशालायें है। जोकि किसी भी परिवर्तक निर्माता कम्पनी से छोटी नहीं हैं। परन्तु प्रबन्धन की नजर में उनकी योग्यता एवं अनुभव शून्य है, जिसके कारण उनसे कभी कोई सुझाव मांगे ही नहीं जाते। सत्य भी यही है क्योंकि प्रबन्धन को यह मालूम है कि वहां पर नियुक्ति के लिये कौन-कौन से हथकण्डे कार्मिक अपनाते हैं। स्पष्ट है कि इन विभागीय 91 कार्यशालाओं में नियुक्त इन्जीनियर, वेतन तो अवश्य ही विभाग से लेते हैं, परन्तु Marketing परिवर्तक निर्माताओं की करते हैं। अतः विभागीय कार्यशालाओं से सुझाव प्राप्त करने के स्थान पर, सीधे निर्माताओं से सुझाव मांगना ज्यादा श्रेयस्कर है। स्पष्ट है कि ये परिवर्तक कार्यशालायें, परिवर्तक निर्माताओं को कभी रास नहीं आती हैं और उनका सदैव ही यही प्रयास रहता है कि किसी भी तरह से ये कार्यशालायें बन्द हो जायें जिससे कि उनके व्यापार का और विस्तार हो सके। अतः सीधा सा उत्तर है कि परिवर्तक निर्माता ऐसा कोई भी सुझाव कभी भी नहीं दे सकते, जिनसे उनके हितों को लेशमात्र का भी नुकसान सम्भावित हो। यही कारण है कि विभाग के पास न तो अपनी आवश्यकतानुसार कोई Technical Specifications हैं और न ही कोई Design और न ही कोई ईच्छाशक्ति है। जिससे कि विभाग परिवर्तकों की अपनी उपयोगिता के अनुसार गुणवत्ता निर्धारित कर उनका परीक्षण कर सके।

यदि हम पॉवर परिवर्तकों की बात करें, जिनकी मरम्मत तक, परिवर्तक निर्माताओं के द्वारा ही की जाती है। यदि पिछले 5 वर्षों के दौरान खरीदे गये एवं मरम्मत कराये गये पॉवर परिवर्तकों का विश्लेषण करें तो आंखें खुली की खुली रह जायेंगी। क्योंकि अधिकांश पॉवर परिवर्तक, गारण्टी अवधि ही पूर्ण नहीं कर पाते तथा बार-बार क्षतिग्रस्त होते रहते हैं। जिससे यह पूर्णतः स्पष्ट होता है पॉवर परिवर्तक निर्माण की गुणवत्ता का स्तर, इतना नीचे गिर चुका है कि अधिकांश परिवर्तक गारण्टी अवधि पूर्ण करने से पहले ही कई बार क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। जबकि 50 वर्ष पूर्व क्रय किये गये अथवा मरम्मत कराये गये परिवर्तक, आज भी बिना किसी सुरक्षा उपकरणों के कार्य कर रहे हैं। यदि सीधे-सीधे शब्दों में यह कहा जाये कि निगमों के पास अपनी आवश्यकताओं की ही कोई जानकारी नहीं है तो मानक ही कहां से आयेंगे।

आज स्थिति यह हो गई है कि एक टूटा हुआ जम्पर भी ठेके पर जोड़ा जाता है। विद्युत सुरक्षा के नाम पर विभाग हास्यापद तरीके से बिजली के खम्भों पर प्लास्टिक की पन्नियां लपेटता हुआ नजर आता है। स्पष्ट है कि जब विभाग में सभी कार्य ठेके पर किये जाते हैं और उनकी देखरेख के लिये सिविल और मैकेनिकल इन्जीनियर नियुक्त किये जाते हैं। जो स्वतःइस बात का प्रमाण है कि प्रबन्धन ऊर्जा निगमों के भविष्य के प्रति कितना गम्भीर है। जिसके कारण नित्य निर्दोष प्राणी, विभागीय अनियमितताओं की बलि चढ़ते रहते हैं। यह कहना कदापि अनुचित न होगा कि प्रबन्धन की कार्य योजना में निगमों के नियमित कार्मिकों के तकनीकी ज्ञान एवं अनुभव का कोई महत्व नहीं है। निगमों में सुधार की आड़ में, विभाग को सामग्री निर्माताओं एवं ठेकेदारों के साथ मिलीभगत करके इस कदर निचोड़ा जा चुका है कि अब अपनी असफलता को छुपाने के लिये प्रबन्धन के पास निजीकरण के अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता नहीं बचा है। अन्यथा काई भी सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी को कभी भी बेचना नहीं चाहेगा। क्रमशः…..

राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द! बी0के0 शर्मा महासचिव PPEWA.

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