
मित्रों नमस्कार! बेबाक के पिछले अंक 17/12.07.2024 (Part-2) के अनुक्रम मेंः…. जब तथाकथित भीष्म पितामाह, अपने अस्तित्व के रक्षार्थ, अपने एक-एक प्यादे को पिंजरे में कैद होते बस चुपचाप देखते रहे थे। बस यही वो समय था जब ईमानदारी के विरुद्ध लड़ाई में पूर्णतः अपरिपक्व सेवानिर्वत्त कार्मिक पदाधिकारियों के द्वारा, स्वयं अपने-अपने कार्मिक संगठनों के अन्त की बुनियाद रखी थी। जिसका दुष्परिणाम आज सभी कार्मिक भुगत रहे हैं।
यह भी एक एतिहासिक घटना है कि हड़ताल के बाद हड़तालियों के विरुद्ध चुन-चुनकर कार्यवाहियां हुई तथा अपने आपको निष्ठावान कार्यकर्ता बताने वाले बहुत सारे हड़ताली अधिकारियों ने कार्यवाही से बचने के लिये, अपने आपको कार्य पर दर्शाते हुये वेतन प्राप्त किया। जबकि जो लोग वास्तव में कार्य पर थे अर्थात हड़ताल पर नहीं थे, उनको बहुत ही बेशर्मी के साथ हड़ताल पर दर्शाकर उनका वेतन काटा गया। समय का चक्र चला, अचानक शासन द्वारा एक ईमानदार अध्यक्ष को हटाकर, अन्य को उर्जा निगमों का अध्यक्ष बना दिया। जिस पर बहुत ही बेशर्मी के साथ, उर्जा निगमों के कतिपय कार्मिक संगठनों के द्वारा एक जश्न के रुप में, जगह-जगह मिठाईयां बांटकर एवं पार्टियां कर मनाया गया। स्पष्ट है कि जिस विभाग में ईमानदारी की हार पर, जश्न मनाया जाता हो, तो वहां के कार्य के वातावरण एवं उसके भविष्य की बस कल्पना ही की जा सकती है। इसी बीच अध्यक्ष पद के कार्यभार का स्थानान्तरण हुआ, जिसमें उन पिंजरों का भी स्थानान्तरण हुआ, जिनमें निलम्बित (कार्यरत) कार्मिक नेता कैद थे। जिनको छुड़वाने के लिये, लोग पिछले लगभग 16 माह से लगातार प्रयासरत् हैं तथा इस सम्बन्ध में प्रबन्धन एवं प्रशासन से ठीक उसी प्रकार से आश्वासन मिलता रहता है जिस प्रकार से पीड़ित उपभोक्ता अधिकारियों के चक्कर काटता है और हर बार उसे आश्वासन ही प्राप्त होता है।
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स्पष्ट है कि चाहे कोई संगठन हो या गिरोह, उसका नेत्रत्व ही उसकी जान होता है। यहां प्रबन्धन की यह नीति स्पष्ट होती है कि पिंजरे में बन्द कार्मिक नेताओं को जब तक हो सके, आजाद न किया जाये और कार्मिकों को पिंजरे दिखला-दिखलाकर, पूरे के पूरे उर्जा निगमों पर अपनी मनमर्जी से एक छत्र राज किया जाये। जिसका उदाहरण है कि जहां एक ओर आयातित बिजली की अधिकतम आपूर्ति का रिकार्ड कायम किया गया तो वहीं दूसरी ओर खरीदी गई बिजली की आपूर्ति हेतु असंख्य कार्मिकों की गुणवत्ताहीन सामग्री एवं लापरवाही के कारण जान चली ही नहीं गई, बल्कि नित्य प्रतिदिन लगातार आज भी जा रही है।
ऐसा प्रतीत होता है कि उर्जा निगमों में कार्मिकों के अधिकार की बात करने पर आपातकाल लागू हो चुका है, जहां पर नियम कायदे की बातें करना ही अपराध बन चुका है। जो उर्जा निगम पूर्णतः तकनीकी संस्थान हैं, उन्हें आज अभियन्ताओं की आपसी लूट-खसोट की लड़ाई में ”बन्दर बिल्ली के खेल की तरह“ प्रशासनिक अधिकारी अपनी मर्जी एवं शर्तों पर चला रहै हैं। उर्जा निगम, प्रशासनिक अधिकारियों का विभाग नहीं है, यह उनका कुछ समय के लिये मौज-मस्ती करने का स्थान मात्र है। जहां वे कुछ वर्षों के लिये आते हैं और खेलकूद कर चले जाते हैं। प्रतीत होता है कि उर्जा निगमों के प्रमुख पदों पर (जिन पर कभी अभियन्ता होते थे) सदा के लिये एकाधिकार बनाये रखने के लिये प्रशासनिक अधिकारियों के द्वारा, अभियन्ताओं के वर्चस्व को ही समाप्त करने के लिये, एक सूत्रीय कार्यक्रम के तहत, लगातार एक सोची समझी नीति पर कार्य किया जा रहा है।
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इस बार के स्थानान्तरण एवं नियुक्ति आदेश, इस बात का स्पष्ट उदाहरण हैं, कि जो भी प्रबन्धन के लिये कहीं न कहीं जरा सी भी चुनौती बना, उसे दण्ड के नाम पर दूर स्थान्तरित कर दिया गया। यदि किसी ने न्याय मांगने के लिये, न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का दुस्साहस किया, तो उसे विभाग में दूरदराज काला पानी कहे जाने वाले स्थान पर स्थान्तरित कर दिया गया अथवा करा दिया गया। आज चहुं ओर प्रबन्धन की हठधर्मिता एवं अहंकार का बोलबाला है। जहां प्रबन्धन ने अपने अहंकार की सन्तुष्टि के लिये एक अघोषित नीति बना रखी है। जो बोले उसे टांग दो, दहशत फैलाओ और राज करो। जिसका प्रमाण है बात-बात पर स्थानान्तरण एवं निलम्बन। यही कारण है कि न तो कहीं कोई सुधार दिखाई देता है और न कोई सुधार की नीति।
यह कटु सत्य है कि चाहे प्रशासनिक अधिकारी हो या कोई मजदूर, सभी कार्य के बदले वेतन प्राप्त करते हुये, जीवन के लिये आवश्यक भोजन ग्रहण करते हैं और जीवन की लम्बाई भी लगभग एक समान होती है। बस अन्तर इतना है कि भोजन का स्थान, बर्तन एवं बिस्तर अलग होते हैं। परन्तु अन्त में सभी एक ही कफन में हाथ पसारे जाते हैं। इसके बावजूद व्यवहार में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। चूंकि प्रशासनिक अधिकारियों का यह विभाग नहीं है अतः उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि बेवजह निलम्बन से कार्मिकों की कमी होती है तो वहीं कार्य और कार्य की गुणवत्ता प्रभावित होती है। लगातार बात-बात पर हो रहे स्थानान्तरण एवं निलम्बन से निष्ठापूर्वक कार्य करने के स्थान पर, मात्र औपचारिकता निभाने के लियं कार्य करने का प्रचलन बढ़ गया है। क्योंकि प्रशासनिक अधिकारियों को यह लगता है कि उनसे बड़ा कोई ज्ञानी नहीं है। जिसके कारण उन सभी को, जो उनसे ज्ञान की बातें करने का दुस्साहस करते हैं, उनके कोपभाजन का शिकार बनना पड़ता है। जिसका प्रमाण है नित्य प्रतिदिन घटने वाली घातक विद्युत दुर्घटनायें। जिनपर नियन्त्रण पाने की विभाग में, न तो कोई चर्चा है और न ही कोई मंशा दिखाई देती है।
पिछले दिनों उर्जा निगमों के द्वारा, ”विद्युत खम्भों से दूर रहने की अपील“, इस बात की सार्वजनिक रुप से स्वीकारोक्ति है, कि वितरण निगमों के विद्युत खम्भों एवं विद्युत लाइनों की वास्तविकता क्या है। परन्तु दुखद है कि इस स्वीकारोक्ति के बाद भी, सभी विद्युत खम्भें नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार की गहरी जड़ों की भेंट चढ़े हुये हैं। जिसके साक्ष्य स्वत: विधुत खम्भे हैं। उ0प्र0पा0का0लि0 के पास उनको भ्रष्टाचार के डंक से आजाद कराकर पुनः सुरक्षित करने का न तो कोई उपाय है और न ही कोई कार्य योजना। यक्ष प्रश्न उठता है कि बात-बात पर निलम्बन एवं स्थानान्तरण करने वाला प्रबन्धन क्या विद्युत खम्भों के असुरक्षित होने पर अपनी विफलता को स्वीकार करेगा? क्या असुरक्षित विद्युत खम्भों एवं लाईनों के कारण निर्दोषों की दर्दनाक मौत की जिम्मेदारी को स्वीकार करेगा?
विदित हो कि जिन अभियन्ताओं एवं तकनीशियनों के कन्धों पर, पूरा का पूरा उर्जा निगम टिका हुआ था, वे आज, बात-बात पर सिर्फ अपमानित हो रहे हैं तथा स्थानान्तरण एवं निलम्बन की दहशत की छांव में, उस वातावरण में कार्य करने के लिये विवश हैं, जिसमें सभ्य समाज के लिये कार्य कर पाना नामुमकिन है। आज हालात इतने विषम हो चुके हैं कि जिनका यह विभाग है, उन्हें बाहर से आये प्रबन्धन द्वारा, यह कहकर बार-बार अपमानित किया जाता है कि काम करना है तो करो, नहीं तो नौकरी छोड़कर चले जाओ। विभाग के प्रति निष्ठावानों की निष्ठा पर यह गहरा आघात है। जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रबन्धन का मूल उद्देश्य कार्य लेना नहीं, अपितु अधिकारियों कर अपमानित कर उनके आत्मविश्वास को किसी भी सूरत में तार-तार करना मात्र है। जहां एक ओर प्रबन्धन कार्मिक संगठनों को नेस्तानाबूत करने की नीति पर कार्य कर रहा है तो वहीं बाहरी लोगों के द्वारा संचालित कार्मिक संगठन, ”प्रबन्धन देवो भव“ की नीति पर चलते हुये सफलतापूर्वक कार्य कर रहे हैं।
बेबाक का यह मानना है कि अब वह समय आ गया है कि समय की गति एवं दिशा के अनुरुप चलते हुये, कार्मिक अपने हितों के रक्षार्थ किसी सांसद या विधायक को अपने कार्मिक संगठन का नेता चुन लें। जो उनके पक्ष को मजबूती से प्रबन्धन एवं सरकार के समक्ष रख सके। जिससे प्रबन्धन की नाराजगी का सामना किये बिना ही आसानी से कार्य होने की प्रबल सम्भावना होगी। शेष अगले अंक में….
राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
–बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA.