
मीडिया पर आज की चौंकाने वाली खबर है कि 16 माह पूर्व हुई हड़ताल के कारण, निलंबित हुये सहायक अभियंता द्वारा आत्महत्या का प्रयास किया। सम्भवतः अपनी बहाली को लेकर प्रबन्धन के लगातार उपेक्षित व्यवहार एवं हड़ताली साथियों के अपने-अपने काम-धन्धें में लग जाने के कारण, लगभग अकेले पड़ जाने के कारण़, वे इस कदर अवसादग्रस्त हो गये थे, कि उन्होंने यह दुखद एवं झकझोर देने वाला कदम उठाया।
विदित हो कि जब समस्यायें आती हैं, तो उससे कोई अकेला नहीं, बल्कि पूरा परिवार प्रभावित होता है। इस आत्महत्या के प्रयास के पीछे, यदि कोई अन्य सच्चाई है, तो पीड़ित और उनका परिवार ही बता सकता है। परन्तु यह कटु सत्य है कि इस हड़ताल के कारण लोग निलम्बित हुये, परन्तु यह असत्य है कि निलम्बित कार्मिकों को कुछ प्राप्त नहीं हुआ। कटु सत्य यह है कि निलम्बन के उपरान्त जीवन के उस महत्वपूर्ण अध्याय का ज्ञान हुआ, जो अन्य किसी माध्यम से प्राप्त होना सम्भव नहीं था। जोकि ऐसे व्यक्तियों के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण है, जो दिमाग से नहीं, बल्कि दिल से सोचते हैं। क्योंकि जब तक जीवन में कष्ट नहीं आते, जीवन में मित्र और समाज का सही रुप दिखाई नहीं दे पाता। कल तक जो आपके परम हितैषी एवं मित्र होने का दावा करते थे, जिन पर आप अपनी जान छिड़कते थे, जिन्हें अपने जीवन की सबसे बड़ी पूंजी समझते थे, जब उनका असली रुप सामने आया तो आप सहन नहीं कर सके। अर्थात मित्र रुपी भीड़, आपको कष्ट/संकट में देखकर, सिर्फ इसलिये आपको अकेला छोड़कर, आपसे दूर हो गई, कि कहीं आपके कारण, उन्हें कोई कष्ट न हो जाये। निश्चित ही किसी के विश्वास के ऐसे स्वार्थी रुप को देखकर, कोई भी इंसान अपना आपा खो सकता है।
मित्रों यह दुनिया बाहर से कुछ और दिखाई देती है, परन्तु अन्दर से कुछ और ही होती है। यही वो सत्य का ज्ञान है जो जीवन के लिये अनिवार्य है। ये जब भी किसी के जीवन में परिलक्षित होता है, तो दूध का दूध और पानी का पानी अलग हो जाता है। बस नजरों का फर्क होता है, जिसको दिखाई दे जाये या समझ में आ जाये, तो वह शान्त मन से कटु सत्य को स्वीकार कर आगे बढ़ता है और नहीं तो दलालों के बीच भटकता फिरता है अथवा अज्ञानता/सत्य को स्वीकार करने की क्षमता के अभाव में, जीवन को समाप्त करने के विचार के साथ मान-मस्तिष्क में अर्न्तद्वन्ध करता हैं।
बेबाक का अनुभव एवं विचार हैं कि जब कभी भी आपके जीवन में ऐसे कठिन पल आयें और सामान्य जीवन व्यापन के लिये विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो जायें, तो उस वक्त सभी चीजों को मन-मस्तिष्क से निकालकर, सिर्फ और सिर्फ अपने एवं अपने परिवार को सुरक्षित रखने पर, अपना पूरा का पूरा घ्यान केन्द्रित करना चाहिये, क्योंकि आप और आपका परिवार रहेगा तो दुनिया रहेगी अन्यथा दुनिया का क्या महत्व। यह समय है, जो आया है तो निश्चित ही चला भी जायेगा। यह आपकी परीक्षा ले रहा है। स्पष्ट है कि यदि आप और आपका परिवार रहेगा तो आप नुकसान की भरपाई कर ले जायेंगे, अन्यथा सब कुछ बिखरना निश्चित है।
प्रायः आत्महत्या करने का प्रयास करने वालों को यह लगता है कि वह अपने आत्मघाती कृत्य के माध्यम से, कष्ट देने वाले को, मानसिक आघात पहुंचा रहे हैं, तो यह पूर्णतः हास्यापद एवं अज्ञानता की परकाष्ठा है, क्योंकि यह कटु सत्य है कि जिनके कारण आपको कष्ट हुआ है, उनके लिये अब आप निष्प्रयोज्य एवं अनुपयोगी हो चुके हैं। क्योंकि उनका सिद्धान्त ही ”प्रयोग करो और भूल जाओ“ (Use & Throw) है। प्रायः कुछ लोगों को अतिआत्मविश्वास में यह लगता है कि उनके साथ ऐसा नहीं होगा और जब होता है, तब आत्मबल के अभाव में कुछ लोग हताशा में आत्महत्या जैसे कायरतापूर्ण कर्म को करने के लिये प्रेरित होते हैं, जोकि सरासर अज्ञानता द्योतक है। अतः दिमाग के स्थान पर दिल से सोचने वालों के लिये यह अनिवार्य है कि वे अपने आत्मविश्वास एवं आत्मबल को जाग्रत करने के लिये कम से कम एक बार ”गीता” नहीं तो ”गीता के सार“ का थोड़ा सा अध्ध्यन अवश्य ही करें। ईश्वर पर विश्वास कीजिये, आपको सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगेगा और अन्तर्मन से आवाज आने लगेगी ”निरास न होना कमजोर तू नहीं, तेरा वक्त है“। गीता का मूल सार, चार योगों में ही समाहित हैः कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग। सेवाकाल के लिये सभी योग महत्वपूर्ण हैं, परन्तु कर्मयोग कार्य स्थल पर सबसे महत्वपूर्ण है। गीता में कर्मयोग का महत्वपूर्ण स्थान है, जिसमें कर्म को भावनापूर्वक और निष्काम भाव से किया जाना बताया गया है। स्पष्ट है कि जब कोई कर्म निष्काम भाव से किया जाता है तो परिणाम स्वतः महत्वहीन हो जाता है। अर्थात कोई विचार मन में उत्पन्न ही नहीं होता, जिससे कि निराशा और हताशा उत्पन्न हो।
गीता का उपदेश है कि हर व्यक्ति को कर्म में विश्वास करना चाहिए, क्योंकि ये जगत ही कर्मलोक है। कर्म आपके हाथ में है, परिणाम नहीं,. इसलिए कर्म पर ध्यान लगाऐं। कर्म के अनुरूप परिणाम तय है। उपरोक्त योगों के माध्यम से गीता मनुष्य को जीवन के विभिन्न पहलुओं में मार्गदर्शन प्रदान करती है और उसे सही दिशा में चलने के लिये प्रेरित करती है। मनुष्य अपने विश्वास से निर्मित होता है, जैसा वो विश्वास करता है, वैसा ही वो बन जाता है.। इस जीवन में ना कुछ खोता है, ना व्यर्थ होता है, हर काम का फल मिलता है। जो मन को नियंत्रित नहीं करते, उनके लिए मन ही, शत्रु के समान कार्य करता है.। अतः मन पर नियंत्रण आवश्यक है। क्रोध से भ्रम पैदा होता है, भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है और जब बुद्धि व्यग्र होती है, तब तर्क नष्ट हो जाता है। जब तर्क नष्ट हो जाता है तो मनुष्य आगे बढ़ने के लिये अपने आपको समझा पाने में असमर्थ होकर, अनन्तः भटकने लगता है, जिसका परिणाम कभी भी सार्थक नहीं हो सकता। जो ज्ञानी व्यक्ति ज्ञान और कर्म को एक रूप में देखता है, अर्थात अपने ज्ञान को अपने कर्म में परिवर्तित करने की चाहत रखता है, उसी का नजरिया सही है, बाकी सब भ्रम एवं माया जाल है।
बेबाक का स्पष्ट रुप से यह मानना है कि सदैव ही इन्सान के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं, जब कुछ प्राप्त हो रहा है तो वह एक हाथ में लड्डू है। परन्तु जब कुछ अचानक लुट रहा है अथवा खो रहा है तो वह इदूसरे हाथ में लड्डू है। क्योंकि नुकसान वो कर्जा है, जो आपके द्वारा जानते बूझते अथवा अज्ञानता में किये गये कर्मों का प्रतिफल है। अर्थात आपका कर्जा उतरना भी आपके लिये खुशी की बात है, जिसके लिये आप लड्डू बांटकर खुशियां मना सकते हैं। आईये एक बार फिर 16 माह पूर्व उस हड़ताल की ओर चलें जिसका परिणाम घोर हताशा एवं निराशा के रुप में उभरते हुये युवाओं में परिलक्षित हो रहा है। कार्मिक संगठनों का यह दायित्व है कि वे अपने सदस्यों के हित के लिये जो कुछ भी आवश्यक समझें, वह नीतिगत् एवं रचनात्मक रुप से करें। जिसके लिये सभी तथ्यों के उचित परीक्षण के साथ-साथ परिणाम एवं दुष्परिणामों का आकलन अवश्य ही करें। परन्तु यदि संगठनों के पदाधिकारी, सैद्धान्तिक विचारों एवं नियमों का त्यागकर, अपनी महत्वकांक्षा एवं हठधर्मिता के कारण कोई निर्णय लेते हैं, तो उसके परिणाम घातक हो सकते हैं। क्योंकि यदि प्रतिद्वन्द्धी भ्रष्टाचार में लिप्त है तो आपकी महत्वकांक्षा एवं हठधर्मिता के पोषित होने की प्रबल सम्भावना है। परन्तु जब प्रतिद्वन्द्धी नियम कायदे और कानून का जानकार होने के साथ-साथ ईमानदार हो। उस पर भी यदि आपका आचरण अमर्यादित होकर व्यक्तिगत् हो, तो निश्चित ही, परिणाम सार्थक होने की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है। उक्त कार्मिक हड़ताल की विशेषता यह थी कि संयुक्त मोर्चा में शामिल अधिकांश कार्मिक संगठनों के पदाधिकारी सेवानिवृत्त थे। जिनके कोई कार्मिक हित ही नहीं थे। स्पष्ट है कि वह हड़ताल ”कहीं पे निगाहें और कहीं पे निशाना“ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं थी? जिसका दुष्परिणाम आज भी कार्मिक भुगत रहे हैं। शेष अगले भाग में….
राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA.