क्या निजीकरण का विरोध निजी कम्पनियों से, नजराने की चाहत मात्र तो नहीं?

मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता। परन्तु पिछले कई दिनों से बेबाक अपने अंक सं0 16/14.02.2025 “जहां नियोक्ता, कार्मिक और उपभोक्ता तीनों में से अधिकांश भ्रष्ट हों, उस विभाग के निजीकरण की कल्पना में ईमानदारी कितनी होगी”… इसी में उलझा हुआ है। क्योंकि यक्ष प्रश्न यथावत् है कि आखिर किसके लिये निजीकरण रोका जाये। क्योंकि न तो निजीकरण कराने वाले और न ही जिनका निजीकरण हो रहा है, दोनों में से कोई भी ईमानदारी की कसौटी पर कहीं भी खरा उतरता नजर नहीं आ रहा है।

विधुत अधिकारियों का भ्रष्टाचार की अफीम के लिये उपभोक्ता के साथ-साथ अधीनस्थ नियमित एवं संविदा कर्मियों का प्रयोग करना, यही विगत् 25 वर्षों का इतिहास रहा है। जिसका परिणाम है कि राजनीतिक महत्वकांक्षा के फलस्वरूप जनित निजीकरण के जिन्न के विरोध का साहस कहीं दूर-दूर तक दिखलाई नहीं दे रहा है। क्योंकि पिछले 25 वर्षों से कथित राजनीतिक एवं प्रबन्धन के सहयोग से भ्रष्टाचार के अफीम का नियमित प्रयोग करने के कब अभ्यस्त हो गये यह पता ही नहीं चला। अब डर है कि कहीं विरोध प्रदर्शन में दिखलाई देने पर पहचान न लिये जायें। इसी पहचाने जाने के डर से बहुत सारे लोग अपने नैसर्गिक विरोध को दबाये बैठे हैं अथवा स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर तेजी से पलायन कर रहे हैं।

ऊर्जा निगमों के इतिहास में पहली बार भोजनावकाश एवं अवकाश के समय/दिन में नियमानुसार ध्यानाकर्षण विरोध प्रदर्शन दिखलाई दे रहा है। वह भी तब जब नियमित कार्मिकों की आजीविका खतरे में है। चेहरे वही हैं, जो कभी बात-बात पर कार्य बहिष्कार और हड़ताल करने के लिये उतावले रहते थे। प्रश्न उठता है कि क्या इन सभी को आवेशित करने वाली बैटरियां खराब हो चुकी हैं अथवा प्रबन्धन द्वारा अपने पास सुरक्षित रख ली गई हैं। जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि सैद्धान्तिक रुप से इन सभी के द्वारा निजीकरण को स्वीकारा जा चुका है और कहीं न कहीं ये प्रबन्धन एवं निजी कम्पनियों के निहित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु छदम भेष धारण करके, ऊर्जा निगमों के द्वार पर सिर्फ इसलिये खड़े हैं, कि कहीं दूसरा आकर द्वार पर कब्जा जमाकर, निजीकरण के बाद मिलने वाला नजराना न ले जाये।

प्रश्न उठता है कि आखिर वो क्या कारण हैं कि निजीकरण के कारण वास्तविक रुप से जिनके हित प्रभावित होने सम्भावित हैं, वह नियमित कार्मिक ध्यानाकर्षण विरोध प्रदर्शन से या तो दूरी बनाये हुये है अथवा स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर पलायन कर रहे हैं। स्मरण रहे कि कार्मिक संगठनों के पूर्ववर्ती पदाधिकारियों के नेत्रत्व में कार्मिक हितों को सुरक्षित करने हेतु बहुत सारे आन्दोलन सफल हुये और ऊर्जा निगमों में कार्मिकों के हित सुरक्षित हुये। परन्तु विगत् कुछ वर्षों में चाहे वरिष्ठता हो, पदोन्नत्ति हो, समयबद्ध वेतनमान हो या विभागीय सुविधायें हों सभी में कहीं न कहीं खेल हुआ है, वे या तो छीनी जा चुकी हैं अथवा छीनी जा रही हैं। विरोध के नाम पर कतिपय कार्मिक पदाधिकारी गण अपने निजी खातों में संघर्ष शुल्क एकत्र करते रहे हैं। जिसका मूल कारण है कि अधिकांश कार्मिक भ्रष्टाचार के अफीम के सेवन के आदी हो चुके है। आज कार्मिक पदाधिकारी आम उपभोक्ता के दर्द अर्थात बिजली महंगी होने की बात करते हैं परन्तु वे यह कहना भूल जाते हैं कि प्रायः बिना नजराना लिये, उनके सदस्य उपभोक्ता का कोई भी कार्य करना पसन्द ही नहीं करते। कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है निगमों में ही चाहे अनुशासनात्मक कार्यवाही के निपटारे की बात हो अथवा गोपनीय आख्या लिखने की, प्रायः बिना चढ़ावे के कोई कार्य नहीं होता। अन्यथा वर्षों तक ऐड़ियां घिसते रहते हैं।

भ्रष्टतम अधिकारी चढ़ावा चढ़ाकर, पदोन्नत्ति पर पदोन्नत्ति पाकर आगे बढ़ता चला जाता है अथवा पदोन्नत्ति के अयोग्य होने पर भी प्रबन्धन से अतिरिक्त उच्च पद का कार्यभार क्रय कर उच्चाधिकारी बन जाता है, जिसका प्रचलन आज जोरों पर है। एक संवर्ग को पदोन्नति के अनुभव में शिथिलता तो दूसरे पर रोक परन्तु उच्च पद के अतिरिक्त कार्यभार देने की दुकान जोरों पर है। आज ऊर्जा निगमों की स्थिति यह हो चुकी है कि उसकी डाल-डाल भ्रष्टाचार के अफीम से ग्रसित हो चुकी है तथा ईमानदारी लुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी है। ऊर्जा निगमों का नियमित युवा कार्मिक पूर्णतः दिशाहीन है। कार्मिक संगठन, जिनका मूल उद्देश्य ही मार्ग प्रदर्शक एवं सदस्यों का कल्याण है, वे दसकों से, पदोन्नत्त होने, संवर्ग परिवर्तित होने अथवा सेवा निवृत्त होने के बावजूद संवर्गीय कार्मिक संगठनों के पदों पर अवैध रूप से सिर्फ अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु चिपके पड़े हैं। उनके पास अब ऐसा कुछ भी शेष नहीं बचा है, कि वे अपने सामान्य सदस्यों का मार्गदर्शन करने के साथ-साथ उनका कल्याण करने की कभी सोच भी सकें। जिसका जीता जागता प्रमाण है आज निजीकरण के विरोध के नाम पर सेवानिवृत्त कार्मिकों एवं संविदाकर्मियों के साथ भोजनावकाश एवं अवकाश के समय, ऊर्जा प्रबन्धन के सहयोग से निगमों के द्वार पर, होता दिखावटी प्रदर्शन।

प्रबन्धन के सहयोग से इसलिये, क्योंकि भोजनावकाश एवं अवकाश के अतिरिक्त समय में होने वाले विरोध प्रदर्शन पर, ऊर्जा प्रबन्धन सरकारी कार्य में बाधा पहुंचाने के तहत कार्यवाही करने के लिए बाध्य न हो। अर्थात एक सोची समझी नीति के तहत, कतिपय बाहरी एवं सेवानिवृत्त कार्मिकों के द्वारा, संविदा कर्मियों के साथ मिलकर भोजनावकाश एवं अवकाश के समय निजीकरण के विरुद्ध किया जाने वाला सांकेतिक ध्यानाकर्षण प्रदर्शन, सम्भवतः निजी कम्पनियों से मिलने वाले नजराने की आश में किया जाने वाला एक प्रायोजित प्रदर्शन मात्र है।

बेबाक का यह मानना है कि माननीय प्रधानमन्त्री जी के कथनानुसार ”जान है तो जहांन है“ के अनुसार यदि वास्तव में नियमित कार्मिक अपने भविष्य के प्रति चिंतित हैं, तो उन्हें इस संकल्प के साथ आगे आना ही होगा, कि उन्हें वितरण कम्पनियों को इन बाहरी लोगों से बचाना है। जिसके लिये इन छदमभेष धारी, मौकापरस्त कतिपय कार्मिक पदाधिकारियों, जोकि निगमों को लगातार भ्रष्टाचार के दलदल में ले जाने के लिये, कतिपय कार्मिक संगठनों के साथ, नियमविरुद्ध जोंक की तरह चिपके हुये हैं। उनसे मुक्ति पानी ही होगी। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!

-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.

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