
मित्रों नमस्कार! स्वतन्त्र भारत में, देश के संविधान के विरुद्ध, तानाशाही पूर्ण तरीके से कार्य करने की अनुमति किसी भी अधिकारी अथवा राजनेता को नहीं है। कोई भी कर्मचारी अथवा अधिकारी बकायेदार अथवा अधीनस्थ को पद का भय दिखलाते हुये, डराने-धमकाने का प्रयास नहीं कर सकता। अन्यथा उसके विरिद्ध संविधान सम्मत विधिक कार्यवाही का प्रावधान है। जिसको नियन्त्रित एवं सुगम बनाने के लिये ही एक हायरार्की (Hierarchy) पदानुक्रम का प्रयोग किया जाता है। परन्तु इसके विपरीत आये दिन नियन्त्रक अधिकारी से लेकर विभाग के मन्त्री तक बात-बात पर जनहित के नाम पर उपरोक्त हायरार्की को धता बताते हुये, कार्मिकों के विरुद्ध कार्यवाही करने की धमकी देते हुए, बिना किसी जांच पड़ताल के कार्यवाहियां करते अथवा करवाते नजर आते हैं।
मन में एक सवाल उठता है कि क्या आजादी से पूर्व हम गुलाम ही बेहतर नहीं थे। भारतीय संविधान का मूल आधार एक समानता है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ऊर्जा निगमों के कार्मिकों को देश की नागरिकता से ही बेदखल कर दिया गया हो। क्योंकि उनके विरुद्ध कार्यवाहियां करने के लिये तमाम नियमावलियां बनाई जाती हैं। परन्तु उन नियमावलियों के पालन के नाम पर सिर्फ निलम्बन एवं बर्खास्त करने की कार्यवाहियां कर उन्हें एक पिंजड़े में कैद कर लिया जाता है। अर्थात अनुशासनात्मक कार्यवाहियां उन्हीं की मर्जी से पूर्ण होती हैं। जिसके कारण उनकी पदोन्नत्ति रुकी रहती है एवं सेवानिर्वत्त होने के बाद तक अनुशासनात्मक कार्यवाही पूर्ण नहीं होती। जिसके कारण पेंशन तक रुकी रहती है। परन्तु राजनेताओं/प्रबन्धन के झण्डे के नीचे आने पर, बिना अनुशासनात्मक कार्यवाही पूर्ण किये ही उच्च पद का अतिरिक्त कार्यभार तक दे दिया जाता है। क्या यह तातनाशाही की परकाष्ठा नहीं है कि विभाग के मन्त्री जी, सार्वजनिक रुप से यह कहते हैं कि यदि ट्रान्सफार्मर जलेगा तो अधिकारी भी जलेगा।
जो स्वतः यह स्पष्ट करता है कि ऊर्जा निगमों में भारतीय संविधान एवं नियमावली बहुत गौण है। माननीय मन्त्री जी कहीं कोई बैठक कर रहे होते हैं और यदि वहां पर बिजली चली जाती है, तो सम्बन्धित कर्मचारियों एवं अधिकारियों को निलम्बित कर दिया जाता है। जोकि घोर अपरिपक्वता एवं तानाशाहीपूर्ण आचरण का परिचायक है। सर्वविदित है कि विद्युत नियमावली-1956 के तहत बिजली की आपूर्ति कटिया के माध्यम से न होकर, एक सुरक्षा युक्त प्रणाली के माध्यम से होती है। यदि लाईन में कहीं भी कोई कमी या दोष उत्पन्न होता है, तो सुरक्षा की दृष्टि से बिजली का स्वयं (Automatic) बन्द होना अनिवार्य है। अतः यदि बैठक के दौरान बिजली बन्द हुई, तो स्पष्ट है कि कहीं न कहीं कोई अवांक्षित दोष उत्पन्न हुआ होगा, जिसके कारण आपूर्ति बाधित हुयी थी। जिसकी जांच के उपरान्त ही यह निर्णय लिया जा सकता है कि बिजली किन कारणों से बन्द हुई थी। जबकि बिजली का बंद होना, इस बात का परिचायक है कि सुरक्षा उपकरण सही ढंग से कार्य कर रहे थे। जिसके लिये क्षेत्र के अधिकारी एवं कर्मचारी बधाई के पात्र होने चाहिये न कि शान में गुस्ताखी करने के अपराधी। यहां अपराधी शब्द का प्रयोग करना इसलिये आवश्यक है क्योंकि राजनीतिज्ञ एवं उच्चाधिकारियों की शान के आड़े आने पर, सम्बन्धित को आरोपी नहीं बल्कि सीधे अपराधी मान लिया जाता है। इस तथ्य को यदि दूसरे रुप में भी देखा जाये तो ज्यादा स्पष्ट हो जायेगा। ईश्वर न करे, यदि माननीय मन्त्री जी की सुरक्षा में कोई खतरा उत्पन्न होता दिखाई देता है, तो सुरक्षा में लगे गार्ड, आवश्यकतानुसार तत्काल उपलब्ध घातक हथियारों तक का भी प्रयोग करने के लिये स्वतन्त्र होते हैं। इसी प्रकार से जानमाल की सुरक्षा के लिये विद्युत तन्त्र में स्थापित उपकरण, स्वतः कार्यशील होने के लिये स्वतन्त्र होते हैं। जिनमें कोई भी विलम्ब होने पर बड़ी घातक दुर्घटना सम्भव है। सुरक्षा उपकरणों का कार्य करना, किसी भी दृष्टि से अपराध की श्रेणी में नहीं आता।
यक्ष प्रश्न उठता है कि यदि सुरक्षा में तैनात गार्ड द्वारा यदि सुरक्षा के लिए अपने हथियारों का प्रयोग किया जाता है तो क्या उनके विरुद्ध भी कार्यवाही की जायेगी? अतः नाक पर मक्खी बैठते ही मक्खी को मारने के तत्काल आदेश देना और प्रबन्धन द्वारा उनका आंख बन्द कर अनुशरण करना कदापि उचित नहीं है। आये दिन अधिशासी अभियन्ता, अधीक्षण अभियन्ता, मुख्य अभियन्ता, निदेशक, प्रबन्ध निदेशक, अध्यक्ष एवं विभाग के मन्त्री जी के द्वारा समीक्षा बैठकें की जाती हैं। जिनका एकमात्र उद्देश्य कार्मिकों को डराने-धमकाने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। शायद ही किसी को याद हो कि किसी उच्चाधिकारी अथवा माननीय मन्त्री जी के द्वारा विभाग के मुखिया होने के नाते, अधीनस्थों को परिवार का सदस्य मानते हुये कभी कोई चर्चा की हो। एक बार निजीकरण को लेकर उ0प्र0पा0का0लि0 के अध्यक्ष महोदय द्वारा विभाग को चला न पाने में असमर्थता एवं अपनी असफलता को स्वीकारने के स्थान पर, निजीकरण के लाभ गिनवाने का प्रयास करते हुये बड़े प्यार से, अप्रत्यक्ष रुप से धमकाने का प्रयास ही किया गया था।
पता नहीं जीरो टालरेंस के नाम पर प्रदेश के अन्य विभागों में क्या स्थिति है। परन्तु ऊर्जा निगमों में तो जीरो टालरेंस का मतलब, सिर्फ ”नाक और शान“ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। एक अधिकारी जोकि माननीय प्रधनमन्त्री जी की महत्वकांक्षी सौभाग्य योजना में, सामग्री निर्माताओं एवं कार्यदायी संस्थाओं के साथ मिलकर, उसमें पलीता लगाने में अग्रणी था, आज अध्यक्ष महोदय के कार्यालय की शोभा बढ़ा रहा है। जो बिना कुछ कहे, स्वतः बहुत कुछ बयां कर रहा है। ऐसे तत्वों की मुख्यालय में उपस्थिति ही पूरी की पूरी प्रणाली पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देती है। पहले ही बेबाक यह स्पष्ट कर चुका है कि वरिष्ठता एवं अनुभव को दरकिनार कर कनिष्ठों को उच्च पदों का अतिरिक्त कार्यभार दिलाकर, जिस प्रकार से पूरी की पूरी प्रणाली को अस्त-व्यस्त कर, विभाग पर शासन किया जा रहा है। उसका एकमात्र उद्देश्य ही विभाग को किसी भी तरह से समाप्त किया जाना है।
आज निगमों में स्थिति यह हो गई है कि एक ही अधिकारी को कभी उच्चाधिकारी, तो कभी निदेशक, तो कभी प्रबन्ध निदेशक, तो कभी अध्यक्ष और कभी माननीय मन्त्री जी धमकाते हैं और कार्यवाही करते हुये नजर आते हैं। एक संविदाकर्मी जोकि विभाग का नहीं, बल्कि निजी कार्यदायी संस्था का कर्मचारी है, उसको भी बर्खास्त करने के आदेश मन्त्री जी देते हैं। जिसमें सुधार कम तानाशाही ज्यादा नजर आती है। अर्थात एक ही अधिकारी/कर्मचारी के इतने खसम हो चुके हैं, कि अधिकारियों के लिये सभी खसमों को, एक साथ सन्तुष्ट कर पाना सम्भव नहीं है। जिसके ही कारण आज निगमों की कार्य प्रणाली पूर्णतः ध्वस्त होने के कगार पर पहुंच चुकी है। वायसराय के नीचे के अधिकारी अपने आपको पूर्णतः विकलांग मानते हुये, सिर्फ और सिर्फ कथित वायसरायों अथवा माननीय मन्त्री जी के द्वारा दिये जाने वाले निर्देशों (चाहे वे तकनीकी रुप से योग्य हों या अयोग्य) का पालन कराने में ही लगे रहते है। स्पष्ट है कि हायरार्की (Hierarchy) को पूर्णतः दरकिनार करते हुये, एक ही कर्मचारी/अधिकारी के कई-कई खसम होने एवं खसमों के अहंकार के कारण, पद की योग्यता पूर्णतः कुण्ठित हो चुकी है। जिसका परिणाम ही ऊर्जा निगमों के पतन के रुप में परिलक्षित हो रहा है।
यक्ष प्रश्न उठता है कि क्या नित्य होने वाली तथाकथित वायसराय एवं माननीय मन्त्रीजी की समीक्षा बैठकों का मूल उद्देश्य, हताशा में, निजीकरण को सुगम बनाने हेतु निगमों के औद्योगिक वातावरण को भययुक्त बनाना तो नहीं है। क्योंकि निजीकरण के उपरान्त निजी कम्पनी वाला अपने व्यापारिक हितों के मद्देनजर, इन्हें अपने कार्मिकों के साथ समीक्षा बैठक करने की कभी कोई अनुमति नहीं देगा, तब ये कहां जाकर अपने साहिब-ए-शान-ओ-शौकत का रौब दिखलायेंगे? राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द! बी0के0 शर्मा महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.