
मित्रों नमस्कार! वर्ष 2002 में तत्कालीन उ0प्र0रा0वि0प0 के विघटन के बाद कम्पनी एक्ट में पंजीकृत उर्जा निगमों को चलाने के लिये गठित महत्वपूर्ण निदेशक मण्डल, कोई भी निर्णय लेने के लिये स्वतन्त्र है और नियमानुसार प्रदेश सरकार तक इसमें सीधे-सीधे दखल नहीं दे सकती। यही कारण है कि गत् वर्ष कार्मिक हड़ताल में सम्मिलित कतिपय कार्मिक संगठन, उर्जा मन्त्री के साथ हड़ताल स्थगित करने के नाम पर किये गये समझौते को लागू करने, जिसमें हड़ताल पर गये कार्मिकों के विरुद्ध प्रचलित समस्त अनुशासनात्मक कार्यवाही को समाप्त किया जाना था, की मांग करते रहते हैं। परन्तु प्रबन्धन द्वारा एक वर्ष से भी अधिक समय बीत जाने के बावजूद उर्जा मन्त्री के साथ किये गये समझौते का क्रियावयन नहीं किया गया है। जो स्वतः निदेशक मण्डल में निहित शक्ति को परिभाषित करता है। जिसको खण्डित करने की कोई भी संवैधानिक शक्ति माननीय उर्जामन्त्री के पास नहीं है।
परन्तु दुर्भाग्य से, निदेशक मण्डल में, सम्भवतः अधिकांश निदेशक गण किसी न किसी औद्योगिक संगठन की मार्केटिंग करते हैं। जिसके पीछे कई तथ्य हैं…
- प्रायः निदेशक पद पर चयन हेतु किसी विशेष पसंदीदा अधिकारी को चयनित करने के उद्देश्य से ही न्यूनतम अहर्ता को परिवर्तित किया जाता है।
- वर्ष 2002 में मात्र 75 करोड़ का घाटा, कम्पनी एक्ट में पंजीकृत होने के बाद, आज उर्जा निगमों का घाटा 1 लाख करोड़ से भी ज्यादा हो चुका है।
स्पष्ट है कि किसी पसन्दीदा विशेष अधिकारी को निदेशक मण्डल में पहुंचाने में किसी न किसी के हित जुड़े हुये होते हैं, जिसके लिये औद्योगिक समूहों के द्वारा, निदेशक पद पर चयन हेतु, पूर्व निर्धारित नियमों एवं न्यूनतम अहर्ता तक में बदलाव करा दिया जाता है। वैसे भी उर्जा निगमों में प्रबन्ध निदेशक एवं अध्यक्ष पद पर चयन हेतु शासन द्वारा घोषित Memorandum of Article के क्रियावयन पर अघोषित रोक लगी हुई है। यह रोक किसके निर्देश पर लगी है आज भी अज्ञात है। तथाकथित औद्योगिक समूह जनहित के नाम पर सरकार से नई-नई योजनायें स्वीकृत कराते हैं और उनके लिये धन आबंटित कराते हैं।
निविदाओं में कुछ ऐसी शर्तें रखी जाती हैं कि निविदायें उन्हीं को प्राप्त होती हैं। तत्पश्चात निदेशक मण्डल में बैठे उनके प्रतिनिधि, उनके कार्यों एवं हितों की रक्षा करने हेतु, नित्य कार्यो की प्रगति के नाम पर, क्षेत्राधिकारियों पर दबाव बनाकर, झूठा-सच्चा कार्य समापन का प्रमाण पत्र लेकर, उनका भुगतान कराते हैं। जबकि कटु सत्य यह है कि कार्य एवं कार्य में प्रयुक्त सामग्री की गुणवत्ता निम्नतम स्तर की होती है। जिसका ही परिणाम है कि हजारों करोड़ की विभिन्न विद्युतीकरण एवं प्रणाली को सुदृढ़ करने की योजनायें लागू करने के बावजूद न तो नित्य होने वाली विद्युत दुर्घटनायें कम हो रही हैं और न ही विभाग का घाटा रुकने का नाम ले रहा है।
आज चहुं ओर उर्जा निगमों में निदेशक पद पर चयन हेतु निर्धारित अधिकतम आयु 62 से 65 वर्ष किये जाने की चर्चा है, जो सीधे-सीधे किसी न किसी ऐसे अधिकारी को निदेशक मण्डल में शामिल करने की सुनियोजित घोषणा के समान है, जोकि 2 या 3 वर्ष पूर्व, मुख्य अभियन्ता पद से, सेवा निवृत हो चुका है अथवा किसी पसन्दीदा निदेशक को सेवा विस्तार देना है। इससे पूर्व भी प्रबन्ध निदेशक उ0प्र0पा0का0लि0 रहे इ0 अयोध्या प्रसाद मिश्रा को निदेशक बनाने हेतु निर्धारित योग्यता, मुख्य अभियन्ता स्तर से घटाकर अधीक्षण अभियन्ता की गई थी। तत्पश्चात उनकी उच्च स्तर पर राजनीतिक पहुंच के कारण, निदेशक पद पर बनाये रखने के लिये, सेवा विस्तार के साथ-साथ, निर्धारित आयु सीमा भी 62 से 65 वर्ष की गई थी। जिन्हें अन्ततः भ्रष्टाचार के मामलों में जेल जाना पड़ा था। उपरोक्त से यह पूर्णतः स्पष्ट है कि उर्जा निगमों में राजनीतिक दखल का स्तर क्या है। जोकि सीधे-सीधे उर्जा निगमों के कार्यों में राजनीतिक दखल के समान है अर्थात माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जनहित याचिका सं0 79/1997 पर दि0 21.03.2007 को दिये गये अन्तिम निर्णय में निहित दिशा-निर्देशों की अवमानना है।
दुर्भाग्य से शायद माननीय सर्वोच्च न्यायालय का उपरोक्त आदेश, एकमात्र ऐसा आदेश है जिसकी अवमानना, बार-बार संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों के द्वारा ही की जाती है। क्योंकि किसी मन्त्री अथवा अधिकारी के आदेशों की अवमानना पर तो सम्बन्धित मन्त्री महोदय अथवा अधिकारी द्वारा त्वरित कार्यवाही करते हुये सम्बन्धित को दण्डित करने में कोई कोताही नहीं बरती जाती। जबकि माननीय न्यायालय की अवमानना हेतु, न्यायालय की शरण में जाना पड़ता है, जहां वकील की भारी फीस के साथ-साथ, भरपूर समय की आवश्यकता होती है। इस कटु सत्य को प्रबन्धन भलीभांति जानता है और इस बात पर पैनी नजर बनाये रखता है कि कौन उसके निर्णय को चुनौती देने का साहस कर रहा है। परिणामतः उस कार्मिक के भविष्य को खराब करने का संगठित रुप से, यथासम्भव प्रयत्न किया जाता है। चूंकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वयं स्थानान्तरण एवं निलम्बन को दण्ड नहीं माना है, अतः इस निर्णय का भरपूर दुरुपयोग प्रबन्धन एवं राजनीतिज्ञों के द्वारा किया जाता है। जोकि अन्य के लिये ”कौआ मारकर पेड़ पर टांगने“ अर्थात भयभीत करने के लिये प्रयोग किया जाता है।
बेबाक द्वारा बार-बार यह दोहराया जाता है कि उर्जा निगमों में कुछ मठाधीशों की कार्य करने की कार्यशैली ”अपने ही इच्छित स्थान पर, अपनी ही शर्तों के साथ कार्य करने का संकल्प“ है तथा उपरोक्त संकल्प की पूर्ति हेतु तथाकथित कार्मिक, राजनीतिक एवं उच्चाधिकारियों की पहुंच अपनी जेबों में लिये घूमते हैं। यह कहना कदापि अनुचित न होगा कि ऐसे लोग, विभाग में कतिपय औद्योगिक समूहों/राजनीतिज्ञों के प्रतिनिधि के रुप में विभागीय वेतन पर कार्य करते हैं। इसीलिये इनको सामान्यतः छेड़ना, उच्चाधिकारियों के लिये भी आसान नहीं होता तथा इनकी हैसियत इतनी होती है कि इनके नियन्त्रक अधिकारी तक, इनसे भयभीत रहते हैं। दुर्भाग्य से उपरोक्त गुणों से परिपूर्ण, अधिकांश महानुभाव, निदेशक पदों के लिये, सेवा निवृत्त होने के बाद भी उपयुक्त होते हैं। यदि निदेशकों के पूर्व कार्यकाल एवं निदेशक पद पर पदासीन होने के उपरान्त लिये गये निर्णयों की विवेचना की जाये तो उर्जा निगमों के लगातार बढ़ते घाटे की एक-एक परत का खुलासा हो जायेगा। जिसमें सीधे-सीधे खुलासा होने की प्रबल सम्भावना है कि निदेशक पद पर चयनित होने से पूर्व एवं बाद में भी इनके द्वारा निगम हित में कभी कोई कार्य किया ही नहीं गया। जिससे कि विभाग को उर्जा क्षेत्र में आवश्यक गति प्राप्त होती।
बेबाक का यक्ष प्रश्न है कि क्या कभी उर्जा निगमों को उनके लिये समर्पित, उर्जावान एवं निर्णय लेने हेतु निडर निदेशक प्राप्त होंगे अथवा इसी प्रकार से कतिपय औद्योगिक समूहों के हितों के रक्षार्थ, पसन्दीदा निदेशकों (Yes-man) को विस्तार पर विस्तार देने हेतु अथवा सेवानिवृत्त अधिकारियों को निदेशक बनाने हेतु, निर्धारित आयु सीमा बढ़ाई जाती रहेगी। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
–बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA.