
मित्रों नमस्कार! लखनऊ के साप्ताहिक समाचार पत्र “समय का उपभोक्ता” में दि0 12.08.24 को प्रकाशित खबर ”उत्तर प्रदेश पावर कॉर्पोरेशन और उसकी सहयोगी निगमों मे फिर निकली निदेशकों की नियुक्ति का विज्ञापन और भ्रष्टाचार का खुला खेल शुरू“ पत्रकार द्वारा समाचार पत्र में निदेशकों की नियुक्तियों के सम्बन्ध में सैधान्तिक प्रश्न उठाये हैं। उक्त समाचार पत्र द्वारा सदैव ही ऊर्जा निगमों के प्रबन्ध निदेशक एवं अध्यक्ष को ”बड़का बाबू“ के नाम से सम्बोधित किया जाता है। उर्जा निगमों में नियुक्त प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति हेतु सरकार द्वारा जारी दिशा निर्देश Memorandum of Article में स्पष्ट रुप से वर्णित हैं। जिसमें पहले निदेशकों के चुनाव की प्रक्रिया है तत्पश्चात निदेशकों के द्वारा ही प्रबन्ध निदेशक एवं अध्यक्ष का चुनाव करने का वर्णन है।
संविदा पर निदेशकों के चुनाव पर यदि नजर डालें तो वह मात्र औपचारिकता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। जिसके नियम व्यक्ति विशेष के लिये बार-बार बदले जाते हैं। कभी निदेशक पद के लिये न्यूनतम योग्यता मुख्य अभियन्ता रखी जाती है तो कभी घटाकर अधीक्षण अभियन्ता कर दी जाती है। इसी प्रकार आयु सीमा में भी परिवर्तन किया जाता है। जैसे इस बार आयु सीमा 62 से बढ़ाकर 65 वर्ष कर दी गई है। जो यह प्रमाणित करता है कि ऊर्जा निगमों में राजनीतिक हस्तक्षेप किस स्तर पर है। अतः यह बताने की आवश्यकता नहीं कि व्यक्ति विशेष ऊर्जा निगमों के प्रति कितना वफादार/निष्ठावान होगा। वर्ष 2002 में उ0प्र0रा0वि0प0 के विघटन के बाद बनी कम्पनियों में निदेशक मण्डल एवं उनके प्रबन्ध निदेशक एवं अध्यक्ष पदों पर Memorandum of Article के अनुसार नियुक्तियां होनी थी। जिसके अनुसार निदेशकों का चयन तो हुआ, परन्तु प्रबन्ध निदेशक एवं अध्यक्ष का कोई भी चयन आज तक नहीं हुआ। सभी प्रबन्ध निदेशक एवं अध्यक्ष सरकार द्वारा थोपे गये हैं। यही कारण है कि निदेशक मण्डल, प्रशासनिक अधिकारियों की मात्र कठपुतली बनकर रह गया है। जिसका मूल कार्य ही बिना सोचे-समझे सिर्फ प्रबन्ध निदेशक एवं अध्यक्ष के निर्णयों पर अपनी सहमति प्रदान करना मात्र रह गया। इसके अतिरिक्त निदेशकों की विभाग के लिये उपयोगिता लगभग शून्य है।
किसी भी डिस्काम में निदेशकों को स्वतन्त्र रुप से अपने अनुभव एवं योग्यता के अनुसार कोई कार्य करने की छूट लगभग शून्य है। डिस्काम एवं पा0का0लि0 में नियुक्त निदेशकों का कार्य, सिर्फ बाबू के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अतः निदेशकों के अनुभव की कोई आवश्यकता नहीं है। यही कारण है कि मात्र 77 करोड़ के घाटे पर कम्पनियों में विघटित होने के बाद, आज लगभग 22 वर्ष बाद, विभाग लगभग 100000 करोड़ के घाटे में चल रहा है। कारण स्पष्ट है कि जब यहां कर्मचारियों एवं अधिकारियों में अपने विभाग के प्रति कोई निष्ठा ही नहीं है तो अंग्रेजों की तरह बाहर से आये प्रशासनिक अधिकारियों की निष्ठा क्या होगी। निदेशकों का कार्यकाल 3 वर्ष का होता है और कुछ इसी प्रकार से प्रशासनिक अधिकारियों की भी नियुक्ति 3 सें 4 वर्ष तक के लिये होती है।
ऊर्जा निगम प्रशासनिक अधिकारियों के लिये एक प्रयोगशाला बन चुके हैं जहां निदेशक मण्डल के कन्धों के माध्यम से नित्य नये प्रयोग किये जाते हैं। ऊर्जा निगमों की मूलभूत आवश्यकता क्या हैं, इस बात से किसी को कुछ भी लेना देना नहीं है। शहर में कोई मेला आयोजित होना है तो अपने खम्भों की अर्थिंग दुरुस्त कराने के स्थान पर, अनपढ़ों की तरह, खम्भों पर प्लास्टिक की पन्नियां बंधवाकर, दायित्वों का निर्वाह कर दिया जाता है। जबकि ऊर्जा निगम पूर्णतः तकनीकी संस्थान हैं और इस प्रकार की सोच दुखद है, पूरी की पूरी प्रणाली पर एक प्रश्न चिन्ह है। यह कहना अनुचित न होगा, कि डूबते जहाज को लूटने में कहीं भी किसी भी स्तर पर कोई कमी नहीं छोड़ी जा रही है। इस बार निदेशक के चुनाव हेतु, ऊर्जा निगमों के अभियन्ताओं के लिये न्यूनतम योग्यता, मुख्य अभियन्ता एवं 30 वर्ष का अनुभव रखा गया है, जबकि बाहरी अभ्यर्थियों के लिये मात्र 15 वर्ष रखकर स्पष्ट रुप से अपने ही अभियन्ताओं को अपमानित किया गया है। क्योंकि ऊर्जा निगमों में लगातार विषम परिस्थितियों में 30 वर्ष कार्य करने के बाद भी विभागीय अभियन्ता, बाहरी अभियन्ता के 15 वर्ष के अनुभव के बराबर है। जबकि बाहरी व्यक्तियों के पास न तो इतने बड़े प्रदेश में राजनीतिक दबाव एवं उग्र देव तुल्य उपभोक्ताओं के साथ कार्य करने का कोई अनुभव ही नहीं है। अतः 30 वर्ष पर 15 वर्ष के अनुभव को, जिसमें क्षेत्र का अनुभव शून्य है, वरीयता दिया जाना, प्रबन्धन की नीति एवं नियत को पूर्णतः स्पष्ट करता है।
वास्तविकता यह है कि यदि विभागीय अभियन्ताओं से सिर्फ निहित स्वार्थ का तमगा हटा दिया जाये तो ऊर्जा निगमों में मात्र 3 वर्ष का अनुभव ही, बाहरी अभियन्ताओं के 15 वर्ष के अनुभव पर बहुत भारी होगा। ऊर्जा निगमों में मात्र 3 वर्ष के लिये, पूर्णतः अन्जान एवं अनुभवहीन निदेशक चुने जाने के पीछे क्या रहस्य है, वह सिर्फ और सिर्फ प्रबन्धन ही जानता है। परन्तु यह स्पष्ट है कि उसकी उपयोगिता रबर स्टाम्प से अधिक नहीं है। इस बार निदेशक (विद्युत चालित वाहन) के नये पद का सृजन किया जाना आश्चर्यजनक है। पिछली बार निदेशक (आई0टी0) का नया पद सृजित किया गया था। निदेशक (आई0टी0) की उपयोगिता भी एक रबर स्टाम्प से ज्यादा नहीं है और वितरण निगमों में IT Engineers को, वितरण खण्डों का कार्यभार दिया जा रहा है। इसी प्रकार Power Purchase Agreement (PPA) जोकि विशुद्ध रुप से विद्युत अभियन्ताओं के पद है। परन्तु उसके मुख्य अभियन्ता पद पर पिछले लगभग 7-8 वर्षों से एक Civil Engineer नियुक्त है। जो यह प्रमाणित करता है कि योग्यता एवं विशेषज्ञों की ऊर्जा निगमों में कहीं कोई आवश्यकता नहीं है। जब अन्ततः सिविल इन्जीनियर हो या आई0टी0 इंजीनियर हो, सभी से इलेक्ट्रिकल इन्जीनियर का ही कार्य लेना है, तो विभाग द्वारा विद्युत, आई0टी0, सिविल इन्जीनियर पदों के लिये अलग-अलग रिक्तियां क्यों निकाली जाती है। बेहतर होगा कि न्यूतम योग्यता सिर्फ इन्जीनियर ही रखने में क्या नुकसान है। यहां पर सिर्फ उनकी आवश्यकता है जो सिर्फ और सिर्फ Yes Sir! से ज्यादा कभी न बोलें और खच्चर की तरह काम करते हुये उच्चाधिकारियों की रसद सामग्री में कोई रुकावट उत्पन्न न होने दें। विभाग की मूलभूत आवश्यकता Money, Material & Man Power है। इन तीनों चीजों की आड़ में मुख्यालय में व्यापक स्तर पर खेल होता है।
यही कारण है कि प्रयुक्त विद्युत सामग्री एवं कार्य की गुणवत्ता मानक विहीन होती है। यदि प्रबन्धन से कोई नियम कायदे की बात करता है तो उसे कहीं दूरदराज स्थान्तरित/निलम्बित कर दहशत का साम्राज्य स्थापित किया जाता है। जबकि जी हजूरी करने वाले अपने ही इच्छित स्थान पर, अपनी ही शर्तों पर कार्य करने के लिये स्वतन्त्र होते हैं। इस विषय पर कोई भी चर्चा नहीं करना चाहता कि एकतरफ विभाग का घाटा प्रतिवर्ष तीव्र गति से बढ़ रहा है, तो दूसरी ओर ऊर्जा निगमों में शकुनि की चौसड़ पर खेल रहे हैं कार्मिक और उपभोक्तागण। यक्ष प्रश्न उठता है कि जब सभी कार्य प्रबन्ध निदेशक एवं अध्यक्ष महोदय द्वारा ही कराये जाने हैं, तो निदेशकों की क्या आवश्यकता है। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
–बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA