खुद को “कागजी संगठन” कहने वाले आज कागज पर आने के लिये, स्वयं कर रहे हैं संघर्ष!

मित्रों नमस्कार! पिछले कई वर्षों से, मैं आप सबकी मानसिक स्थिति का, बहुत करीब से लगातार अवलोकन एवं विश्लेषण कर रहा हूं और मैंने पाया हैं कि आप सबकी उन्नति में, सबसे बड़ी रुकावट है, सिर्फ एक ही बिन्दु पर मन-मस्तिष्क का अटक जाना। जिसमें किसी भी प्रकार से अतिरिक्त धन के उपार्जन एवं उसके बाद और ज्यादा अतिरिक्त धन की ख्वाहिश। क्या लाये थे और क्या ले जायेंगे, ये तो सिर्फ आपके दुश्मनों पर लागू होता है, पर आप पर नहीं। क्योंकि आप भले ही खाली हाथ आये थे, परन्तु आपकी ख्वाहिश जरुर है भर-भर के ले जाने की और यदि नहीं ले जा पाये तो भूत बनकर अतिरिक्त कमाई के महल में रहेंगे।

परन्तु स्मरण रहे कि रात-दिन, जिन अपनों के ऐशो आराम के नाम पर, आपने जनता के न्यूनतम सुख को भी उनसे छीनने का प्रयास किया था, वे अपने ऐशो आराम में किसी भी प्रकार का खलल बर्दाश्त नहीं करेंगे और किसी तान्त्रिक को बुलाकर आपको एक शीशी में कैद कराकर, चिलचिलाती धूप में शीशी को छोड़ देंगे। जिसमें न तो महंगा बिस्तर होगा, न महंगी गाड़ी होगी, न ए0सी0 होगा, न ब्राण्डेड कपड़े होंगे और न बड़े-बड़े होटलों का खाना। जब तक नौकरी नहीं लगी थी, तो किसी भी प्रकार से नौकरी पाने की चाहत थी, चाहे वो आसाम में हो या कन्याकुमारी में, कहीं भी नौकरी करने के लिये तैयार थे। परन्तु नौकरी प्राप्त होते ही, आस-पड़ोस और साथियों पर अपने कृतिम स्टैटस का रौब झाड़ने के लिये, सिर्फ एक ही सिद्धान्त, किसी भी प्रकार से ”अपने ही इच्छित स्थान पर, अपनी ही शर्तों पर कार्य करने“ अर्थात लूट मचाने की प्रबल इच्छा। जिसके कारण जीवन में न जाने सुबह से शाम तक कितने झूठ बोलते हैं और न जाने किस-किस तरह-तरह के समझौते करते हैं।

परन्तु शायद अतिरिक्त धन इतना महत्वपूर्ण है कि दूसरों के पांवों पर गिरते-गिरते, अपनी ही नजरों में गिरने का कभी भी एहसास नहीं हुआ। सामाजिक और कार्मिक संगठनों का उत्तरदायित्व है कि वे लोगों के स्वाभिमान को जाग्रत कर उनके चहुमुखी विकास के लिये मार्ग प्रशस्त करें। क्योंकि यदि किसी का स्वाभिमान जाग्रत हो गया अर्थात उसके अन्दर जन्म के साथ ही विद्यमान, ईश्वर के अंश का जाग्रत होना, जो स्वतः सब कुछ नियन्त्रित कर लेता है। जिसके बाद उसे किसी के उपदेश या निर्देश की आवश्यकता नहीं रह जाती। उसे स्वतः अच्छे-बुरे, सही-गलत का एहसास हो जाता है और वह ईश्वर द्वारा बताये गये अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वों के मार्ग पर स्वतः चलने लगता है। परिणाम स्वरुप वह कार्य स्थल पर अपनी वास्तविक स्थिति को पहचानते हुये, स्वाभिमान के साथ चुनौतियों का दृढ़ता के साथ सामना करता है। विषम चुनौतियां तक उसे, उसके मार्ग से डिगा नहीं पाती हैं तथा अन्त में उसे किसी बोतल में रहने के लिये विवश नहीं होना पड़ता। बोतल में उन्हें कैद होना पड़ता है जो ”मुंह में राम बगल में छूरी“ की कहावत को ही जीवन की सफलता का मूल आधार मानकर हर किसी की पीठ में खंजर भोंकने का यथासम्भव प्रयास करते रहते हैं। परन्तु मैंने अपने जीवन में यह पाया कि अधिकांश लोगों में दूषित ईच्छा शक्ति इस कदर बलवती हो चुकी हैं कि उन्होंने इन्सानी रुप में राक्षसी गुणों को उत्पन्न कर, अपने अन्दर विद्यमान ईश्वरीय अंश को ही नकार दिया है। जिनके लिये राम-नाम के नाम पर सिर्फ ”मुंह में राम बगल में छूरी“ ही उनकी दिनचर्या का अंग बनकर रह गई है। जिसके कारण वे न तो अपने परिवार के और न ही नियोक्ता के वफादार रह पाये हैं। दुखद है कि काश उन्हें वाल्मिकी जी की तरह यह ज्ञान प्राप्त हो पाता कि वे जिनके लिये लूट-खसोट कर रहे हैं, वे उनके कर्मों में एक प्रतिशत की भी भागीदारी स्वीकार नहीं करेंगे। इसके विपरीत एक और कटु सत्य है कि चाहे परिवार लाख ज्ञान दे और समझाये, परन्तु इच्छाओं की वासना से अभिभूत इन्सान, अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिये किसी भी सीमा तक जाने के लिये सदैव ही तत्पर नजर आता है।

आज यह स्थिति, अधिकांश लोगों की बनती जा रही है। जिसके कारण किसी भी प्रकार से भ्रष्टाचार करना ही उनका मूल उद्देश्य बन चुका है। वे सिद्धपीठों में जाते हैं तो सिर्फ पिकनिक मनाने के लिये और ईश्वर से यह मांगने के लिये कि ईश्वर उसकी दुकान इसी तरह से चलाता रहे जिससे वे बार-बार उसकी दर पर आकर पिकनिक मना सके। जहां तक मार्गदर्शन की बात है तो राजनीतिक, समाज एवं धर्म के ठेकेदार स्वतः आम इन्सान से ज्यादा इस रोग से ग्रसित हैं। जिनके मुख पर कुछ, मन में कुछ और जमीन पर कुछ और की स्थिति है। स्पष्ट है कि जो स्वयं ही अपने चित्रों और चलचित्रों के नाम पर रात-दिन अपने आपको धर्ममात्मा के रुप में स्थापित करने के लिये संघर्ष कर रहे हों, वे समाज का किस प्रकार से भला करेंगे। आज कोई अपनी जाति के कारण, तो कोई थोड़ा सा ज्यादा कागजी पढ़ाई के कारण, तो कोई अपने अन्दर आत्मविश्वास की कमी के कारण, अपने संगठन के साथ पूर्ण तन्मयता से कभी भी जुड़ नहीं सका। क्योंकि अधिकांश के मूल में अतिरिक्त धन उपार्जन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। उर्जा निगमों में, पेवा ही एकमात्र ऐसा संगठन है, जो भ्रष्टाचारियों एवं जिस थाली में खाना उसी में छेद करना वालों का खुलकर विरोध करता है। जबकि अधिकांश कथित अधिकारीगण, मौकानुसार, अपने निहित स्वार्थ में, कभी मातहत् कर्मचारियों के संगठन के साथ, तो कभी अपने संवर्गीय संगठन के साथ, तो कभी अन्य अधिकारी संवर्गीय संगठनों के साथ, अपने निहित स्वार्थों के कारण जुडे नजर आते हैं।

आज का प्रश्न यह नहीं है कि हम एक ऊंचाई छूने के बावजूद आगे क्यों नहीं बढ़ सके, क्योंकि इसका उत्तर चाहे कोई हनुमान हो या विभीषण सभी भलि भांति जानते हैं। प्रश्न यह है कि उर्जा निगमों में आज लगभग सभी कार्मिक संगठन कैसे समाप्त होने के कगार पर पहुंच चुके हैं। एक संगठन के दोनों शीर्ष पदाधिकारियों का निलम्बन और तत्पश्चात वार्षिक सम्मेलन में दोनों निलम्बित पदाधिकारियों का पुनः चयन, खुद के लिये तो आत्मघाती साबित होने के साथ-साथ, अन्य के अस्तित्व के लिये भी घातक साबित हुआ है। क्योंकि निलम्बित पदाधिकारियों का चयन, सीधे-सीधे प्रबन्धन एवं शासन को यह सन्देश देने के लिये पर्याप्त है कि सम्बन्धित संगठन के सदस्य कितना भयभीत हैं कि संगठन की बागडोर सम्भालने के लिये, कोई भी संवर्गीय कार्मिक आगे आने के लिये तैयार ही नहीं है। जिसके कारण अन्ततः मजबूर होकर संगठन की लाज बचाने के लिये निलम्बित कार्मिकों को पुनः चुनना पड़ा। जोकि प्रेरणादायक न होकर हर समय सदस्यों को भयभीत करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इसी प्रकार एक अन्य संगठन के भी दो शीर्ष पदाधिकारियों का निलम्बन और उनका आज भी अपने पदों पर बना रहना, सदस्यों को हतोत्साहित करने के समान है।

सिद्धान्ततः किसी भी कार्मिक संगठन के शीर्ष नेतृत्व का उत्तरदायित्व अपने सदस्यों में उर्जा का संचार करना होता है न कि उनमें हताशा भरना। उपरोक्त के कारण अन्य संगठन भी दुम दबाकर पड़े हुये हैं। जो लोग हमें कागजी संगठन कहते थे, वे आज कागज पर आने के लिये, स्वयं संघर्ष कर रहे हैं। यदि आज किसी का बोलबाला है तो सिर्फ उनका जो किसी कार्मिक संगठन में नहीं बल्कि जोड़-तोड़ कर जुगाड़ करने में सिद्धहस्त हैं। एक तरफ उबलता पारा तो वहीं एक संगठन का वार्षिक सम्मेलन है, जिनके भीष्म पितामह ने, अपने घर को ही नहीं, बल्कि अन्य के घरों को भी तहस-नहस कर दिया है। यह तो थी दूसरे संगठनों की कहानी, परन्तु जब खुद को देखें तो स्पष्ट रुप से दिखाई देता है कि दुनिया में जितने भी उपनाम एवं मुहावरों के नाम हैं, सभी के सभी जैसे जयचन्द, विभीषण, मोरपंखी, आदि अपने संगठन में भरपूर संख्या में हैं और ऐसी-ऐसी एतिहासिक विभूतियां, जिस संगठन में हों, उसके बाद भी यह ईश्वरीय चमत्कार है कि आपका संगठन कागजों में नहीं, बल्कि दिमाग में रहता है।

अब देखना रोचक होगा कि कितने मोरपंखी, अपनी पूंछ दबाकर, आने वाले समय में दूसरों के दरवाजे पर दिखाई देते हैं या उनका स्वाभिमान जागता है? जय हिन्द! जय संगठन!

-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA

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