काली पट्टी बंध गई, मोमबत्ती जल गई, पंचायतें हो गई, ट्रांजैक्शन कंसल्टेंट की बिड खुल गई… जोंक और दीमकें, पूंछ रही हैं कि आखिर रण कब होगा?

मित्रों नमस्कार! आजकल ऊर्जा निगमों में सिर्फ तीन चर्चायें हैं, वितरण कम्पनियों के निजीकरण, विद्युत कार्मिकों (नियमित एवं सेवानिर्वत्त) को प्राप्त हो रही रियायती दरों की बिजली पर LMV-1 के तहत मीटर स्थापित किये जाने तथा उपरोक्त दोनों कार्यवाहियों के विरोध में भोजनावकाश के समय कतिपय बाहरी रंगकर्मियों के द्वारा विरोध प्रदर्शन के नाट्य प्रस्तुति की। बहुत सारे मित्रों ने एक प्रश्न किया है कि वर्तमान परिस्थिति में निजीकरण से बचाव का समाधान क्या है। वास्तविकता यह है कि समाधान चाहने वाले तो कहीं दूर-दूर तक कोई एकाध ही बमुश्किल दिखलाई दे रहे हैं। सभी को चाहिये, बस अधिक से अधिक धन और धन ही प्राप्त करने का मार्ग। भले ही चाहे वो नियमित हो या अनियमित। ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा जैसे शब्द अब भाषणों में भी सुनाई देने बन्द हो चुके है।

सर्वविदित है कि निजीकरण का विरोध प्रदर्शन के नाम पर, द्वार पर खड़े प्रदर्शनकारी वे रंगकर्मी हैं, जो बहुत पहले सेवानिवृत्त हो चुके हैं। जिन पर निजीकरण का कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। जिन्हें उनके प्रायोजक द्वारा, कुछ इस प्रकार का नाटक प्रस्तुत करने के लिये उचित मेहनताना के बदले अनुबंधित किया है, कि जैसे लगे कि निजीकरण होने पर, उनके ऊपर कोई पहाड़ टूट जायेगा। इस नाटक की विशेषता यह है कि विरोध का नाटक तो खूब करना है। परन्तु शर्त यह है कि किसी भी परिस्थिति में, किसी भी नियमित कार्मिक के मन में वास्तविक विरोध की लौ न जल जाए। यदि किसी के भी मन में लौ जल गई, तो मेहनताने के स्थान पर दण्डित अवश्य ही किया जायेगा। इसीलिये इस ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन को भोजनावकाश के समय अथवा छुट्टी के समय, कुछ इस प्रकार से नियोजित किया जा रहा है, कि लोकतान्त्रिक तरीके से विरोध की औपचारिकता भी पूर्ण होने के साथ साथ, सुगमता से निजीकरण भी हो जाये। पहले चरण में ट्रांजैक्शन कंसल्टेंट की नियुक्ति हेतु बिड खोली जा चुकी है। रंगकर्मियों ने शक्ति भवन परिसर में पहुंचकर, यह कहा कि पावर कार्पोरेशन प्रबंधन निजीकरण हेतु इतना उतावला दिख रहा है कि वह लगातार सीवीसी की गाइडलाइंस का उल्लंघन कर निजीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहा है। तथा यह ऐलान किया कि सभी संगठन किसी भी समय आन्दोलन प्रारंभ करने हेतु पूरी तरह लामबंद हैं और अब याचना नहीं, रण होगा। जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे बिड, इनकी आपसी सहमति को प्रबन्धन एवं सरकार द्वारा दरकिनार कर खोला गया है। परन्तु किसी ने यह नहीं बताया कि रण करने वाले कौन-कौन संगठन हैं और उनके कौन-कौन नियमित पदाधिकारी हैं।

क्या वो संगठन हैं जिनके सभी पदाधिकारी सेवानिवृत्त हैं अथवा वो जिनके नियमित पदाधिकारियों ने अपनी योग्यता पर पर्दा डालने हेतु एक बाहरी व्यक्ति को अपना मुखिया घोषित किया हुआ है। इस आन्दोलन की कड़वी सच्चाई यही है कि सभी कार्मिक संगठन ही नहीं बल्कि प्रबन्धन एवं सरकार भी धरातल पर सभी संगठनों की वास्तविकता जानती है, कि संवैधानिक रुप से किस संगठन की क्या स्थिति है और किसके पास कितने निष्ठावान एवं ईमानदार सदस्य हैं। अतः उनके लिये रण कोई चुनौती नहीं है। चूंकि सरकार के निजीकरण के उद्देश्य में भी खोट है, अतः उसके लिये भी सावधानी से आगे बढ़ने की विवशता है। जिसके लिये उसके द्वारा सुगमता पूर्ण निजीकरण कराने के लिये कथित बेरोजगार रंगकर्मियों को अनुबन्धित किया गया है। उपरोक्त खोट ही एकमात्र आशा है जिसके द्वारा निजीकरण को रोका जा सकता है। परन्तु उसके लिये अनिवार्य है निष्ठावान, ईमानदार एवं निर्भीक कार्मिकों की, जो पीठ पीछे भी याचना नहीं रण करने का जज्बा रखते हों। अन्यथा तालियां पीटने से स्वास्थ तो अच्छा रहता ही है। स्मरण रहे कि तालियां पीटने के कारण, प्रायः हिजड़ों को कोई बीमारी नहीं होती।

हम सभी यह जानते हैं कि जब किसी अनियमित संयोजन से केबिल कब्जे में लेने का प्रयास किया जाता है तो आरोपी किसी भी सूरत में केबिल ले जाने नहीं देता। चाहे उस पर कितना भी जुर्माना लग जाये एवं संगीन धारायें लग जायें। ठीक इसी प्रकार से जहां एक ओर निजीकरण के कारण जब अपने-अपने रोजगार पर खतरा उत्पन्न हो गया है। तब विभागीय संयोजनों पर LMV-1 (स्मरण रहे कि LMV-10 तो पहले ही नियामक आयोग द्वारा समाप्त किया जा चुका है) के तहत मीटर स्थापित करने की बात छेड़कर, सरकार एवं प्रबन्धन द्वारा बहुत बड़ी कूटनीतिक चाल चल दी गई है। जिसमें विद्युत कार्मिकों का ध्यान निजीकरण के मुद्दे से हटकर, छिनती रियायती विधुत सुविधा पर केन्द्रित हो गया है। जिस पर जहां एक संगठन, मीटर न लगने देने का आहवाहन कर रहा है, तो वहीं उसका एक सदस्य, निदेशक पद की कुर्सी पर चिपक कर यह आदेश कर रहा है, कि जो कार्मिक मीटर नहीं लगवाते हैं, उन्हें वेतन नहीं दिया जायेगा।

विदित हो कि प्रदेश की सभी वितरण कम्पनियों में निदेशक मण्डल में बहुमत तो अभियन्ताओं का ही है, तो फिर यक्ष प्रश्न उठता है कि निदेशक मण्डलों के द्वारा LMV-10 का अलग से Terrif प्रस्तावित कर, नियामक आयोग से मंजूर कराने का प्रयास क्यों नहीं किया जाता। जबकि प्रतिवर्ष वितरण कम्पनियां, अपने अलग-अलग ARR में LMV-10 के तहत जुड़े हुये संयोजन, उन पर जुड़े कुल भार एवं खपत का आंकड़ा प्रेषित करती हैं। विदित हो कि देश की राजधानी, जहां निजी कम्पनियां विद्युत आपूर्ती कर रही हैं, वहां पर भी पद की श्रेणी के अनुसार फ्री यूनिटों की सुविधा दी गई है। यदि कोई राजधानी से बाहर रहता है, तो उसे अनुमन्य यूनिटों का भुगतान निजी कम्पनी के द्वारा किया जाता है। अब निजीकरण का मुद्दा प्रबन्धन की सोची-समझी रणनीति के तहत उपभोक्ता की केबिल की तरह, सेवारत्, सेवानिवृत्त कार्मिकों एवं प्रबंधन के बीच उलझ गया है। इतनी समझ किसी के भी पास नहीं है कि यदि विभाग ही नहीं रहा तो रियायती विद्युत सुविधा कैसे बचेगी? आज बदन पे चिपकी जोंक और जड़ों में लगी दीमक, पूंछ रही हैं, कि काली पट्टी बंध गई, मोमबत्ती जल गई, पंचायतें हो गई, ट्रांजैक्शन कंसल्टेंट की बिड खुल गई, आखिर निजीकरण के विरुद्ध रण कब होगा? वैसे एक आस बची हुई है, जब माह जून में पूरे देश से आने वाले शूरवीर आकर यह बतायेंगे कि तालियां बजाई नहीं, बल्कि पीटी कैसे जाती हैं। शायद इसी के पीछे, रण की कोई नई तकनीक छिपी हो? कि ताली पीटी नहीं और निजी कम्पनियां निजीकरण से दूर भागी नहीं। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!

-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.

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