बेबाक : सेवानिवृत्त कार्मिक नेताओं की महत्वाकांक्षा, हठधर्मिता की नीति के कारण 16 माह पूर्व निलम्बित अधिकारियों में भरे अवसाद के कारण अभियंता द्वारा आत्महत्या का प्रयास — (पार्ट 04)

मित्रों नमस्कार! बेबाक के पिछले अंक 17/14.07.2024 (Part-3) के अनुक्रम मेंः आईये एक बार फिर उस दुर्भाग्यपूर्ण हड़ताल के कारणों पर चर्चा करें। जिसने विभाग में कार्मिक संगठनों की बोलती तूती को हलक में ही चिपका दिया है। तथाकथित भीष्म पितामाह के पास हड़ताल के लिये द्वितीय लाईन की कोई कार्ययोजना नहीं थी। अर्थात 16 माह पूर्व की गई हड़ताल, कतिपय राजनीतिक एवं प्रशासनिक समर्थन के आधार पर प्रायोजित एवं अतिआत्मविश्वास से ग्रसित थी। जिसके कारण घोषित हड़ताल, प्रथमदृष्टया आत्मघाती होने एवं अपनों को ही आग में झोंकने के प्रयास के अतिरिक्त कुछ भी नहीं थी। जिसके पीछे, एक ईमानदार अध्यक्ष के पद से हटने पर, बन्द पड़े स्थानान्तरण एवं नियुक्ति उद्योग के पुनः चालू होने के साथ-साथ, सम्भावित निजीकरण के नाम पर, कार्मिक संगठनों के पदाधिकारियों को पिछले दरवाजों से मिलने वाले तोहफे का जबरदस्त लालच था, जिसके लिये वे किसी भी हद तक जाने के लिये लालायित थे।

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बेबाक ने पहले ही कहा था कि जिस हड़ताल के मूल में ”कहीं पे निगाहें और कहीं पे निशाना है“ उसके दूरगामी परिणाम होंगे। जिन्हें कार्मिकों को लम्बे समय तक भुगतना पड़ सकता है। अन्ततः एक ईमानदार से बेईमानी के बल पर टकराने का अंजाम वही हुआ, जो सम्भावित था। उससे भी दुखद तब हुआ जब ईमानदार अघ्यक्ष की जगह, नये अध्यक्ष ने, उन बेशकीमती पिंजरों का मुल्यांकन कर, एक सोची समझी नीति के तहत कार्य करना आरम्भ किया। जिसके कारण आज विभाग के निष्ठावान एवं कार्य करने वाले कार्मिकों का हौसला पूर्णतः तार-तार चुका है। आज हालात यह हैं कि जिनके सेवानिर्वत्ति के कुछ माह भी बचे हैं, वे भी VRS लेकर घर जाना चाह रहे हैं। क्योंकि आपसी विश्वास पूर्णतः बिखर चुका है। आज पुनः उन चापलूसों का साम्राज्य स्थापित हो चुका है, जिनके लिये मान-सम्मान, स्वाभिमान का कोई महत्व नहीं है तथा जिनका मूल कार्य ही निष्ठावानों की निष्ठाओं को अपमानित करना एवं कराना है।

यह आत्याधिक आश्चर्यजनक एवं दुखद है कि सबकुछ लुट जाने के बाद भी लोगों की चेतना नहीं जागी और आज भी संयुक्त मोर्चा से सम्बन्धित संगठनों के सदस्यों को अपनों से ज्यादा, अपने निहित स्वार्थ की चिन्ता ज्यादा है, इसी कारण, वे आये दिन प्रबन्धन के स्वागत् के लिये, बहुत ही बेशर्मी से (क्योंकि जिनके ”अपने एवं खुद“ एक वर्ष से भी ज्यादा समय से निलम्बित चल रहे हों) फूल मालायें लेकर खड़े हुये नजर आते हैं। बेबाक का स्पष्ट रुप से यह मानना है कि यदि वास्तव में उर्जा निगमों में सम्मान के साथ सेवा करनी है, तो अपने स्वाभिमान को जाग्रत करने के लिये अनुशासित एवं निष्ठावान होना ही होगा। जिसके लिये परम आवश्यक है कि इन स्वार्थी सेवा निर्वत्त एवं बाहरी कार्मिक नेताओं से दूरी बनाकर, अपने विभाग की बागडोर स्वयं सम्भालने के लिये आगे आना होगा। जिसके लिये ”स्थानान्तरण एवं नियुक्ति के भय को त्यागना“ होगा। निलम्बन के लिये तैयार रहना होगा।

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यदि आप ऐसा करने का संकल्प लेते हैं, तो यकीन मानिये कि आप अधिकतम एक वर्ष में अपना सम्मान वापस पा जायेंगे और ईमानदारी एवं निष्ठा के सही मायने भी जान जायेंगे। तब आपके मन के किसी कोने में भीं आत्महत्या करने का विचार कभी पनप नहीं पायेगा। स्पष्ट है कि अब यही एकमात्र उपाय शेष है। कार्मिक पदाधिकारियों को एक बार अवश्य ही आत्ममंथन करना चाहिये कि उन्होंने युवा पीढ़ी के लिये अब तक किया क्या है, उनको दिया क्या है और उन्हें क्या देना चाहिये था। गैर संवर्गीय कार्मिक पदाधिकारियों को इस बात का अत्मविश्लेशण अवश्य ही करना चाहिये कि उनके द्वारा अपने निहित स्वार्थ में, किसका भला किया गया? क्योंकि वे आज जिस संवर्ग में हैं, न ही उसका भला किया और न ही उस संवर्ग का भला किया, जिससे पदोन्नत होकर वे वर्तमान संवर्ग में आये थे। यदि सीधे शब्दों में कहा जाये तो उन्होंने अपनी महत्वकांक्षा और निहित स्वार्थ में, दोनों ही संवर्गों को छला और दोनों को ही अपूर्णनीय क्षति पहुंचाई। जिसके लिये इतिहास उन्हें कभी भी माफ नहीं करेगा। तथाकथित भीष्म पितामाह की बात करें, तो उनकी निष्ठा सदैव एक ही संवर्ग के लिये रही। वे भले ही संयुक्त मोर्चा के संयोजक हों, परन्तु उनका मूल उद्देश्य सदैव ही निहित स्वार्थ की पूर्ति एवं अपने ही मूल संवर्ग के भविष्य में निहित था। उनकी एकमात्र उपलब्धि यही थी कि उन्होंने अपनी महत्वकांक्षा की पूर्ति हेतु, उर्जा निगमों में कभी भी टीम भावना एवं स्वस्थ औद्योगिक वातावरण की उत्पत्ति नहीं होने दी। चूंकि ईश्वर ने सभी का समय निर्धारित कर रखा है, अतः एक ईमानदार से सामना होने पर, उनकी सारी की सारी चतुराई धरी की धरी रह गई।

यक्ष प्रश्न उठता है कि जिन सदस्यों ने अपने संगठनों के कहने पर आंखें बन्दकर हड़ताल में सम्मिलित होकर, बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और निलम्बित हो गये, उनके लिये, उनके अपने संगठनों ने क्या किया। 16 माह सें अधिक समय बीत जाने के बाद भी संगठन मौन हैं अर्थात उन्होंने अपने ही साथियों को, जोकि घोर निरासा का शिकार होकर अवसादग्रस्त हो चुके हैं, उन्हें उनके हाल पर अकेला छोड़ दिया है। अब उनकी चिन्ता किसी को भी नहीं है। प्रश्न उठता है कि आखिर ईंट से ईंट बजाने का दावा करने वाले संगठन मौन क्यों हैं? क्या देश के न्यायालय बन्द हो चुके हैं, जो 16-16 माह से प्रबन्धन एवं सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। प्रश्न उठता है कि क्या प्रदेश में पुनः ”ईस्ट इण्डिया कम्पनी“ बन चुकी हैं। यदि कोई कहता है कि फलां अधिकारी बहुत खराब है, तो उसके लिये वह अधिकारी नहीं, बल्कि विभाग ही पूर्णतः उत्तरदायी है। क्योंकि जब वह एक प्रशिक्षु के रुप में विभाग में आया था, तो उसकी नैसर्गिक योग्यता एवं विभागीय उपयोगिता के अनुसार, उसको तरासने की जिम्मेदारी विभाग एवं उनके अभियन्ताओं को थी। परन्तु उन्होंने तो सिर्फ अपने निहित स्वार्थ में, अपनी संख्या बल को बढ़ाने के उद्देश्य से, अनुभव को सिरे से नकारकर, जन्म से पूर्व की वरिष्ठता प्रदान कराने एवं संगठित रुप से भ्रष्टाचार करने के दलदल में धकेलकर, संवर्गों में असन्तोष उत्पन्न करने का कार्य किया। जिसका प्रमाण है कि आज विभाग में विद्युत प्रणाली को सुगमता से चलाने की योग्यता लगभग शून्य हो चुकी है।

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आज अधिकारियों की पहचान के नाम पर, नाम के पहले लगा ”ई0“ ही मात्र शेष रह गया है। बाद का ”इंजीनियर“ वास्तव में लुप्त हो चुका है। तभी तो विद्युत खम्भों को सुरक्षित करने के स्थान पर उनसे दूर रहने की अपील की गई है। एक ओर जहां 50 वर्ष से अधिक आयु के कार्मिकों को अनिवार्य सेवानिर्वत्त करने का प्रयास किया जा रहा है तो वहीं दूसरी ओर निदेशकों के लिये पहले से ही 60 से 62 वर्ष अधिकतम आयु सीमा को 65 तक कर, कार्मिकों को आखिर कौन सा सन्देश दिया जा रहा है। यह एक अति गम्भीर एवं विचारणीय प्रश्न है कि क्या उर्जा निगमों में निदेशकों की कोई उपयोगिता नहीं है। जो उन पर आयु का कोई असर नहीं होता। जबकि मात्र 50 वर्ष की आयु में ही कार्मिकों को थका हुआ घोषित करने का यथासम्भव प्रयास किया जा रहा है।

बेबाक पहले से ही यह कहता आ रहा है कि उर्जा निगमों में निदेशक, प्रबन्धन के लिये रबर स्टाम्प मात्र हैं, जो उनके निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिये निदेशक मण्डल की बैठक में, बस औपचारिकता पूर्ण करते हैं। अन्यथा निदेशकों का कार्य, प्रबन्धन की इच्छानुसार फाईल तैयार कराकर, उस पर नोटिंग कर, हस्ताक्षर कराने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। निदेशकों की तकनीकी योग्यता एवं अनुभव, प्रबन्धन की नजर में कोई महत्व नहीं रखता। कारण स्पष्ट है कि प्रबन्धन को भी यह बहुत अच्छी तरह से मालूम है, कि कार्य पर उनकी क्या पकड़ है, जीवन भर उसने क्या किया है और वह किस योग्यता के बल पर निदेशक बना है। आज उर्जा निगमों की स्थिति यह है कि बिना अध्यक्ष महोदय की सहमति के प्रबन्ध निदेशक तक कोई निर्णय नहीं ले सकते, तो निदेशक की तो हैसियत ही क्या है। उर्जा निगमों में असली खेल ”उपभोक्ता देवो भव“ की आड़ में ”ठेकेदार देवो भव“ मानकर खेला जा रहा है। क्योंकि सरकारी धन प्राप्त करने का सबसे बड़ा साधन ही ठेकेदार है, जो बिना कार्य किये अथवा नाम मात्र का कार्य कर, चढ़ावा चढ़ाता है।

ईमानदारी का मतलब अब बदल चुका है, अब दूसरों को दहशत में डालकर, लोग अपनी बेईमानियों पर पर्दा डालने एवं अपने आपको ईमानदार कहलाने का ढोंग करते नजर आते हैं। बेबाक भविष्य में कई ऐसे नामों का खुलासा करने पर विचार कर रहा है, जिनके विरुद्ध स्वतः प्रमाणित आरोपों की लम्बी सूची होने के बावजूद, वे प्रबन्धन के आशीर्वाद से, आज भी निडर होकर, धन उपार्जन में लगे हुये हैं। उनके विरुद्ध जांच अथवा जारी आरोप पत्र किसी रद्दी की टोकरी में पड़े हुये है। ये वो कर्मकाण्डी लोग हैं जो न्यायालय का दरवाजा कभी नहीं खट-खटाते, बल्कि विभागीय देवताओं की ईच्छानुसार प्रसाद चढ़ाकर, अपने कार्य सुगमता से सिद्ध कर ले जाते हैं। अदालतों की चौखटों पर मत्था टेकते वे ही नजर आते हैं, जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया होता। उन्हें लगता है कि अदालत ही उनके साथ न्याय करेगी। परन्तु दुर्भाग्य से उनका अदालत जाना ही, उन्हें प्रबन्धन की नजर में सबसे बड़ा अपराधी बना देता है। यदि हम उर्जा निगमों के पिछले अध्यक्ष पर चर्चा करें तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उन्होंने एक आम इन्सान एवं संविदा कर्मियों तक से सीधी बातें कर, उनकी समस्याओं को सुना, कभी टाला नहीं, बल्कि व्यक्तिगत् रुप से रुचि लेकर उनका समाधान कराकर, मानवता के नये आयाम स्थापित किये थे। शायद पिछले ईमानदार एवं मानवता के प्रति समर्पित अध्यक्ष के प्रति, निहित स्वार्थ से पूर्णतः ग्रसित सेवानिर्वत्त एवं कार्यरत् कार्मिक पदाधिकारियों के गठजोड़ ने, जिस प्रकार से कार्मिकों को भड़काकर, जो कुछ भी अनुचित किया था, यह उसी का फल है जो ईश्वर ने उनको दिया है। जिसके लिये कार्मिक संगठन पूर्णतः उत्तरदायी हैं, क्योंकि उन्होंने कभी भी अपने सदस्यों के मन में विभाग के प्रति निष्ठाभाव पैदा ही नहीं किया, उन्होंने तो निहित स्वार्थ में सदा ”अपने ही इच्छित स्थान पर अपनी ही शर्तों पर कार्य करने के संकल्प“ की संस्कृति को पोषित किया था। जिसका परिणाम है कि आज पूरा का पूरा उर्जा निगम, कार्मिक संगठन विहीन हो चुका है। औद्योगिक वातावरण पूर्णतः दूषित हो चुका है।

काश हड़ताल के समय बेबाक द्वारा दी गई महत्वपूर्ण सलाह ”कि एक बार युद्ध में दी जाने वाली आहुति एवं परिणामों का पुनः आकलन कर लें“ को कार्मिक संगठनों ने माना होता, तो आज अपने निर्बोध सदस्यों का कोप भाजन बनकर, पिंजरे में ही कैद न रहना पड़ता और न ही आज प्रबन्धन की मनमानी एवं तानाशाही चल रही होती। यह भूल जाईये कि कोई भगत सिंह बनकर आयेगा और आपको आपके ही इच्छित स्थान पर, आपकी ही शर्तों पर कार्य करने की छूट दिलवायेगा। क्योंकि हमारे बीच के ही कुछ लोग उसको पकड़कर सूली पर चढव़ाने का श्रेय लेने के लिये तैयार बैठे हैं। बेबाक की अपने सभी अनुजों, साथियों एवं विरोधियों से करबद्ध प्रार्थना है, कि कृपया अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण रखें। कच्चे लालच के बहकावे में आकर, अपना भविष्य खराब न करें। जिस प्रकार से घड़ी की सूई एक स्थान पर नहीं रुकती, ठीक उसी प्रकार से यह कठिन समय भी नहीं रुकेगा।

इस विषम घड़ी में, सबकुछ भूलकर, सर्वप्रथम अपने एवं अपने परिवार को हर हाल में स्वस्थ एवं सुरक्षित रखने पर अपना पूरा का पूरा ध्यान केन्द्रित रखें। ईश्वर का धन्यवाद करें, जिसने समय पर आपको सत्य के दर्शन कराये। यह जीवन आपका नहीं, आपके परिवार का है, रात-रात भर जागकर आपके माता-पिता ने विषम से भी विषम परिस्थितियों का सामना करके, आपको पाला है। जब उन्होंने आपको विषमतः परिस्थितियों में अकेला नहीं छोड़ा तो आपको भी कोई हक नहीं कि आप उनके आंगन के फूल को कोई क्षति भी पहुंचाने का कोई विचार भी अपने मन में लायें। आपके सुखद एवं उज्ज्वल भविष्य की कामनाओं के साथ…राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!

बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA.

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