
लेखक – संजीव श्रीवास्तव, सम्पादक- यूपीपीसीएल मीडिया (स्वतंत्र ऊर्जा विश्लेषक)
उत्तर प्रदेश की बिजली वितरण व्यवस्था लगातार सुधार के दौर से गुजर रही है। विचार यह था कि कार्यों को अलग-अलग श्रेणियों में बाँटकर जवाबदेही तय की जाए और उपभोक्ता को बेहतर सेवा मिले। लेकिन विडंबना यह है कि यह प्रयोग उद्देश्य की पूर्ति के बजाय समस्याओं का कारण बन गया और अब, इसी विफल मॉडल को लखनऊ में लागू करने की तैयारी हो रही है। सरकार और विभागीय अफसर “सुधार” के नाम पर एक के बाद एक नए प्रयोग कर रहे हैं। इन्हीं में से एक प्रयोग है – “वर्टिकल व्यवस्था”, जिसे सबसे पहले कानपुर की विद्युत वितरण इकाई KESCO (केस्को) में लागू किया गया।
उत्तर प्रदेश में बिजली वितरण व्यवस्था को लेकर समय-समय पर सुधार की बात होती रही है। डिजिटलीकरण, स्मार्ट मीटर, ऑनलाइन बिलिंग जैसे उपायों के साथ प्रशासनिक स्तर पर भी कई ढांचागत परिवर्तन किए गए। इन्हीं में एक प्रयोग “वर्टिकल व्यवस्था” का रहा है, जिसे सबसे पहले कानपुर की केस्को (KESCO) में लागू किया गया।
विचार था कि विभागीय ज़िम्मेदारियाँ स्पष्ट हों, जवाबदेही तय हो, और उपभोक्ताओं को तेज़ सेवा मिले। पर दुर्भाग्यवश, यह प्रयोग व्यवहारिक धरातल पर बुरी तरह असफल रहा।
⚙️ क्या है वर्टिकल व्यवस्था?
ऊर्जा वितरण में वर्टिकल मॉडल का मतलब होता है – कार्यों का विभागीय विभाजन। जैसे: वर्टिकल मॉडल के अंतर्गत बिजली वितरण कंपनी के कार्यों को विभागीय रूप से ऊर्ध्वाधर (vertical) रूप में बाँटा गया है – जैसे:
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शिकायत निवारण प्रकोष्ठ
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बिलिंग प्रकोष्ठ
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लाइन रखरखाव प्रकोष्ठ
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मीटरिंग/रीडिंग इकाई
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फीडर मैनेजमेंट सेल
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ट्रांसफार्मर फेल हुआ तो उसकी जिम्मेदारी किसी और की।
यह विभाजन कागज़ पर सुव्यवस्थित दिखता है, लेकिन ज़मीनी हकीकत में यह बंटवारा भ्रम और गैर-जवाबदेही को जन्म देता है। एक ही उपभोक्ता को कई बार अलग-अलग कार्यालयों के चक्कर काटने पड़ते हैं, क्योंकि कोई अधिकारी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होता।
उद्देश्य था: दक्षता बढ़े और पारदर्शिता आए।
परिणाम निकला: उपभोक्ता इधर-उधर दौड़ते रह गए, जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं।
❌ केस्को में क्या हुआ?
यूपीपीसीएल मीडिया न्यूज बैनर की रिपोर्ट और स्थानीय उपभोक्ताओं की प्रतिक्रिया के अनुसार:
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शिकायतों के समाधान में देरी आम बात हो गई है। शिकायतों का समाधान दिनोदिन कठिन हुआ।
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अधिकारी कहते हैं: “यह हमारे कार्यक्षेत्र में नहीं आता, संबंधित विभाग से संपर्क करें।” फील्ड अधिकारी शिकायत को ऑफिस पर टालते हैं, और ऑफिस फील्ड पर।
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लाइन ट्रिपिंग, लो वोल्टेज, और मीटर संबंधी गड़बड़ियों पर विभागीय तालमेल नदारद है।
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जिम्मेदारी बंटी तो, जवाबदेही भी गायब हो गई। लाइनमैन व इंजीनियर के बीच समन्वय गायब।
- उपभोक्ता, जिनसे समय पर बिल वसूला जाता है, सेवा के लिए भटकते रहते हैं।
वास्तव में, KESCO के उपभोक्ता अब थक चुके हैं – वे शिकायत दर्ज तो कर सकते हैं, समाधान पाने की गारंटी नहीं रही। यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब राज्य सरकार बिजली उपभोक्ताओं को बेहतर सुविधा देने के दावे करती है।
🏙️ लखनऊ में यह विफल नीति क्यों? फिर इसे क्यों लागू किया जा रहा है?
सबसे बड़ा सवाल यही है – जब एक मॉडल स्पष्ट रूप से विफल हो गया है, तो उसे राजधानी जैसे संवेदनशील शहर में क्यों लागू किया जा रहा है?
यह सबसे बड़ा सवाल है। जब एक मॉडल स्पष्ट रूप से असफल हो, तो उसे राजधानी जैसे संवेदनशील शहर में लागू करना जनविरोधी निर्णय ही कहा जाएगा। यह सबसे बड़ा सवाल है, और इसके पीछे कुछ संभावित कारण हो सकते हैं:
क्या यह सिर्फ अफसरशाही का जिद्दी प्रयोग है?
या फिर कोई दीर्घकालिक निजीकरण की तैयारी?
संभावित कारण:
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फाइलों पर ‘सफल’ दिखाने की कोशिश:
अफसरशाही अक्सर ग्राउंड फीडबैक को अनदेखा कर सिर्फ दस्तावेज़ी सफलता पर भरोसा करती है। -
नीति निर्धारकों का क्षेत्रीय अनुभवहीनता:
जो अधिकारी लखनऊ में बैठकर मॉडल बना रहे हैं, वे शायद कानपुर की वास्तविक स्थिति को नहीं जानते। -
निजीकरण की तैयारी:
विभागीय बंटवारा करना निजी ठेकेदारी के लिए ज़मीन तैयार करना भी हो सकता है।
सरकार को यह समझना होगा कि जो व्यवस्था एक औद्योगिक शहर जैसे कानपुर में नहीं चली, वह राजनीतिक, प्रशासनिक और तकनीकी रूप से और भी जटिल लखनऊ में और कैसे चलेगी?
📌 1. प्रशासनिक मॉडल को ‘टेस्ट-बेड’ मानना
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संभव है कि शासन इसे पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर KESCO में लागू कर रहा हो और यह उम्मीद की गई हो कि कुछ समय बाद यह सिस्टम “सेटल” हो जाएगा।
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अफसरशाही में अक्सर ground feedback को नजरअंदाज कर दिया जाता है, जब तक कोई बड़ी नाकामी सामने न आए।
📌 2. डिजिटल/टेक्निकल अपग्रेड के साथ जबरन मैनेजमेंट स्ट्रक्चर थोपना
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DISCOMs को अक्सर केंद्र या राज्य सरकार की योजनाओं (जैसे RDSS योजना) के तहत “सुधारात्मक” ढांचे लागू करने होते हैं।
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ऊपर से निर्देश मिलने पर अधिकारियों को वर्टिकल मॉडल अपनाना पड़ता है, भले ही ग्राउंड पर वह फेल हो रहा हो।
📌 3. मैनेजमेंट की “One-size-fits-all” मानसिकता
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ये मान लिया जाता है कि अगर कोई व्यवस्था दिल्ली, नोएडा, या किसी और शहर में काम कर रही है तो वह लखनऊ या कानपुर में भी चल जाएगी।
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स्थानीय परिस्थितियाँ और उपभोक्ताओं की जरूरतों की अनदेखी होती है।
📌 4. निजीकरण या PPP मॉडल की तैयारी?
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कई बार वर्टिकल ढांचे को लागू करना कंपनी के भीतर जवाबदेही को शिफ्ट करने का रास्ता होता है ताकि बाद में किसी एक यूनिट को निजी हाथों में सौंपा जा सके।
📣 जनता से सीखिए
लखनऊ कोई छोटा शहर नहीं। राजधानी की विद्युत आवश्यकताएँ कहीं अधिक जटिल, संवेदनशील और राजनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ यदि “वर्टिकल मॉडल” भी विफल रहा, तो इसके राजनीतिक और प्रशासनिक दोनों परिणाम होंगे।
🔁 नीतियों की समीक्षा आवश्यक
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सुधार की प्रक्रिया का अर्थ यह नहीं कि अप्रभावी ढाँचे जबरन थोप दिए जाएं।
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नीचे से ऊपर तक फीडबैक लेने की संस्कृति बने।
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सुधार का आधार उपभोक्ता संतुष्टि होना चाहिए, फाइलों की रिपोर्ट नहीं।
🔁 अब क्या होना चाहिए?
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KESCO के प्रयोग का स्वतंत्र मूल्यांकन हो – सिर्फ रिपोर्टिंग नहीं, वास्तविक उपभोक्ता फीडबैक के आधार पर।
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लखनऊ में लागू करने से पहले पायलट समीक्षा की जाए।
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वर्टिकल के बजाय “सर्विस इंटीग्रेशन मॉडल” अपनाया जाए, जहाँ एक उपभोक्ता की समस्या का समाधान एक ही अधिकारी की जिम्मेदारी में हो।
📰 यूपीपीसीएल मीडिया द्वारा रिपोर्ट: “KESCO में वर्टिकल व्यवस्था असफल”
इस रिपोर्ट के अनुसार, KESCO (Kanpur Electricity Supply Company) में वर्टिकल व्यवस्था (Vertical Structure) को लेकर उपभोक्ताओं में भारी असंतोष है। रिपोर्ट में यह बताया गया कि:
⚠️ वर्टिकल व्यवस्था के प्रमुख दोष (KESCO में):
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फील्ड और ऑफिस के बीच समन्वय की कमी
→ लाइनमैन, SDO, AE, और XEN के बीच ज़िम्मेदारियों का स्पष्ट निर्धारण नहीं। -
शिकायतों के समाधान में देरी
→ उपभोक्ताओं को “इधर से उधर” भेजा जाता है, जवाबदेही तय नहीं होती। -
अधिकारी खुद फील्ड से कटे हुए
→ उच्च अधिकारी ग्राउंड रियलिटी से दूर रहते हैं, जिससे समस्या गंभीर बनी रहती है। -
विभागीय जिम्मेदारियों की अस्पष्टता
→ लाइन की खराबी किसके जिम्मे, ट्रिपिंग का समाधान कौन करेगा — यह तय नहीं। -
फीडर मैनेजमेंट विफल
→ फीडर पर ट्रिपिंग या ओवरलोडिंग पर कोई स्पष्ट जवाबदेह अधिकारी नहीं मिलता।
✅ वैकल्पिक सुझाव (नीतिगत दृष्टिकोण से):
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वर्टिकल व्यवस्था के बजाय “इंटीग्रेटेड जिम्मेदारी” मॉडल लाया जाए, जिसमें सब-डिविजन लेवल पर एक ही अधिकारी शिकायत से लेकर समाधान तक उत्तरदायी हो।
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वास्तविक फीडबैक आधारित सुधार हो – न कि केवल टेबल रिपोर्ट पर आधारित निर्णय।
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पायलट फेल हुआ है तो उसे बढ़ाने की बजाय पुनरावलोकन करें।
🔚 निष्कर्ष:
KESCO में वर्टिकल व्यवस्था की असफलता यदि प्रमाणित है, और यदि उपभोक्ताओं को इससे परेशानी हो रही है, तो लखनऊ जैसे बड़े और अपेक्षाकृत जटिल शहर में इसे लागू करना एक नीतिगत भूल हो सकती है।
उत्तर प्रदेश में ऊर्जा सुधारों की जरूरत तो है, लेकिन विफल प्रयोगों को दोहराने से सुधार नहीं, और अधिक अव्यवस्था पैदा होगी। केस्को के प्रयोग से सबक लेना चाहिए, न कि उसे राजधानी पर थोपना चाहिए।
सरकार को चाहिए कि वह वर्टिकल व्यवस्था की गहन समीक्षा करे, और लखनऊ में इसे लागू करने की योजना पर पुनर्विचार करे – अन्यथा इसका खामियाज़ा करोड़ों उपभोक्ताओं को भुगतना पड़ेगा।
केस्को में वर्टिकल व्यवस्था ने समस्या का समाधान नहीं, उसे और जटिल बना दिया। अगर यही मॉडल लखनऊ में लागू किया गया, तो यह जनता के साथ अन्याय होगा और व्यवस्था में और अधिक भ्रम पैदा करेगा।
“एक विफल प्रयोग को दोहराना विकास नहीं, व्यवस्था पर जिद है।”
समय है कि उत्तर प्रदेश सरकार और ऊर्जा विभाग नीतियों को व्यवहारिक दृष्टिकोण से देखें, न कि केवल कागज़ी तर्कों पर आधारित निर्णय लें।