
मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता। यह भी कितनी विचित्र बात है कि ऊर्जा निगमों का न तो अधिकांश नियोक्ता, न कार्मिक और न ही उपभोक्ता ईमानदार है। जहां कार्मिक और उपभोक्ता यह नहीं चाहते कि वितरण निगमों का निजीकरण हो। चूंकि वहीं नियोक्ता के नाम पर नियुक्त प्रशासनिक अधिकारी बाहरी हैं, अतः उनके लिये सरकार के निर्देशों के साथ-साथ, निजी कम्पनियों के हित भी साधना आवश्यक है। जिसके साथ उनके भी हित जुड़े हुये हैं। स्पष्ट है कि सभी को चिन्ता है तो बस अपनी-अपनी झोली की। किसी को भी चिन्ता नहीं प्रदेश की अथवा देश की।
अब तो यह प्रचलन सा हो गया है कि चाहे राजनेता हों या सरकारी अधिकरी एवं कर्मचारी, सभी को चिन्ता है अपने-अपने हित साधने के लिये, अपने-अपने कार्यकाल का अधिक से अधिक उपयोग करने की। ऐसे कुछ ही लोग बचे हैं जिन्हें चिन्ता है प्रदेश की और देश की। दुर्भाग्य से वे सभी कहीं न कहीं अलग-थलग पड़े हुए हैं। जिनकी कोई बात तक सुनने के लिये तैयार नहीं। नियोक्ता को यह अहंकार कि वो तो राजा है, उसने अंजाने में भी जो कह दिया, वो पत्थर की लकीर है। कार्मिकों को इस बात का अहंकार कि उनके बिना ऊर्जा निगम चल ही नहीं सकते। जबकि सत्यता यह है कि उनका यह भ्रम, सिर्फ भ्रम ही रह गया है। क्योंकि उनके अधिकारी होने के अहंकार से उत्पन्न अकर्मण्यता के कारण, रिक्त हुये स्थान को न जाने कब संविदा कर्मियों ने घेर लिया है।
यही कारण है कि अब उनकी उपयोगिता हस्ताक्षर करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बची है। इसी के साथ-साथ निहित स्वार्थ ने कार्मिकों को आपस में इस कदर बांटा है, कि हर कोई दूसरे का अतिरिक्त कार्यभार लेने के लिये आतुर दिखलाई पड़ता है। वो समय चला गया जब संवर्गीय अधिकारी एवं कर्मचारी गण अपने कार्मिक संगठनों के निर्देशानुसार अथवा नैतिकता के आधार पर सामान्यतः एक दूसरे का अतिरिक्त कार्यभार ग्रहण करने से बचते थे। अब तो संवर्गीय संगठनों की कल्पना तक समाप्त हो चुकी है। अब ”श्रेणी-ग“ के संवर्गीय संगठनों के प्रमुख पदों पर ”श्रेणी-क“ एवं ”ख“ के अधिकारी बेशर्मी से कब्जा जमाये बैठे हैं। ”श्रेणी-क“ एवं ”श्रेणी-ख“ के संवर्गीय संगठनों पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रुप से बाहरी लोग अथवा सेवानिवृत्त कार्मिक कब्जा जमाये बैठे हैं। चूंकि प्रबन्धन के लिये यह हितकारी है, अतः वह शान्ति से, बिना किसी आपत्ति के इसका कूटनीतिक लाभ उठा रहे हैं। उपभोक्ता को इस बात का अहंकार कि उसके पास तो वोट की शक्ति है और वह देवता के समान है। अतः उसे बिना भुगतान किये बिजली की चोरी एवं उपभोग का मौलिक अधिकार प्राप्त है।
अतः इस विषम परिस्थिति में, यक्ष प्रश्न उठता है कि आखिर निजीकरण रोकने की आवश्यकता क्या है? परन्तु यह कोई नहीं बता रहा कि निजीकरण क्यों नहीं होना चाहिये? क्या इसलिये कि उनकी नजर के सामने, सरकारी माल, औने-पौने दामों पर, बिना उनकी झोली में कुछ आये, दूसरे की झोली में जा रहा है या उनसे भी बड़ा कोई लुटेरा आकर, उनसे उनकी लूट का क्षेत्र छीन रहा है? यह कितना विचित्र है कि वे शिशु अभियन्ता एवं कर्मचारी गण जो अपनी योग्यता के अनुसार राष्ट्रहित में कुछ करने का जज्बा लेकर ऊर्जा निगमों में आये थे, उन्हें निगमों का इतिहास, वर्तमान एवं कार्य की विषम परिस्थितियों से अवगत कराने के स्थान पर, वरिष्ठ साथियों के द्वारा निहित स्वार्थ में गिन्नियों की प्राप्ति हेतु भ्रष्टाचार का अफीम चटवाकर निगमों में उनका स्वागत किया गया। जिसके कारण उन्हें निगमों के भूत, भविष्य एवं वर्तमान का भले ही ज्ञान न हुआ हो, परन्तु अपने भविष्य में गिन्नियां ही गिन्नियां दिखाई देना आरम्भ हो गया। कहीं पकड़े भी गये तो प्राप्त गिन्नियों में से कुछ गिन्नियां देकर बरी हो गये। उनके वर्तमान एवं भविष्य दोनों का मूल आधार ही अफीम बन चुका है, उन्होंने अपने स्कूल-कालेज में क्या पढ़ा था वह सब उनके मस्तिष्क से धुआं बनकर उड़ चुका है।
वास्तविकता यह है कि अब वे पेशेवर White Collar Engineer/Officer बन चुके हैं। प्रबन्धन एवं कार्मिक संगठनों की भी यही ख्वाहिस थी, कि आने वाले नये रंगरुट, पेशेवर हों। जिससे कि उनके निहित स्वार्थ एवं भविष्य दोनों ही सुरक्षित रहें। प्रदेश या राष्ट्र की चिन्ता करने वाले तो कब के शहीद हो चुके, उनके लिये कभी साल में एक-आध बार रटे-रटाये कुछ शब्दों के माध्यम से श्रधांजलि अर्पित करते हुये उनका धन्यवाद अदा कर देते हैं, कि उन्हीं के कारण आज वे स्वतन्त्र रुप से अफीम का सेवन करने के लिये स्वतन्त्र हैं। निजीकरण की चर्चा हुई, तो थोड़ी बहुत बेचैनी जरुर हुई। परन्तु जिन्होंने विभाग में आते ही उन्हें अफीम चखना सिखाया था, उन भीष्म पितामह द्वारा उन्हें चिन्तित न होने एवं निश्चिन्त होकर अफीम चाटते रहने की सलाह दिये जाने के बाद, उन्हें यह इत्मिनान हो गया कि उनके अफीम के देवता, उनकी अफीम की आपूर्ति कभी रुकने नहीं देंगे अर्थात निजीकरण होने नहीं देंगे। यही कारण है कि इन युवाओं को लगता है कि निगमों के दरवाजे पर बैठे लोग निगमों के खरीददार नहीं बल्कि फरिस्ते हैं। पर मालूम नहीं कि वे फरिस्ते नहीं यमदूत हैं, जो लेने आये हैं, उनके रोजगार। बेबाक का यह मानना है कि निजीकरण रोकने के नाम पर, सिर्फ रोकने मात्र का औपचारिक दिखावा किया जा रहा है। जिसका मूल उद्देश्य ही सुगमता से निजीकरण कराना है। जिसका मूल कारण है कि चाहे कार्मिक संगठनों के भीष्म पितामह हों या कोई अन्य, उनके प्राण जिस तोते में सुरक्षित थे, अब वो तोते ऊर्जा प्रबन्धन के कब्जे में हैं। उनकी गर्दन मोड़ी नहीं, कि भीष्म पितामह और उनके कारिन्दे घुटनों पर आये नहीं।
कूटनीति का क, ख, ग तक न जानने वाले, परन्तु खुद को चाणक्य समझने वाले कार्मिक संगठनों के पदाधिकारियों ने, एक सोची समझी रणनीति के तहत, निहित स्वार्थ में संवर्गीय ढांचे को ही ध्वस्त कर, भ्रष्टाचार के पोषक एवं संरक्षक बन गये। इन्होंने प्रबन्धन से सांठ-गांठ कर, ईमानदारी से दूरी बनाई और कभी किसी युवा को आगे आने ही नहीं दिया। यही कारण है कि आज किसी भी कार्मिक संगठन के पास कोई युवा प्रतिभा नहीं है, जिसे कार्मिक संगठनों की उपयोगिता ज्ञान हो तथा जो प्रबन्धन की आंखों में आंखे डालकर बातें कर सके। सब के सब भ्रष्टाचार के अफीम के नशे में इस कदर डूबे हुये हैं कि उन्हें आज की वास्तविकता तक का एहसास नहीं है। यह आईने की तरह से स्पष्ट है कि ऊर्जा निगमों को लूटा नहीं गया बल्कि इसको निहित स्वार्थ में कार्मिक पदाधिकारियों के द्वारा लुटवाया गया है। यक्ष प्रश्न यथावत् है कि निजीकरण रोकने से क्या लाभ होगा। दूर-दूर तक कहीं भी अफीम का त्याग करने का संकल्प तो छोड़िये चर्चा तक सुनाई नहीं देती है।
अतः यह स्पष्ट है कि सुधार के नाम पर निजीकरण टाले जाने का सिर्फ एक ही मतलब है कि अफीमचियों को अफीम छोड़ने नहीं, बल्कि उसका भरपूर सेवन का एक और मौका देना है। इन कार्मिक पदाधिकारियों को, इनके कृत्यों के कारण, ऊर्जा निगमों का इतिहास कभी भी माफ नहीं करेगा। अतः यदि वास्तव में ऊर्जा निगमों को बचाना है तो सबसे पहले कार्मिक संगठनों को, ऐसे पदाधिकारियों से मुक्ति पानी ही होगी, जिनकी जानें प्रबन्धन के कब्जे में रखे हुये तोते में हैं। अन्यथा ताली पीटते रह जायेंगे और यह भी पता नहीं चलेगा कि कब कुर्सी पर सरकारी प्रबन्धन की जगह निजी प्रबन्धन विराजमान हो गया।
राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द! बी0के0 शर्मा महासचिव