
मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता…..ऐसा प्रतीत होता है कि निजीकरण का शान्तिपूर्ण तरीके से विरोध करने के लिये आन्दोलन के रचनाकारों की अन्दर खाने सहमति के उपरान्त, पूर्वांचल एवं दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगमों के निजीकरण हेतु, ट्रांजेक्शन एडवाइजर को नियुक्त करने हेतु, निविदा आमन्त्रित करने हेतु सूचना प्रकाशित हो चुकी है। RFP के मुख्य बिन्दुओं को देखते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वांचल एवं दक्षिणांचल विद्युत वितरण कम्पनियों को निजी हाथों में देने की पूरी तैयारी कर ली गई है। जिसमें कैबिनेट की संस्तुति हेतु भी Time Line कुछ इस प्रकार से निर्धारित की गई है। जैसे कि यह पहले से ही तय हो चुका है कि केबिनेट के समक्ष प्रस्ताव रखते ही, कितने दिनों में कैबिनेट द्वारा प्रस्ताव का अनुमोदन कर दिया जायेगा। यह कुछ इस प्रकार से है, जैसे कि बड़े विद्युत संयोजन पर भार स्वीकृत करने, प्राक्लन स्वीकृत करने, वित्तीय अनुमोदन एवं प्रशासनिक अनुमोदन करने जैसी बात हो। जहां पहले से तैयार एक प्रारुप पर प्रस्ताव प्रस्तुत करते ही, जनता की सम्पत्ति का मालिक दूसरे को बनाने की अनुमति, केबिनेट तुरन्त प्रदान कर देगी।
कैबिनेट में कोई भी यह प्रश्न नहीं करेगा कि रु० 1 लाख करोड़ से भी अधिक के घाटे के लिये उत्तरदायी कौन है? क्या कैबिनेट इस विषय पर चर्चा करना नहीं चाहेगी, कि जिस संस्थान में अपने Political Welfare को सुरक्षित रखने के लिये, जिन प्रशासनिक अधिकारियों को नियुक्त किया गया था। वो ही निरंकुश होकर, वितरण कम्पनियों की ढांचागत् व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिये उत्तरदायी हैं। जिसका ही परिणाम निरन्तर बढ़ता घाटा है। यह ठीक है कि लगातार घाटे को वहन करना सरकार के लिये सम्भव नहीं है। परन्तु उसके लिये यह भी आवश्यक है कि जनता भी यह जाने कि उसके धन की लूट किसने और कैसे की। यदि एक पूर्व प्रबन्ध निदेशक GPF घोटाले में जेल जा सकते हैं तथा उनके विरुद्ध आय से अधिक 2.85 करोड़ की सम्पत्ति ED जब्त कर सकती है। तो वितरण कम्पनियों में एक लाख से भी अधिक का घाटा, किस रुप में लोगों की जेबों में गया? क्या इसकी जांच नहीं होनी चाहिये।
पुराने अधिकारी एवं कर्मचारी इस लिये परेशान हैं कि वे ठीक से लूट नहीं पाये और नये इसलिये परेशान हैं कि नई-नई दुकान अभी ही तो सजाई थी और कमाई से पहले ही दुकान हटाने के आदेश आते दिखाई दे रहे हैं। निश्चित ही उपरोक्त RFP, निजीकरण कराने में सिद्धहस्थ पेशेवर कम्पनियों के द्वारा ही तैयार की गई है। जोकि मूलतः बिचौलिये का कार्य करती हैं। जिस प्रकार से निगमों के अधिकांश अधिकारी वेतन विभाग से लेते हैं और वाह्य कार्यदायी संस्थाओं, सामग्री निर्माता/आपूर्तिकर्ताओं के लिये Marketing Agent के रुप में कार्य करते हैं। ठीक उसी प्रकार से पा0का0लि0 में कार्यरत् कई सलाहकार कम्पनियां एक तरफ पा0का0लि0 के लिये काम करती हैं तो वहीं उनके (Vested interest) निहित स्वार्थ, दूसरी कम्पनियों के साथ भी जुड़े हुये होते हैं। इसी प्रकार से बहुत सारे बाहरी लोगों की दुकानें कार्मिक संगठनों के माध्यम से चल रही हैं। यह बाहरी लोगों की काबिलियत है कि उन्होंने निजीकरण के विरोध की औपचारिकता, अब तक बड़े ही शान्तिपूर्ण एवं संवैधानिक तरीके से निभाई है। जानकारी में यह आया है कि दो कथित बाहरी कट्टर विरोधी कार्मिक नेताओं ने आपस में हाथ मिला लिया है और दिखावे के लिये निजीकरण के विरोध में न्यायालय की शरण में जाने पर कुछ दिनों पूर्व गम्भीर चर्चा भी की थी। परन्तु लोगों में चेतना के अभाव में एवं अपने कथित निजीकरण कराने के उद्देश्यों की पूर्ति होते देखकर, न्यायालय वाले विषय पर अब चर्चा भी बन्द कर दी है। जहां तक निजीकरण रोकने की बात है, तो उसके लिये माननीय उच्च न्यालाय में एक जनहित याचिका ही पर्याप्त है। परन्तु प्रश्न उठता है कि निजीकरण रोकना कौन चाहता है।
एक तरफ निजीकरण का ठोस प्रस्ताव, तो वहीं OTS के नाम पर कठोर कार्यवाहियों के द्वारा मानसिक रुप से कार्मिकों को विकलांग करने की कूटनीति। जिसके बीच काला फीता न जाने कहां दबकर रह गया है। कार्मिक जिन्हें अपना खैर-ख्वाह समझे बैठे हैं, उन्हें भी नहीं मालूम कि इन कार्यवाहियों का क्या करें। अन्त में, वे मन ही मन यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं, कि उन्हें क्या लेना देना। जैसा चल रहा है वलने दो। हम सभी यह जानते हैं कि वितरण कम्पनियों के घाटे का मूल कारण, जनहित की आड़ में Political Welfare के लिये इसका प्रयोग किया जाना एवं डाल-डाल से लेकर पात-पात तक राजनीतिक हस्तक्षेप है।
सच्चाई यही है कि प्रदेश के ऊर्जा निगमों में संविदाकर्मी तक की नियुक्ति में सीधे-सीधे राजनीतिक हस्तक्षेप है। जिसके लिए सीधे-सीधे कार्मिक संगठन ही उत्तरदायी हैं। परिणामत: व्यवस्था नाम की चीज ही समाप्त हो चुकी है। आज लूट सके तो लूट की व्यवस्था हॉवी हो चुकी है। जिसके लाइसेंस खुलकर बंटते हुये दिखाई देते रहते हैं। हमारे देश में, शायद हमारा प्रदेश ही एकमात्र स्थान होगा, जहां एक ही संस्थान में कार्यवाहक कार्मिक अध्यक्ष कार्य कर रहा तो वहीं तमाम कार्यवाहक अधिकारी उच्च पदों पर आसीने होकर कार्य कर रहे हैं। जबकि उपयुक्त सिर्फ मुंह ताक रहे हैं। बेबाक का उद्देश्य किसी को भी हतोत्साहित करना नहीं है, बल्कि सम्भावित दृश्य देखने के लिये तैयार रहने के लिये चेताना है। क्योंकि जिस प्रकार से वितरण निगमों में हर जगह, घुन एवं जोंक की तरह घुसकर, उसका खून चूस रहे हैं। उस प्रकार से तो इन निगमों का दूर-दूर तक कोई भविष्य दिखलाई नहीं देता है। स्मरण रहे कि यदि न खायेंगे और न ही खाने देंगे का संकल्प नहीं लिया, तो कोई और ही सबको खा जायेगा। जो आजतक संविदाकर्मियों के जीवन की रक्षा के लिये कोई ठोस कदम तक नहीं उठा सके, उनके द्वारा बात-बात पर, अपने निहित स्वार्थ के लिये उनके रोजगार का हवाला देना, एक महापाप के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यह देखना रोचक होगा कि प्रयागराज में महाकुम्भ की अपार सफलता एवं हमारे यशस्वी मुख्यमन्त्री जी की लोकप्रियता के ग्राफ का विश्वपटल पर, समस्त रिकार्ड ध्वस्त करते हुये, तेजी से आगे बढ़ना, क्या निजीकरण पर कुछ लोगों के अरमानों पर तुषारापात कर सकता है।
राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
-बी0के0 शर्मा] महासचिव PPEWA.