
यदि ऊर्जा निगमों को बचाना है तो गिन्नियों की चमक से सभी विधुत कार्मिकों को अपने आपको बचाना ही होगा। अर्थात लालच को त्याग कर अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वों को पहचानना ही होगा। अन्यथा कोई नहीं बचा पायेगा। शिकारी घेर चुके हैं कहीं अधिकारी के रूप में तो कहीं पदाधिकारी के रूप में, सबका उद्देश्य एक ही है, ऊर्जा निगमों पर बाहरी लोगों का परचम फहरवाना…
मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता। मित्रों ऐसा महसूस होता है कि आप लोगों को जगाना लगभग नामुमकिन सा हो चुका है। क्योंकि ऐसा लगता है कि आप लोग उस नशे में जा चुके हो, जहां से सिर्फ समय ही आपको वापस ला सकता है। निश्चित ही आपके मन में यह प्रश्न होगा, कि आखिर क्यों मैं आप लोगों की नींद खराब करने का असफल प्रयास कर रहा हूं? सीधा सा उत्तर है कि ऊर्जा निगमों का मैंने भी नमक खाया है और उसके तीनों अंगों उत्पादन, पारेषण एवं वितरण को मैंने अपने खून पसीने से सींचा है। उनको, आज सिर्फ इस लिये बिखरते देखना, कि आप सभी सो रहे हो, या गिन्नियों की चमक में कहीं अंधे हो चुके हैं, मन में बहुत पीड़ा हो रही है तथा मन एवं नमक के कर्ज के दबाव में ही, मैं आप सभी को राष्ट्रहित में इस बेबाक के माध्यम से निरन्तर जगाने का प्रयास कर रहा हूं। वैसे भी मुझे, आपसे आयु एवं अनुभव में भी वरिष्ठ होने के कारण, मेरा नैतिक रूप से दायित्व है, कि मैं राष्ट्र हित में, ऊर्जा निगमों के सभी नियमित कार्मिकों को जगाने का, हर सम्भव प्रयास करूं। आप में से कुछ मेंरे छोटो भाई-बहन तो कुछ बालकों के समान हैं। उपरोक्त रिश्ते के कारण भी मुझे आप सभी से बेहद स्नेह एवं लगाव है।
वितरण कम्पनियों में लगातार बढ़ते हुये घाटे के कारण, निजीकरण के बादलों का छा जाना, ठीक उसी प्रकार की नैसर्गिक प्रक्रिया है, जैसे कि जब कोई जानवर मरता है, तो गिद्ध उसे घेर लेते हैं। घर में अथवा उद्योग में रखी कोई मशीन अथवा सामग्री के रखरखाव में खर्चा बढ़ जाने पर उसका स्वामी, उसे किसी अन्य को बेच देता है। परन्तु दुखद स्थिति तब उत्पन्न हो जाती है, कि जब मशीनों को बदलने एवं उद्योग में आवश्यकता से भी अधिक लगातार निवेश करने के बावजूद, भ्रष्टाचार की बीमारी से ग्रसित उधोग, बीमारी से पार नहीं पा पाता और निरन्तर घाटे में डूबता ही रहता है। तब उन इकाईयों को बेचने के अतिरिक्त, अन्य कोई रास्ता शेष नहीं रह जाता। यहां भी आप सभी यह अच्छी तरह से जानते हैं कि प्रदेश की वितरण कम्पनियां, नित्य नई मशीनें बदले जाने एवं आवश्यकता से भी ज्यादा निवेश करने के बावजूद, सिर्फ इसलिये घाटे में डूब रही हैं, क्योंकि चाहे वो घर के जिम्मेदार हो या घर के युवा बालक हों, उन्होंने घर को मुशाफिर खाना तक नहीं समझा। घर के सामानों की तो छोड़िए दीवारों तक पर हाथ साफ करने का प्रयास किया। स्पष्ट है कि यदि कभी घर को घर ही समझा होता, तथा इसे अपना उघोग अर्थात आजीविका मानते हुए चलाया होता, तो उधोग के विस्तार के साथ-साथ विभाग भरपूर मुनाफे में होता। हमें न तो नई मशीनों की और न ही बाहरी निवेश की कोई आवश्यकता पड़ती। परन्तु हमने राजनीतिक लाभ के सहारे, आपस में भाई-भाई को नीचा दिखाने के चक्कर में, बाहरी लोगों को, घर में ठीक उसी प्रकार से बैठा लिया, जिस प्रकार से कभी हमारे पूर्वर्जों ने मुगलों एवं अंग्रेजों को घर में बुलवाकर, हमें लुटवाया था।
सबसे दुखद यह है कि अपने उद्योग एवं अपने संवर्गीय कार्मिकों के उज्ज्वल भविष्य को सुनिश्चित करने के लिये, संगठनों के चयनित प्रतिनिधियों के द्वारा, अपने उत्तरदायित्वों का त्याग कर, निहित स्वार्थ से ग्रसित होकर, इन बाहरी लोगों के यहां पर, दरबारी के समान कार्य करना प्रारम्भ कर दिया गया। जिसका परिणाम यह रहा कि है कि नियोक्ता एवं कार्मिकों के बाद तीसरी आंख के रुप में कार्य करने वाले, उद्योग एवं उनके कार्मिकों के भविष्य के रक्षक, ये ”कार्मिक संगठनों“ के प्रतिनिधियों के द्वारा, आंख मूंद लिये जाने के कारण ही, आज उद्योग और उनके कार्मिक, दोनों का ही भविष्य असुरक्षित हो चुका है। आज वे ही कार्मिक संगठन अपने उत्तरदायित्वों का मात्र दिखावा करने के लिये, जगह-जगह पंचायतें करते फिर रहे हैं।
वास्तविकता यह है कि जिन जोंकों ने वितरण कम्पनियों को खोखला किया है, वो सभी कभी इनकी पालतू जोंक हुआ करती थी। परन्तु आज उन्हीं जोंकों के परिवार इतने फैल चुके हैं, कि अब इनके ही नियन्त्रण से बाहर हो चुके हैं। जहां नम्बर एक ताकत एवं मजबूती का प्रतीक होते हैं, तो वहीं यह नम्बर कमजोरी का प्रमाण भी होते हैं। विभिन्न संगठनों के द्वारा आये दिन जारी किये जाने वाली विज्ञप्तियों में नम्बर किसी मजबूती का नहीं बल्कि थके एवं हारे हुये गणित का व्याख्यान मात्र है। जो इस बात का प्रमाण है कि अब ”शेर सामने खड़ा है और जो कुछ भी करना है, उसे करना है, खुद के पास कुछ भी करने के लिये शेष नहीं है।“ तब भी इस विषम परिस्थिती में भी, उम्मीद की एकमात्र किरण अभी शेष है। जिसके लिये आवश्यकता है दृढ़ संकल्प की। स्मरण रहे कि यदि नियम कायदों से भ्रष्टाचार नियन्त्रित होता, तो भ्रष्टाचार की उत्पत्ति होने से पहले ही वह समाप्त हो जाता। नित्य नये नये नियम कायदे बनाने एवं संशोधन से नहीं बल्कि उन पर संकल्प के साथ अमल करने पर ही भ्रष्टाचार पर नियंत्रण हो सकता है। परन्तु यक्ष प्रश्न उठता है कि उन पर अमल करेगा कौन? जिसका मूल कारण है नियम कायदे बनाने वाले एवं उनका पालन कराने वाले, स्वयं खुद ही इस कदर भ्रष्टाचार के रोग से ग्रसित हो चुके हैं कि वे अब बस यह चाहते हैं कि उनके अतिरिक्त कोई भी, किसी भी सूरत में, भ्रष्टाचार न करे। अपने ही बनाये हुये नियमों से खेलना, उनकी नित्य की दिनचर्या बनकर रह गया है।
अतः यदि वास्तव में ऊर्जा निगमों को बचाना है, तो ”न खायेंगे और न खाने देंगे“ के सिद्धांत का पालन करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय शेष नहीं है। परन्तु यह कदापि उस तरह से नहीं हो सकता, कि जैसे कभी एक राजा के द्वारा दूध की नदी बहाने के लिये सभी दूधियों को एक-एक बाल्टी दूध की नदी में डालने का निर्देश दिये जाने पर, सुबह एक-एक करके सभी दूधियों ने इस विश्वास के साथ एक-एक बाल्टी पानी नदी में डाला कि बाकी सभी दूध डालेंगे तो उसके एक बाल्टी पानी का किसी को भी पता नहीं चलेगा। परिणामतः सुबह नदी में दूध के स्थान पर सिर्फ पानी था। ऊर्जा निगमों की भी स्थिति इससे बाहर नहीं है। जहां सुबह से शाम तक ईमानदारी का पाठ पढ़ने और पढ़ाने वाले, किसी भी मलाईदार पद के रिक्त होने पर सांय गिन्नियों की थैली के साथ इस आशय के साथ चरण वंदना करते नजर आते हैं, कि उक्त रिक्त पद के लिये उनसे योग्य अन्य कोई नहीं है।
ज्ञान, कर्म के बिना अधूरा है और ये दोनों ईमानदारी और निष्ठा के बिना अधूरे हैं। क्योंकि ज्ञान के अनुसार कर्म जब ईमानदारी एवं राष्ट्र के प्रति निष्ठा के साथ नहीं किया जाता तो वह हानिकारक ही नहीं बल्कि विस्फोटक होता है। जहां ज्ञान, कर्म, ईमानदारी और निष्ठा ही महत्वहीन हो जायें, तो स्वयं केसरी पट्टी के स्थान पर काली पट्टी ही बांधकर घूमना शेष रह जाता है। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA.