मित्रों नमस्कार! किसी औद्योगिक संस्थान की सफलता के लिये पहला पग आपसी समन्वय एवं एकता होता है। जिसके द्वारा आपस में एक टीम भावना के साथ, सब एकजुट होकर कार्य करते हैं तथा सभी एक दूसरे के पूरक होते हैं। किसी को भी किसी से कोई भय नहीं होता और हर वक्त संस्थान हित में अपना सर्वोच्च देने में लगे रहते हैं।
यही कारण है कि बड़े-बड़े गैर-सरकारी उद्योगों में, आपसी बोलचाल में ”साहब“ शब्द का प्रयोग प्रतिबन्धित है। ”साहब/साहेब“ अरबी भाषा का हिन्दीकरण है और साहब का मतलब मालिक/स्वामी होता है। अर्थात साहब, गुलामी की मानसिकता का स्पष्ट प्रतीक है, जोकि दो व्यक्तियों के बीच नौकर/गुलाम और मालिक की मानसिकता का प्रतीक है। जो आपस में दूरी एवं भय को प्रकट करता है। अंग्रेज चले गये, परन्तु गुलामी के प्रतीक ”साहब/साहेब“ को आम आदमी के बीच छोड़ गये, जिसे सरकार एवं सरकारी संस्थानों ने, पूर्ण रुप से अंगीकृत कर लिया है। जबकि Mister का मतलब श्रीमान/महोदय होता है।
सार्वजनिक उद्योगों में, चाहे कार्यस्थल हो या बाहर, वे आपस में कोई भी चर्चा करते वक्त साहब नहीं, Mister शब्द का प्रयोग करते हैं, चाहे सामने वाला कम्पनी का प्रबन्ध निदेशक ही क्यों न हो। बाहर देशों में तो प्रधानमन्त्री एवं राष्ट्रपति तक को भी Mister कहकर ही सम्बोधित किया जाता हैं। जिसके कारण दो इन्सानों के बीच, एक स्वस्थ रिश्ता स्थापित हो जाता है। हमारे देश के सभी हिन्दी भाषी प्रदेशों में ”साहब“ शब्द का प्रयोग, बड़े ही समर्पित भाव से किया जाता है। यदि साहब शब्द के साथ समर्पण का भाव न हो, तो साहब के नाराज होने का सदैव ही खतरा बना रहता है। इस गुलामी की प्रथा की जड़ों को और भी मजबूत करने और साहब का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये, अब साहब की चरण वन्दना करने का प्रचलन, बहुत तेजी से बढ़ रहा है। जिसका मूल उद्देश्य ही साहब को प्रसन्न कर, इच्छित लाभ प्राप्त करना होता है। सरकारी संस्थानों में साहब के सामने सिर उठाना अथवा साहब की गलत बात का भी विरोध करना, स्थानान्तरण अथवा निलम्बन के रुप में प्रकट होता है।
यह कटु सत्य है कि साहब शब्द की मर्यादाओं का उचित ध्यान न रखने वाले ही पदोन्नत्ति हेतु न्यूनतम अर्हता/अंक के लिये सदैव संघर्ष करते रहते हैं। यहां तक की सेवानिवृत्त होने के बाद पेन्सन तक के लिये संघर्ष करते नजर आते हैं। ताजा उदाहरण है कि एक तरफ 2014 बैच के लोग ”साहब“ के आशीर्वाद से, नियम विरुद्ध, दो-दो बार न्यूनतम अवधि में शिथिलता प्राप्त कर अधीक्षण अभियन्ता पद पर पदोन्नत हो चुके हैं। तो वहीं दूसरी ओर 2010 बैच के लोग ”साहब“ का आशीर्वाद न मिल पाने के कारण, न्यूनतम अर्हता के अभाव में, पदोन्नत्ति से वंचित कर दिये गये हैं। मजेदार बात यह है कि दोनों ही कार्य, एक ही चयन समिति द्वारा किये गये हैं। जोकि सीधे-सीधे भेदभाव पूर्ण कार्यवाही है। वहीं ”साहब“ का कमाल यह है, कि यदि आपको ”साहब“ की ”स्तुति“ का उचित ज्ञान है तो न्यूनतम अर्हता की छोड़िये, चाहे अनुशासनात्मक कार्यवाही ही आपके विरुद्ध, क्यों न प्रचलित हो, आपको, सीधे-सीधे उच्च पद के अतिरिक्त कार्यभार से सम्मानित कर दिया जाता है। जिसके वर्तमान में ही बहुत सारे उदाहरण हैं। जिसमें चयनित लोगों को कार्यभार न दिलाकर, भक्तों की स्तुति वन्दना के आधार पर कार्यभार दिलवा रखा है।
बेबाक का स्पष्ट रुप से यह मानना है कि जब ऊर्जा निगमों में कार्मिकों को ”साहब“ की स्तुति करने से मुक्ति नहीं मिलेगी। ऊर्जा निगमों का उद्धार नहीं हो सकता। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA.