
मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता। बेबाक सदा से ही ऊर्जा निगमों के घाटे का मूल कारण, उनकी डाल-डाल से लेकर, पत्ते-पत्ते तक फैले हुए भ्रष्टाचार को ठहराता रहा है। जिसकी पुष्टि, आये दिन सोशल मीडिया एवं अखबारों में प्रकाशित होती छिटपुट खबरें करती रहती हैं। यह पूरा का पूरा एक सिस्टम बन चुका है, जहां पर नीचे से ऊपर तक, जिस किसी के भी हाथ अनियमितता से सम्बन्धित कोई खबर अथवा साक्ष्य लग जाता है, तो वह उसका यथासम्भव दोहन करने का प्रयास करता है और वह खबर दब कर रह जाती है। आपसी मोल-तोल न हो पाने के कारण दोहन न हो पाने की स्थिति में ही, वह खबर बाहर आ पाती है। जहां सम्बन्धित को सामान्यतः प्रथम दृष्टया भ्रष्टाचार के लिये नहीं, बल्कि मामले को दबा न पाने में असफल रहने के कारण ही स्थानान्तरित अथवा निलम्बित किया जाता है। जिसके बाद उचित चढ़ावे एवं चरण वंदना के आधार पर, पुनः किसी न किसी क्षेत्र की दुकान का लाइसेंस दे दिया जाता है। इसी प्रकार से अनुशासनात्मक कार्यवाही भी उचित चढ़ावे एवं चरणवंदना के आधार पर, निस्तारित की जाती है।
इस प्रणाली की विशेषता यह है, कि कभी गलती से, यदि कोई बेचारा ईमानदार फंस गया, तो उसे भी उचित चढ़ावे एवं चरणवंदना के आधार पर ही मुक्ति मिल पाती है। अन्यथा प्रणाली के किसी कोने में, ताउम्र चिपका पड़ा रहता है। जहां वह विद्युत प्रशिक्षण संस्थान के “DP” विशेषज्ञ द्वारा प्रयुक्त गीत की लाईनें, कि ”तू न चलेगा तो चल देंगी राहें,“ उसके कानों में रात-दिन गूंजती रहेंगी। जिसका सीधा-साधा तात्पर्य है कि फटाफट उठ और चढ़ावा चढ़ाकर चरण स्पर्श कर मुक्ति पा, अन्यथा चल देंगी राहें और फिर जिन्दगी भर राहें तलाशते रहना। स्मरण रहे कि उ0प्र0 में ऊर्जा निगम का इतना बड़ा जहाज, कोई ऐसे ही नहीं डूबा। \
एक बार स्वयं माननीय प्रधानमन्त्री जी को भी अपने एक भाषण में यह कहना पड़ा था, कि उन्हें मालूम है कि इसे किस-किस ने लूटा है। यह दुखद है कि वह भाषण राजनीति के गलियारे से निकलकर, धरातल पर आज तक नहीं आ पाया। ऊर्जा निगम का जहाज कितना बड़ा है, इसका अन्दाजा सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है, कि इसके कुछ जिलों के ही कार्य क्षेत्रों को बेचने की चर्चा मात्र पर ही, चारों ओर से लारें बहती नजर आ रही हैं। उससे भी ज्यादा रोचक तथ्य यह है, कि कार्मिक संगठनों के वे पदाधिकारी गण, जो वर्षों पहले सेवा निवृत्त हो चुके थे, उनके शरीर में भी, निजीकरण की चर्चा सुनते ही, ऊर्जा का संचार, कुछ इस तरह से हुआ, कि इस कड़कड़ाती ठण्ड में भी, वे अपनी उम्र को धता बताते हुये, निजीकरण के विरोध का झण्डा लेकर मैदान में, इस उम्मीद के साथ आ डटे, कि जब भी कोई सौदा होगा, तो उनके विरोध के झण्डे को झुकाने के लिये ही न सही, इतने बड़े सौदे के एवज में ही उन्हें खरीददार कुछ न कुछ बख्शीश तो अवश्य ही देकर जायेगा।
यदि कोई यह कहता है कि इनका यह विरोध जनहित अथवा देशहित/प्रदेशहित में है। तो सीधा एवं सरल सा प्रश्न उठता है, कि इनकी नाक के नीचे ही, जहाज की तली में भ्रष्टाचार रुपी छेद हो गया था और जहाज में पानी भरना आरम्भ हो चुका था। जिसे रोकने का इन्होंने कभी कोई प्रयास नहीं किया। यदि किसी कोने से जहाज में भ्रष्टाचार रुपी छेद को रोकने हेतु, ईमानदारी और निष्ठा की M-Seal का प्रयोग किया होता, तो आज यह जहाज एक लाख करोड़ से भी अधिक के घाटे में नहीं डूबता। प्रश्न उठता है कि क्या इन्होंने कभी ईमानदारी और निष्ठा का समर्थन किया या सिर्फ भ्रष्टाचारियों का समर्थन करना और उन्हें सप्तम तल पर भेजना ही इनका एकमात्र उद्देश्य था?
आज सप्तम तल पर कई ऐसे अधिकारी बैठे हैं, जिनकी पृष्ठभूमि ही दलाली है, कहीं कोई भण्डाफोड़ न हो जाये, इसलिये वे समस्त पत्रावली अपने निजी संरक्षण में रखते हैं। ऐसे ही लोग, पूरे के पूरे ऊर्जा निगम में भरे हुये हैं, जिनका सिर्फ एक ही उद्देश्य है कि विभाग की जड़ों को किस तरह से निचोड़कर, अधिक से अधिक रस निकाला जा सके। बात-बात पर नियमित कार्मिकों को आन्दोलन का झण्डा उठाने के लिये उकसाने वाले वयोवृद्ध नेताजी, जो अपने आपको ऊर्जा निगमों का सबसे बड़ा खैर-ख्वाह दर्शाने का कोई मौका नहीं छोड़ते। उनसे बेबाक एक प्रश्न करना चाहता है, कि उन्हें जहाज की तली में छेद करने वाले और रात-दिन जहाज लूटने वाले अधिकारी दिखलाई क्यों नहीं देते। जिनको ये तानाशाह कहते फिरते हैं, उन्हें इनके ही आदमी रात-दिन रसद-सामग्री की आपूर्ति करते हैं। यक्ष प्रश्न उठता है, कि क्या इस रसद सामग्री में इनकी भी हिस्सेदारी है। ये एक वयोवृद्ध नेता हैं तथा इन्होंने धूप में यूंहि अपने बाल सफेद कर, नहीं उड़ाये हैं। इन्हें हर उस पाइप लाइन एवं आपूर्ति की जानकारी है, जिसके माध्यम से रसद-सामग्री का वितरण होता है। प्रश्न उठता है कि इन्होंने नीचे से ऊपर तक जाने वाली रसद की उक्त कड़ी को कभी भी तोड़ने पर विचार क्यों नहीं किया। इन्होंने आजतक कभी भी किसी भी योजना में हुये भ्रष्टाचार पर ऊंगली उठाने की तो छोड़िये, ईशारा तक नहीं किया है।
वैसे जनहित की चिंता का प्रचार-प्रसार करने में इनका कोई सानी नहीं है। आज स्थिति यह है कि रग-रग में भ्रष्टाचार कुछ इस तरह से फैल चुका है, कि निजीकरण का विरोध अर्थात अपना छोटा सा भी नुकसान वहन करने का साहस किसी में भी नहीं बचा है। यही कारण है कि कल जो बात-बात पर कार्य बहिष्कार और हड़ताल की धमकी देते थे, वे अब काली-पट्टी बांधते हुये भी डर रहे हैं, कि कहीं काली-पट्टी से निकलकर, कोई कालिख उनको न छू जाये। बेहतर होता कि काली पट्टी की जगह केसरिया पट्टी बांधते, जिससे कि युवाओं के दिलों में, कहीं कोने में शहीदों के प्रति बचा सम्मान जाग उठता और उनमें त्याग की भावनाओं के साथ-साथ ऊर्जा का संचार हो जाता।
बेबाक का स्पष्ट रुप से यह मानना है कि जो जहाज भ्रष्टाचार रुपी छेद के कारण डूब रहा है, उसे बचाने के लिये भ्रष्टाचार के विरोध में एकजुट होकर खड़ा होना ही पड़ेगा। अर्थात ”न खायेंगे और न खाने देंगे“ के सिद्धांत का पालन करते हुये, ऊपर जाने वाली रसद-सामग्री की समस्त लाइनों को बाधित करना ही होगा। जो चतुर लोग ये सोच रहे हैं कि वे अपनी गीदड़ भभकी के द्वारा इसी तरह से जहाज को लूटते रहेंगे, तो वह समय बीत चुका। अब एक तरफ ईमानदारी और विभाग के प्रति निष्ठा का दामन है तो दूसरी ओर निजीकरण की खाई है। शायद यह अन्तिम अवसर है और इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय अब शेष नहीं है।
राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द! बी0के0 शर्मा महासचिव PPEWA.