
बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता। एक दिन पूर्व UPPCL की स्थानान्तरण एक्सप्रेस अपनी गति सीमा से भी तेज चली और बहुत सारे लोगों के सपनों एवं जमे जमाये धन्धों को रौंदती हुई निकल गई।
यक्ष प्रश्न है उठता है कि क्या स्थानांतरण उच्चाधिकारियों एवं राजनीतिक व्यक्तियों की व्यक्तिगत हताशा एवं कुण्ठाओं का दुष्परिणाम तो नहीं हैं? सरकारी विभागों में स्थानान्तरण की क्या बस यही उपयोगिता है? क्योंकि स्थानान्तरण का मूल उद्देश्य, उपलब्ध योग्यता का जनहित/राष्ट्रहित में उचित प्रयोग किया जाना होता है। विदित हो कि कुदरत ने प्रत्येक इंसान को अलग-अलग खूबियों से नवाजा है। किसी भी संस्थान के स्वस्थ एवं परिपक्व प्रबन्धन का यह दायित्व होता है कि वह अपने कार्मिकों में कुदरती रुप से प्रदत्त खूबियों को पहचान कर, उनका जनहित एवं संस्थान हित में बेहतर प्रयोग करे। परन्तु उक्त स्थानान्तरण एक्सप्रेस को देखकर किसी भी दृष्टि से ऐसा नहीं लगता, कि इसका योग्यता की उपयोगिता से कोई लेना देना है।
जहां एक ओर दुनिया के देश, हमारे देश की योग्यता को लुभावने वेतन एवं सुविधाओं के साथ ले जाकर, विश्व पटल पर चमक रहे हैं, तो वहीं हमारे देश में, योग्यता पर चापलूसों एवं गुलामों की प्रमुखता से बढ़ती मांग से उनका अपमान पर अपमान हो रहा है। जहां ऊपर वाला जो कहे या करे, वही सही है। जिसके अतिरिक्त कुछ भी अहसास तक करना अपराध है। यदि कोई धूप में सदरी पहनकर, खड़ा होकर कहे, कि प्रचण्ड गर्मी है, तो प्रचण्ड गर्मी है। यहां प्रबन्धन राजनीतिक दबाव एवं महत्वकांक्षाओं से इस कदर प्रभावित हो चुका है, कि उसकी योग्यता में से मूल कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वों का कब पलायन हो गया, उसे पता ही नहीं चला और परिणामतः अब वह अपने आपको एक बादशाह के रुप में मानते हुये, तानाशाही पर उतर आया है। जिसका जीता जागता प्रमाण है, प्रत्येक स्थानान्तरण आदेश के बिन्दु 8 पर विशेष रुप से Bold अक्षरों में यह अंकित किया जाना, कि ”ग्रीष्म ऋतु के दृष्टिगत सुचारु विद्युत आपूर्ति बनाये रखने हेतु कार्यभार ग्रहण अवधि अनुमन्य नहीं होगी।
“प्रश्न उठता है कि क्या इससे पूर्व प्रदेश में गर्मी नहीं पड़ती थी? क्या इस बार कोई विशेष गर्मी पड़ रही है? क्या विद्युतकर्मी इंसान नहीं हैं? सबसे बड़ी बात यह है कि जब आप गर्मी में हर वक्त सदरी पहनेंगे, तो गर्मी ही लगेगी। फिर उस गर्मी को अपने अधीनस्थों पर उतारते नजर आते हैं। यदि वास्तव में गर्मी एवं प्रदेश की जनता की आपको इतनी चिन्ता है, तो यह स्थानान्तरण बाद में भी किये जा सकते थे? क्या इससे पूर्व के ग्रीष्म ऋतुओं में किये गये स्थानान्तरणों के कारण कोई परेशानी हुई थी? जो इस बार कार्यभार ग्रहण अवधि को ही समाप्त कर दिया गया। वैसे भी आप साल भर, बात-बात पर स्थानान्तरण एवं निलम्बन ही करते नजर आते हैं। आपने कभी भी परिवार के मुखिया के तौर पर विभाग में बुनियादी सुधार के नाम पर कोई कार्य किया है। या सिर्फ निजीकरण की वकालत कर, स्वयं की योग्यता पर ही एक प्रश्नचिन्ह लगाया है। काश देश के सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले अधिकारियों ने ऊर्जा निगमों के कुछ समय के अपने कार्यकाल में प्रबन्धन के उस विशेष गुण ”इस हाथ दे, उस हाथ ले,“ का सदुपयोग करते हुये, उपलब्ध योग्यता का उचित प्रयोग एवं उन्हें निरुत्साहित करने के स्थान पर प्रोत्साहित कर निगमों को नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने का प्रयास किया होता?
परन्तु दुर्भाग्य से ऊर्जा निगमों जैसे सार्वजनिक हितों के लिये समर्पित उधोग के लिए नासुर राजनीतिक प्रभाव को उसकी डाल-डाल तक पहुंचने में ही मदद की। जिस पर बेबाक द्वारा एक लेख लिखा गया था कि ”ऊर्जा निगमों के कार्मिकों के कितने खसम“? जहां पर एक संविदाकर्मी तक को एक छुटभईया से लेकर मन्त्री जी तक को सन्तुष्ट करने की जिम्मेदारी होती है, जिसमें बात-बात पर, बीच में आ जाती है प्रबन्धन की नाक। अपनी नाक एवं 48 Degree C की प्रचण्ड गर्मी के बीच विद्युतकर्मियों का कार्य करना एवं लोहे के विद्युत पोल पर चढ़ना, किसी को भी दिखाई नहीं देता। बस शर्त यह है कि AC में सदरी पहनकर आराम फरमा रहे साहब के आराम में खलल न पड़ जाये। अन्यथा अंग्रेजों का चाबुक।
प्रश्न उठता है कि कहीं इस वर्ष ”ग्रीष्म ऋतु“ के नाम पर किये जाने वाले स्थानान्तरण, वायसराय की जल्द से जल्द वितरण कम्पनियों के निजीकरण कराने के उतावलेपन के कारण उत्पन्न अवसाद का परिणाम तो नहीं? यक्ष प्रश्न उठता है कि जिस जनता के नाम पर आये दिन ऊर्जा प्रबन्धन जनरल डायर की तरह अपने ही कार्मिकों पर हण्टर चलाता रहता है, क्या वे देश का नागरिक नहीं हैं? क्या उनका परिवार, प्रदेश की जनता में शामिल नहीं है? क्या विद्युतकर्मियों का दायित्व सिर्फ यही है कि वे 48 Degree C की प्रचण्ड गर्मी में भी सिर्फ इसलिये काम करें, कि कुछ लोग कम्बल में आराम कर सकें?
बेबाक की दृष्टि में ”योग्यता को पद की ताकत से अपमानित करने का कुण्ठित प्रयास“ कहीं कतिपय उद्देश्य की प्राप्ति में हो रहे विलम्ब से उत्पन्न कुण्ठा का परिणाम तो नहीं है? स्मरण रहे कि कार्यभार ग्रहण अवधि को विलुप्त कर, कार्मिकों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित करने के सुझाव में, कहीं न कहीं आयातित कार्मिक पदाधिकारियों के भी, विशेष योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता। ईश्वर सबकी मदद करे! राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.