क्या ऊर्जा निगमों के डूबने का मूल कारण एक उद्योग के अन्दर कई उद्योगों (स्थानांतरण, निलम्बन एवं कार्यवाहक अधिकारियों की नियुक्ति) का होना तो नहीं ?

मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता…. मित्रों वर्ष 2001 में तत्कालीन उ0प्र0रा0वि0प0 से विघटन के उपरान्त बने तीन निगमों एवं तत्पश्चात बने 5 वितरण निगमों में, पिछले लगभग 25 वर्षों से नियुक्त निदेशक मण्डल, जिनके पास समस्त शक्तियां हैं। यदि उनकी उपलब्धियों का आकलन करें, तो पायेंगे कि उनके द्वारा कम्पनियों के गठन के उद्देश्य को पूर्णतः दरकिनार करते हुये, कार्मिकों की मजबूत टीम बनाने एवं उनमें टीम भावना उत्पन्न करने हेतु आवश्यक योग्यता एवं अनुभव को पूर्णतः धता बताते हुये, निहित स्वार्थ में एक उद्योग के अन्दर ही कई उद्योग बना डाले हैं…जैसेः स्थानान्तरण-नियुक्ति, निलम्बन-बहाली एवं कार्यवाहक अधिकारियों की नियुक्ति। जिसमें धीरे-धीरे माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा याचिका सं0 79/1997 पर दिये गये निर्देशों को भी पूरी तरह से नजरंदाज कर दिया गया है। स्थानान्तरण-नियुक्ति, निलम्बन-बहाली एवं कार्यवाहक अधिकारियों की नियुक्ति में सारे के सारे मापदण्डों पर राजनीतिक एवं गिन्नियों का प्रभाव बहुत भारी है।

यही कारण है कि आज हालात यह हैं कि किसी भी अधिकारी एवं कर्मचारी के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही के लिये, उसके नियन्त्रक अधिकारी की संस्तुति/आकलन का कोई महत्व नहीं है। जिस प्रकार से अंक ज्योतिष ज्ञान में कुछ नम्बर के आधार पर भविष्य का आकलन कर लिया जाता है। ठीक इसी प्रकार से अब वितरण निगमों के प्रबन्ध निदेशक अथवा उ0प्र0पा0का0लि0 के अध्यक्ष द्वारा 10 कम राजस्व वाले खण्ड या मण्डलों की समीक्षा करते हुये, सूची में सबसे फिसड्डियों को छोड़कर अचानक 7 वें, 8 वें अथवा 9 वें स्थान के अधिकारियों को निलम्बित करने के आदेश दे दिये जाते हैं। जोकि पूर्णतः एक तरफा, नैसर्गिक न्याय के विपरीत, पक्षपात पूर्ण है। जिसका धरातल की वस्तुस्थिति से कोई भी लेना देना नहीं है। इसी प्रकार से कब और क्यों, किसका स्थानान्तरण वितरण कम्पनी के अन्दर या बाहर किया जाता है, किसी को भी मालूम नहीं होता। जबकि उक्त कम्पनी के पास, उक्त कार्मिक को विभाग के लिये उपयोगी बनाने हेतु समस्त शक्तियां पहले से ही प्राप्त हैं।

स्मरण रहे कि समस्त वितरण कम्पनियां स्वतन्त्र हैं और उनकी कोई बाध्यता नहीं है कि वे अध्यक्ष उ0प्र0पा0लि0 के आदेश का पालन करें। चूंकि स्थानान्तरण-नियुक्ति एवं निलम्बन-बहाली का खेल प्रबन्ध निदेशक एवं अध्यक्ष महोदय द्वारा व्यापक स्तर पर बिना किसी मापदण्डों का पालन किये खेला जाता है, तो इसी की देखा-देखी नीचे मुख्य अभियन्ता से लेकर अधिशासी अभियन्ता स्तर तक, इस खेल को जमकर खेला जाता है। उपरोक्त के साथ-साथ, नया खेल, कार्यवाहक अधिकारियों की नियुक्ति का खेल, आज सारे नियम-कायदों को तोड़ते हुये, पूरे यौवन पर है। नियमानुसार वरिष्ठता के आधार पर ही, उच्च पद का अतिरिक्त कार्यभार दिया जाना चाहिये, परन्तु आज ऐसे लोगों को अतिरिक्त कार्यभार दिये जा रहे हैं, जोकि आज ही नहीं, बल्कि निकट भविष्य में भी पदोन्नत्ति के योग्य नहीं हैं। क्योंकि उनके विरुद्ध तमाम आरोप पत्र एवं निंदा प्रविष्टियां दर्ज हैं।

जानकारी के अनुसार अधिशासी अभियन्ता से अधीक्षण अभियन्ता पद पर पदोन्नत्ति हेतु लगभग 56 पद रिक्त हैं। परन्तु पदोन्नत्ति सिर्फ इसलिये नहीं की जा रही है, कि उनके द्वारा अनुभव की पात्रता अवधि पूर्ण नहीं की जा रही है। जोकि पूर्णतः हास्यापद है क्योंकि एक तरफ जानपद संवर्ग में अनुभव में ढील देकर पदोन्नत्ति की गई, तो वहीं वितरण निगमों के लिये, अनिवार्य विद्युत संवर्ग के पदों के लिये, ढील देने से इन्कार कर दिया गया। परन्तु पा0का0लि0 द्वारा स्वयं घोषित पात्रता अवधि पूर्ण न करने के कारण अयोग्य घोषित अधिकारियों को ही उच्च पद का कार्यवाहक अधिकारी बनाकर कार्य लिया जा रहा है, क्या यह हास्यापद नहीं है?

यक्ष प्रश्न उठता है कि आखिर उ0प्र0पा0का0लि0 के निदेशक मण्डल एवं नियुक्त प्रशानिक अधिकारियों की ऊर्जा निगमों में उपयोगिता क्या है? जोकि आवश्यकतानुसार पदोन्नत्ति करके नियमित अधिकारियों की नियुक्ति करने तक का निर्णय नहीं ले सकते? क्या ये सीधे-सीधे कुछ लोगों के निहित स्वार्थ से जुड़े हुये खेल होने की ओर ईशारा नहीं कर रहा है, जहां प्रबन्धन जानते-बूझते योग्यता पर अयोग्यता को वरीयता प्रदान कर, अन्य में अवसाद पैदा करने के लिए अमादा है। प्रश्न उठता है कि जानपद संवर्ग के अधिकारियों को पदोन्नत करने हेतु आवश्यक अनुभव में छूट क्यों प्रदान की गई और विद्युत संवर्ग की अनिवार्य आवश्यकताओं के दृष्टिगत् अनुभव में छूट देने में क्या व्यवधान है? जब प्रबन्धन को अपनी दिव्य दृष्टि से 10 अधिकारियों की समीक्षा में पहले 6 लोग दोषी दिखलाई नहीं पड़ते, परन्तु बाद के लोग दोषी दिखलाई दे सकते हैं तो लम्बित जांचों एवं लम्बित गोपनीय आख्याओं के खेल में उलझे हुये लोगों पर निर्णय लेने में आखिर कहां दिक्कत है? क्योंकि अटकी हुई नाक एवं गिन्नियों की आकांक्षाओं पर ही तो निर्णय लेना है।

यदि कार्यवाहक अधिकारी का विश्लेषण किया जाये तो एक ऐसा अधिकारी जो उच्चाधिकारियों के आदेशों का अक्षरश पालन करता हो, चाहे वो विधि सम्मत हो अथवा नहीं। यही कारण है कि इन कामचलाऊ अधिकारियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होती, परन्तु इनकी संस्तुति के आधार पर योग्य एवं अनुभवी अधिकारियों के विरुद्ध जमकर कार्यवाहियां होती हैं। कार्यवाहक अधिकारियों के ही कारण ऊर्जा निगमों में कार्य एवं सामग्री की गुणवत्ता निम्न स्तर पर है तथा वितरण कम्पनियों में व्यवस्था पूर्णतः चौपट हो चुकी है। कामचलाऊ का एकमात्र उद्देश्य होता है कि इससे पहले कि कोई नियमित अधिकारी नियुक्त हो, वह अधिक से अधिक लूट को अंजाम दे सके। योग्यता की स्थिति तो यह है कि कुछ वर्ष पूर्व ही, बोली के आधार पर वाहन चालकों तक को अवर अभियन्ताओं का अतिरिक्त कार्यभार दिया गया था।

स्पष्ट है कि अवर अभियन्ता एवं अधिशासी अभियन्ता ऊर्जा निगमों की रीढ़ हैं। जिनको क्षति पहुंचाने का कार्य अधीक्षण अभियन्ता एवं मुख्य अभियन्ताओं के द्वारा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जाती। क्योंकि विभाग को खोखला करने वाले ठेकेदार तो इन्हीं दोनों अधिकारियों के द्वारा पाले जाते हैं। इन पदों की योग्यता के प्रति प्रबन्धन का उदासीन होना, बहुत सारे प्रश्नों को जन्म देता है। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!

-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA.

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