
बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता…. जैसा कि समाचार पत्रों में खबर है कि वर्ष 2026 तक वितरण कम्पनियों का निजीकरण नहीं हो सकता। तो अनायास, बस एक बात ही मुख से निकलती है, कि लूटने का एक वर्ष और मिला। स्पष्ट है कि वितरण निगमों का जहाज पिछले 25 वर्षों से लगातार डूब रहा है, जब-जब बिकने की आवाज उठती है, तो त्राहिमाम-त्राहिमाम का शोर सुनाई देने लगता है। परन्तु आज तक जहाज को डूबने से बचाने के लिये कहीं दूर-दूर तक भी, कभी कोई चर्चा तक सुनाई नही पड़ी है। यदि विश्लेषण करें तो ज्ञात होगा कि जहाज पर नीचे से ऊपर तक कार्यरत् अधिकांश लोग सिर्फ घुन का ही रुप हैं।
बिकने की चर्चा मात्र सुनते ही त्राहिमाम त्राहिमाम करने लगते हैं और चर्चा शान्त होते ही पुनः पूर्ववत् अपने काम में लग जाते हैं। आज एक बार फिर से बिकने की चर्चाओं के बीच हल्का-फुल्का त्राहिमाम-त्राहिमाम का शोर है। परन्तु डूबने से बचाने की दूर-दूर तक भी कहीं कोई आवाज तक नहीं है। जो हल्का-फुल्का त्राहिमाम-त्राहिमाम का शोर है, वह भी उनके द्वारा किया जा रहा है। जो अपनी तैनाती के समय, इस जहाज की तली में छेद करने के लिये कहीं न कहीं उत्तरदायी हैं तथा अपना हिसाब किताब लेकर ससम्मान बहुत पहले, जहाज से विदा हो चुके हैं। जिनके प्रत्यक्ष हितों पर इसके डूबने का कोई प्रभाव पड़ने वाला ही नहीं है। परन्तु सम्भवतः इनके अप्रत्यक्ष व्यवसायिक हित इन्हें विचलित कर रहे हैं और ये चारों ओर भंवरों की तरह मण्डरा रहे हैं। उक्त त्राहिमाम-त्राहिमाम का हल्का-हल्का सा शोर करने वाले बाहरी लोगों के बीच, सिर्फ एक अकेला नियमित युवा अधिकारी खड़ा दिखलाई देता है। जिसने अपने छोटे से कार्यकाल में खोया ही खोया है।
पिछले 25 वर्षों से निजीकरण के नाम पर कार्मिक नेताओं के बड़े बड़े भाषण सुनते आ रहे हैं। परन्तु डूबते जहाज को बचाने के नाम पर कभी कोई चर्चा नहीं करता कि लगातार डूबता जहाज घाटे से उबरकर अपने पैरों पर कैसे खड़ा होगा। विभाग को बचाने के लिए जिस ईमानदारी और निष्ठा की आवश्यकता है उसकी कोई बात ही नहीं करता। यहां तक की दूसरों को प्रेरित करने के लिये, अपनी निष्ठा एवं ईमानदारी के एक झूठा किस्सा भी सुनाकर लोगों को प्रेरित करने का कोई प्रयास छोड़िये, कोई विचार तक नहीं करता। दुर्भाग्य से अधिकांश कार्मिक पदाधिकारी ही भ्रष्टाचार के मूल संवाहक (Carrier) हैं। वितरण निगमों में अधिकांश लोगों में अवर अभियन्ता, सहायक अभियन्ता एवं तदुपरान्त पदोन्नत्ति से प्राप्त पदों पर नियुक्ति के उपरान्त, आजतक भी अपने मूल पद तक के उत्तरदायित्वों का उचित ज्ञान नहीं है। कड़वी सच्चाई यही है कि लोग अपने कालेज की योग्यता के आधार पर विभाग में आते हैं और आते ही यहां गुरु-घंटालों की चौकड़ी (वरिष्ठ साथी, कार्मिक संगठनों के पदाधिकारी, ठेकेदार एवं उच्चाधिकारियों की टोली) उन्हें घेर लेती है। जो यह सुनिश्चित करती है कि चल रही भ्रष्टाचार की मजबूत प्रणाली में कोई विध्न उत्पन्न न हो। यदि कोई पैतृक अथवा अपने मन मस्तिष्क में किसी महापुरुष से प्रभावित होकर, ईमानदार एवं निष्ठावान होने का प्रयास करता है, तो उसे यह चौकड़ी मिलकर, फुटबाल की तरह इधर से उधर, फेंकना और फिंकवाना आरम्भ कर देती है।
अधिकारी के स्थानान्तरित होने के पश्चात, आने वाले नये अधिकारी का बड़े-बड़े बुकों एवं उपहारों के साथ स्वागत् एवं परिचय के बहाने, यह जताने का भरसक प्रयास किया जाता है कि वे उक्त कुर्सी के माध्यम से भ्रष्टाचार के होने वाले कार्यों के प्रति कितने समर्पित एवं निष्ठावान हैं। कार्यभार ग्रहण करने वाले नये अधिकारी के लिये भी, सामान्यतः कार्य का मतलब सिर्फ प्राप्ति की पुरानी दरें, पुर्ननिर्धारित करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता है। जीवन भर स्थानान्तरण एवं नियुक्ति की प्रतिस्पर्धा जीतने वाले भी, महाकुम्भ में नियुक्ति की निविदा की कठिनतम प्रतिस्पर्धा में सफल होने के लिये, न जाने क्या-क्या उपाय नहीं करते, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण होता है कुम्भ में नियुक्त ठेकेदारों का मत्, जिसके बिना सारे के सारे प्रयास धरे के धरे रह जाते हैं। इस विषय पर महाकुम्भ के समापन के बाद विस्तार से चर्चा करेंगे।
यदि हम सभी यह भी मान लें कि अगले 5 वर्षों तक निजीकरण नहीं होगा, तो भी किसी परिवर्तन की कोई सम्भावना दूर-दूर तक दिखलाई नहीं देती है। क्योंकि अधिकांश लोगों के पास आपस में चर्चा के लिये, कि क्षेत्र में कौन सा मलाईदार पद है, उस पर नियुक्ति कैसे होगी और यदि कहीं फंस गये तो उससे मुक्ति कैसे मिलेगी से अतिरिक्त कोई विषय होता ही नहीं है। क्षेत्र के इन्जीनियरिंग के सभी काम संविदाकर्मी एवं ठेकेदार करते हैं, कार्यालय के काम भी संविदाकर्मी एवं बाबू करते हैं। क्योंकि प्रचलित व्यवस्था के अनुसार इन्जीनियर साहब चमकते तौलिये से सजी कुर्सी पर बैठकर, मेज पर रखे चमकते सीसे पर रखे कागज पर विभागीय हित के आधार पर नहीं बल्कि निहित स्वार्थ में, गुण-दोष के आधार पर मात्र हस्ताक्षर करते हैं। प्रश्न उठता है कि जब अधिकांश प्रणाली डाल-डाल एवं पात-पात के आधार पर भ्रष्टाचार में डूबी हुई है। आज भी अधिकांश लोग, दोनों हाथों से डूबते हुये जहाज को लूटने का हर सम्भव प्रयास कर रहे हैं।
बेबाक सदा से यह कहता आया है कि एक अवसर और मिलेगा, परन्तु प्रश्न उठता है कि क्या उसमें सुधार का कोई पुट होगा या सिर्फ और सिर्फ लूट का ही बोलबाला होगा। क्योंकि जब तक कि ईमानदारी एवं निष्ठा का संकल्प नहीं लिया जायेगा, सुधार की कल्पना करना भी बेईमानी ही होगा। आईये आज एक Litmus Test करते हैं। क्या कार्मिक संगठनों के वयोवृद्ध नेतागण, महाकुम्भ में नियुक्त अपने सदस्यों को, मां गंगा का जल हाथ में लेकर, निष्ठा एवं ईमानदारी से कार्य करने का संकल्प दिलवा सकते हैं? यदि नहीं तो फिर ये सुधार का राग अलापना धोखे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। क्योंकि आज वही कटना प्रस्तावित है जो कल बोया था। यह कहना कदापि उचित न होगा कि जब जहाज पर सवार सभी भ्रष्ट हैं तो जहाज का डूब जाना ही बेहतर विकल्प है। क्योंकि इन भ्रष्टाचारियों को संरक्षण तो बाहर से ही प्राप्त होता है। यदि भ्रष्टाचार की उत्पत्ति को नियन्त्रित करना है तो बाहर से जुड़ी अवैध शाखाओं को काटना ही होगा।
अतः किसी उपाय के शेष रहते, जहाज को डुबोना/बेचना राष्ट्र को अतुलनीय क्षति पहुंचाने के एक और भ्रष्टाचार के समान होगा। बेबाक भंवरों की तरह, वितरण निगमों के चारों ओर मंडरा रहे लोगों से सादर अनुरोध करना चाहता है कि यदि वास्तव में नमक का कर्ज नाम की कोई चीज उनकी डिक्शनरी में है, तो कृपया निगमों के युवाओं को, इन्जीनियरिंग का न सही तो कम से कम कुछ ईमानदारी और निष्ठा का पाठ ही पढ़ा दीजिये। क्योंकि इस बुरे वक्त में ईमानदारी और निष्ठा के अतिरिक्त कुछ भी काम आने वाला नहीं है।
राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
बी0के0 शर्मा महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.