⚡ वर्टिकल व्यवस्थाः सुधार का ढोंग या स्वार्थ का खेल?

निगम के संरक्षण में ठेकेदारों की सत्ता, पत्रकारों से कराई जा रही चमकदार खबरें!

वर्टिकल व्यवस्था पर निगम का प्रचार झूठा — उपभोक्ताओं की नहीं, अफसरों-ठेकेदारों की सुविधा बढ़ेगी

लखनऊ। आगामी 1 नवंबर 2025 से लागू होने जा रही वर्टिकल व्यवस्था को लेकर मध्यांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड (MVVNL) और उससे जुड़े कुछ तथाकथित पत्रकारों ने जो “उपभोक्ता हित” का शोर मचाया है, वह सच्चाई नहीं, बल्कि निजी स्वार्थों की खूबसूरत पैकेजिंग है। लखनऊ में 1 नवंबर से लागू होने जा रही “वर्टिकल व्यवस्था” को लेकर निगम का जो चमकदार प्रचार किया जा रहा है, उसके पीछे की सच्चाई बिल्कुल अलग है।

हकीकत यह है कि यह व्यवस्था उपभोक्ताओं की नहीं, बल्कि निजी कंपनियों, ठेकेदारों, सलाहकारों और विभागीय परिजनों की जेबें भरने की नई रणनीति है।

🔹 निगम के दावे और जमीनी हकीकत में बड़ा फर्क

निगम का कहना है कि वर्टिकल व्यवस्था लागू होने से पारदर्शिता और त्वरित सेवा बढ़ेगी, लेकिन ज़मीनी स्तर पर हालात ठीक उलटे हैं —
मीटर लगाने से लेकर बिल संशोधन, वसूली, निरीक्षण और डाटा मेंटेनेंस तक का काम पहले से ही निजी कंपनियों के हाथ में है। इन कंपनियों में कई जगह विभाग के बड़े अधिकारियों के परिजनों की हिस्सेदारी होने की चर्चा लंबे समय से है।

अब वर्टिकल व्यवस्था लागू होने के बाद इन्हीं कंपनियों को अधिक अधिकार और नियंत्रण मिलने जा रहा है।अब जब “वर्टिकल” लागू होगा, तो इन्हीं कंपनियों को सरकारी संरक्षण के साथ और बड़ा दायरा मिल जाएगा। यानी “निजीकरण” नहीं, बल्कि छिपा हुआ ठेकेदारी साम्राज्य!

🔹 सरकारी अधिकारी बने दर्शक, ठेकेदार बना मालिक… प्राइवेट कंपनियों का राज कायम

आज स्थिति यह है कि यदि किसी उपभोक्ता का बिल गलत हो जाए तो नोडल अधिकारी को छोड़कर न तो अधिशासी अभियंता कुछ कर सकता है, न उपखंड अधिकारी। सारा नियंत्रण प्राइवेट सॉफ़्टवेयर सिस्टम और ठेकेदारों के हाथ में है, जब सरकारी अधिकारी के पास निर्णय की शक्ति नहीं, तो निगम का अस्तित्व किस लिए?
ऐसे में सवाल उठता है —
👉 अगर सरकारी अधिकारी बिल ठीक नहीं कर सकते,
👉 अगर निरीक्षण प्राइवेट एजेंसी करती है,
👉 अगर वसूली भी उन्हीं के हाथ में है,
तो निगम किस बात का सरकारी विभाग रह गया?

वर्टिकल व्यवस्था आने के बाद यही निर्भरता और बढ़ेगी —
अब ठेकेदारों की फाइलें ऊपर से “विभागीय मोहर” लेकर कानूनी वैधता पाएंगी।

🔹 संविदा कर्मियों की मौतों पर खामोशी, निगम के प्रचार पर खर्च करोड़ों

वर्टिकल व्यवस्था लागू होने के बाद सबसे बड़ा खतरा उन संविदा कर्मियों पर है जो वर्षों से एक ही क्षेत्र में काम कर रहे हैं। वे अपने इलाक़े की हर लाइन, हर ट्रांसफॉर्मर और हर खतरे की पहचान रखते हैं। अब वर्टिकल व्यवस्था में उन्हें नए क्षेत्रों में भेजा जाएगा —जहाँ न लाइन की जानकारी होगी, न सुरक्षा इंतज़ाम। बीते दो महीनों में 20 से अधिक संविदा कर्मी बिजली हादसों में अपनी जान गंवा चुके हैं।पिछले दो महीनों में 20 से अधिक संविदा कर्मियों की मौतें बिजली हादसों में हुईं। निगम प्रशासन ने न तो कोई जवाबदेही तय की, न किसी परिवार को मुआवज़ा दिया। लेकिन निगम अब उन्हीं संविदा कर्मियों को “वर्टिकल व्यवस्था” में ऐसे इलाक़ों में भेजेगा …

क्या वर्टिकल व्यवस्था में यह स्थिति और भयावह नहीं होगी? क्योंकि नए क्षेत्र, नई लाइनें और कम अनुभव का सीधा अर्थ है — नए हादसे। क्या यही सुधार है —
जहाँ जान देने वाला मजदूर बदल दिया जाता है, और सिस्टम वही रहता है जो मौतें पैदा करता है? निगम जवाब दे — कितनी मौतों पर उसका दिल दहला, और कितनी पर प्रेस विज्ञप्ति निकली?

🔹 ‘वर्टिकल सुधार’ का असली मतलब — सत्ता का खड़ा ढांचा ऊपर से नीचे तक

“वर्टिकल” शब्द सुनने में तकनीकी लगता है, पर असल में यह व्यवस्था ऊपर से नीचे तक नियंत्रण और कमीशन के प्रवाह को और मज़बूत करती है। हर ज़िम्मेदारी बांटी नहीं जा रही — बल्कि हर निर्णय केंद्रित किया जा रहा है, ताकि सवालों की दिशा एक ही दरवाज़े पर रुके। जनता पूछ नहीं पाए, कर्मचारी बोल न सके, और ठेकेदारों को जवाब न देना पड़े।

🔹 पत्रकारिता के नाम पर निगम की जनसंपर्क एजेंसी

बीते कुछ दिनों में अचानक कुछ पत्रकारों ने “वर्टिकल व्यवस्था उपभोक्ता हित में” जैसी खबरें चला दीं — वही पत्रकार जो निगम से विज्ञापन लेते हैं, वही जिन्हें हर प्रेस कॉन्फ़्रेंस में बुलाया जाता है और हर प्रेस नोट ज्यों का त्यों छापते हैं। जनता समझ रही है कि यह खबरें नहीं, बल्कि भुगतान आधारित प्रचार हैं। क्योंकि जो पत्रकार सवाल नहीं पूछता, वह रिपोर्टर नहीं, प्रवक्ता होता है।

🔹 निजी स्वार्थ का खेल — निगम समर्थक पत्रकारों की भूमिका संदिग्ध

उत्तर प्रदेश में आगामी 1 नवम्बर 2025 से लागू की जाने वाली वर्टिकल व्यवस्था को लेकर मध्यांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड (MVVNL) ने इसे “उपभोक्ता हित में सुधार” बताया है।अब सवाल यह भी है कि कुछ पत्रकार अचानक निगम के पक्ष में “प्रेस नोट पत्रकारिता” क्यों कर रहे हैं? क्या कारण है कि वे बिना जमीनी जांच के यह खबरें चला रहे हैं कि “वर्टिकल व्यवस्था उपभोक्ता हित में है”?

अब सवाल पत्रकारों पर भी है — जो बिना किसी जांच, बिना उपभोक्ता से बात किए, सिर्फ निगम की प्रेस विज्ञप्ति उठाकर “सुधार” का नारा लगा रहे हैं। ऐसी खबरें पत्रकारिता नहीं, निगम का जनसंपर्क अभियान हैं। जहां लागू हुई, वहां उपभोक्ता परेशान — फिर लखनऊ में जनता पर प्रयोग क्यों?** “जहां वर्टिकल पहले से लागू है, वहां क्या हाल है?” अगर नहीं पूछा — तो यह रिपोर्टिंग नहीं, बल्कि भ्रम फैलाने का हिस्सा है।जनता जानना चाहती है —

  • 👉 इन पत्रकारों के पास कौन से दस्तावेज हैं जिनसे साबित हो कि यह व्यवस्था निजीकरण नहीं है?
  • 👉 और यदि सब कुछ पारदर्शी है, तो निगम अपने ठेकेदारों और एजेंसियों की सूची सार्वजनिक क्यों नहीं करता?
  • 👉 क्या निगम ने उन राज्यों या क्षेत्रों से कोई रिपोर्ट ली जहां यह व्यवस्था पहले से लागू है?
  • 👉 क्या किसी उपभोक्ता, संविदा कर्मी या विभागीय कर्मचारी से इस प्रणाली की वास्तविक प्रतिक्रिया मांगी गई?

🔹 जहां “वर्टिकल” पहले से लागू — वहां उपभोक्ताओं की मुश्किलें बढ़ीं

जिन राज्यों या निगमों में “वर्टिकल व्यवस्था” पहले लागू हुई, वहां की वास्तविक स्थिति किसी से छिपी नहीं — शिकायत समाधान की गति धीमी, प्राइवेट एजेंसियों पर पूर्ण निर्भरता, मीटरिंग और बिलिंग में त्रुटियाँ, संविदा कर्मियों की असुरक्षा — इन सभी शिकायतों की रिपोर्ट पहले से दर्ज हैं।

निगम यदि सच में “पारदर्शी” है, तो उसे चाहिए कि उन इलाकों के उपभोक्ताओं की राय सार्वजनिक करे — कितने लोग संतुष्ट हुए और कितनों ने ठगा महसूस किया। क्योंकि बिना डेटा, बिना सर्वे, बिना समीक्षा — कोई सुधार सिर्फ दिखावा है।

🔹 निगम के दावे और जनता की ज़मीन पर दूरी बढ़ी

निगम दावा कर रहा है कि वर्टिकल सिस्टम से पारदर्शिता बढ़ेगी, पर हकीकत यह है कि पारदर्शिता की पहली सीढ़ी — यानी “जानकारी” — ही जनता से छिपाई जा रही है।
न तो किसी उपभोक्ता संगठन से राय ली गई, न कर्मचारियों की आपत्ति सुनी गई, और न ही पहले से लागू सिस्टम की समीक्षा साझा की गई।

तो फिर सवाल उठता है — जब जनता की राय ली ही नहीं गई, तो यह जनता के हित में कैसे हुआ?

🔹 UPPCL Media का सवाल निगम से —

“पत्रकारिता का पहला धर्म है — सत्य की खोज, न कि किसी विभाग के विज्ञापन की व्याख्या। जहां जनता की राय ही नहीं ली गई, वहां सुधार नहीं, साजिश लागू होती है।” काल्पनिक सुधारों का प्रचार बंद कीजिए, सच्चाई बताइए!

  • अगर वर्टिकल व्यवस्था वाकई सफल है, तो जिन जगहों पर पहले से लागू है, वहां के उपभोक्ताओं की संतुष्टि रिपोर्ट जारी कीजिए।
  • यदि यह व्यवस्था पारदर्शी है, तो ठेका कंपनियों और सॉफ़्टवेयर एजेंसियों के नाम सार्वजनिक कीजिए।
  • और यदि यह सच में उपभोक्ता हित में है, तो सुधार से पहले जनसुनवाई क्यों नहीं हुई?

🔹 उपभोक्ताओं की आवाज़ दबाने की कोशिश

वर्टिकल व्यवस्था का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि शिकायत प्रणाली को भले “तेज़” बताया जा रहा हो, पर असल में यह नियंत्रण तंत्र है — जहाँ हर शिकायत “एक लाइन” से गुजरती है, ताकि उसे चाहें तो दबाया जा सके, या चाहें तो दिखाया जा सके कि “सुधार हो गया।” उपभोक्ता की असली शक्ति — यानी विभागीय जवाबदेही — अब सिस्टम के कोड में छिपा दी जाएगी।

🔹 UPPCL मीडिया का रुख — सच्चाई छिपेगी नहीं

UPPCL मीडिया स्पष्ट कहना चाहता है —

“जो व्यवस्था पहले से ही प्राइवेट कंपनियों के कंधों पर टिकी है, उसे वर्टिकल कह देने से वह पारदर्शी नहीं बन जाती।” यह व्यवस्था उपभोक्ताओं के अधिकारों को कमजोर करती है, संविदा कर्मियों की सुरक्षा को खतरे में डालती है, और विभागीय अफसरशाही को ठेकेदारों के अधीन करती है।

🟥 अंतिम सवाल निगम से — अगर वर्टिकल जनता के हित में है तो पारदर्शिता से क्यों डर?

  • ठेका कंपनियों की सूची सार्वजनिक क्यों नहीं की जा रही?
  • मीटरिंग और बिलिंग ठेकों में किसके परिजनों की हिस्सेदारी है?
  • संविदा कर्मियों की मौतों की रिपोर्ट कब सार्वजनिक होगी?
  • और अगर सब कुछ उपभोक्ता हित में है — तो फिर इतने प्रचार अभियान की जरूरत क्यों?
  • UPPCL MEDIA

    "यूपीपीसीएल मीडिया" ऊर्जा से संबंधित एक समाचार मंच है, जो विद्युत तंत्र और बिजली आपूर्ति से जुड़ी खबरों, शिकायतों और मुद्दों को खबरों का रूप देकर बिजली अधिकारीयों तक तक पहुंचाने का काम करता है। यह मंच मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश में बिजली निगमों की गतिविधियों, नीतियों, और उपभोक्ताओं की समस्याओं पर केंद्रित है।यह आवाज प्लस द्वारा संचालित एक स्वतंत्र मंच है और यूपीपीसीएल का आधिकारिक हिस्सा नहीं है।

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