
मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता। यह मांग कि उ0प्र0 की विद्युत वितरण कम्पनियों अर्थात सार्वजनिक उद्योगों का निजीकरण नहीं होना चाहिये, के सम्बन्ध में अब तक आपने पढ़ा कि…
निजीकरण क्यों नहीं होना चाहिये?
निजीकरण का लाभ किसको प्राप्त होने वाला है?
प्रबन्धन की कार्यशैली
विदित हो कि जिस प्रकार से राष्ट्र की सफलता के लिये योग्य नेता एवं योग्य मन्त्री मण्डल की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार से किसी भी उद्योग के लिये योग्य प्रबन्धन एवं योग्य निदेशक मण्डल की आवश्यकता होती है। उद्योग का नेत्रत्व प्रबन्धन करता है, जोकि उद्योग एवं उसके ग्राहकों की आवश्यकताओं के अनुसार नीतियों को निर्धारित करते हुये, उसके उचित संचालन हेतु आवश्यक धन का इन्तजाम कर, उपलब्ध कार्मिक योग्यता के माध्यम से उद्योग का संचालन करता है। एक सफल नेत्रत्व के लिये, नैसर्गिक प्रतिभा के रुप में ईमानदारी, निष्ठा एवं समर्पण आवश्यक है। नेत्रत्व के लिये यह अनिवार्य है कि वह प्रेरक की भूमिका के रुप में कार्य करे। जिसके लिये सम्बन्धित क्षेत्र का अनुभव आवश्यक है। नेत्रत्व के लिये यदि वर्जित है तो वह है उसका अहंकार। क्योंकि अहंकार, निष्ठा एवं समर्पण की भावनाओं को कुचलते हुये, मूल उद्देश्य की दिशा को ही परिवर्तित कर देता है।
जहां तक उ0प्र0 की वितरण कम्पनियों के प्रबन्धन की बात है, तो यह दुर्भाग्य है कि उन्हें एक समर्पित एवं निष्ठावान प्रबन्धन के स्थान पर, राजनीतिक प्रबन्धन प्राप्त हुआ। जिसका उद्देश्य उद्योग चलाने से ज्यादा राजनीतिक हितों को साधना अर्थात उनका उपकार उतारना रहा है। सुधार के नाम पर आये दिन हजारों करोड़ की कार्य योजनाओं की आड़ में, पूंजीपतियों को रोजगार प्रदान करना रहा है। परन्तु वास्तविक रुप से उद्योग की मूलभूत आवश्यकताओं से कभी किसी को, कोई सरोकार नहीं रहा।
दुखद यह रहा है कि प्रबन्धन ऊर्जा उद्योग में उपलब्ध कार्मिक योग्यता का उचित उपयोग करने के स्थान पर, उसे निहित स्वार्थ की राह का कांटा मानते हुये, कुचलने में ही लगा हुआ है। जिसके कारण ऊर्जा कम्पनियों की आधारभूत व्यवस्था ही क्षत-विक्षत हो गई है। जिसकी शुरुआत लगभग 25 वर्ष पूर्व तत्कालीन उ0प्र0 राज्य विद्युत परिषद के विघटन के उपरान्त, गठित निगमों के संचालन हेतु शासन द्वारा घोषित “MoA” को दरकिनार करने से हुई। जोकि आज तक अनवरत जारी है। जिसमें समय-समय पर अपनी-अपनी राजनीतिक पहुंच की बदौलत प्रबन्ध निदेशक एवं अध्यक्ष नियुक्त होते रहे हैं। जिन्होंने वितरण कम्पनियों के उचित संचालन के विपरीत, निहित स्वार्थ में अनावश्यक गुणवत्ताविहीन कार्यों एवं उनके लिये सामग्री पर धन का अपव्यय किया है। जबकि ऊर्जा उद्योग मूलतः तकनीकी उद्योग हैं, जिनका मूल आधार ही उच्च तकनीक एवं गुणवत्तायुक्त सामग्री के साथ-साथ गुणवत्तायुक्त कार्मिक है। उस पर उपरोक्त सिद्धान्त के विपरीत, योग्यता के नियमों को दरकिनार करते हुये बाहरी प्रबन्धन का नियुक्त किया जाना, दुर्भाग्यपूर्ण है। जिसका जीता जागता परिणाम है विगत 25 वर्षों में विद्युत वितरण कम्पनियों का 1.5 लाख करोड़ से भी अधिक के घाटे में डूब जाना।
नियम विरुद्ध नियुक्त ऊर्जा प्रबन्धन के अहंकार की ये परकाष्ठा है, कि जहां वितरण कम्पनियां पूर्णतः स्वतन्त्र हैं, उनके अधिकारियों को सिर्फ और सिर्फ अपने अहंकार की सन्तुष्टि एवं शक्ति प्रदर्शन के लिये, जनता के खर्चे पर बार-बार लखनऊ बैठकों में बुलाना। जबकि उन्हें आये-दिन होने वाली विभिन्न वीडिओ कान्फ्रेन्सिंग में डांटा-डपटा एवं निलम्बित तक किया जाता है। कहने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि सरकारी धन के अपव्यय रोकने के स्थान पर अपने अहंकार की सन्तुष्टि के लिये जानबूझकर क्षेत्र का कार्य प्रभावित करना ही नहीं है। बल्कि विभाग के प्रति समर्पित अधिकारियों का मनोबल तोड़ने के समान है। जो स्वतः इस बात का प्रमाण है कि दाल में कितना काला और दाल कितनी है। चूंकि प्रबन्धन में अधिकांश अधिकारी नियम विरुद्ध नियुक्त हैं। अतः कम्पनी की डाल-डाल में राजनीतिक हस्तक्षेप है। जिसका मूल उद्देश्य अपेने चहेतों अर्थात अपने हितों की रक्षा करना है। ऐसी कम्पनी जिसका प्रबंधन अन्य के अधीन हो, उसके भविष्य के बारे में आकलन करना कोई जटिल कार्य नहीं है। यह विडम्बना है ऊर्जा उद्योग की, कि एक ओर कार्मिक अपने परिवार के भरण-पोषण की लालच में आये दिन, प्रबन्धन एवं उनके अधिकारियों की भ्रष्टाचार से पीड़ित प्रणाली पर उपलब्ध जर्जर संसाधनों का जोड़-तोड़ कर प्रयोग कर, अपनी जान तक की परवाह न करते हुये, उपभोक्ताओं को यथा सम्भव सेवा प्रदान कर, नित्य नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर रहें हैं। विभागीय मन्त्री जी जनता के बीच जाकर इसका श्रेय लेने से भी नहीं चूक रहे हैं और भ्रष्टाचार से निजात दिलाने के नाम पर, उद्योग के निजीकरण के लाभ गिनवाने में लगे हुये हैं।
यह कहना कदापि अनुचित न होगा कि राजनीतिक एवं पूजीपतियों के उद्देश्यों की पूर्ति, अर्थात सेवा के विरुद्ध प्राप्त होने वाली ”टिप“ ही, आज ऊर्जा निगमों में नौकरी का मुख्य आकर्षण एवं उद्देश्य बनकर रह गया है। जिसके लिये पहले कार्मिकों को उद्योग के अन्दर ही, एक अन्य स्थानान्तरण एवं नियुक्ति उद्योग में, उचित निवेश के माध्यम से लाइसेंस प्राप्त करना होता है तथा वचनबद्ध होना पड़ता है कि वह राजनीतिक एवं पूजीपतियों के उद्देश्यों के मार्ग की कभी भी बाधा नहीं बनेगा, अन्यथा उसका लाइसेंस निरस्त कर दिया जायेगा। आज प्रबन्धन द्वारा मानवता एवं नैतिकता का पूर्णतः त्याग करते हुये, राजनीतिक एवं पूजीपतियों के उद्देश्य पूर्ति की आड़ में, निहित स्वार्थ की पूर्ति हेतु, हठी तानाशाही का रुप अख्तियार कर लिया है। जहां पर प्रबन्धन को ऐसे ज्ञान एवं योग्यता से चिढ़ है, जो उसे चुनौती का अहसास तक दिलाता हो। बेबाक को यह कहने में कदापि संकोच नहीं है कि ऊर्जा उद्योग मूलतः राजनीतिज्ञों एवं पूजीपतियों की सीधे-सीधे ऊर्जा प्रबन्धन में घुसपैठ से पीड़ित है।
भ्रष्टाचार से मुक्ति पाने के सभी प्रयास, दिखावे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। जिसको तब तक दूर करना सम्भव नहीं है। जब तक कि ऊर्जा निगमों के संचालन हेतु जारी “MoA” को दरकिनार कर राजनीतिज्ञों एवं पूजीपतियों के आशीर्वाद से सीधे प्रबन्धन में कर्तव्यनिष्ठा एवं नैतिकता के स्थान पर, सिर्फ अहंकार युक्त गैर-जिम्मेदार नियुक्तियां होती रहेंगी। जोकि एक नीतिगत् भ्रष्टाचार का जीता जागता उदाहरण है। इसमें कोई संशय नहीं है कि आज भी योग्य प्रबन्धन की नियुक्ति के माध्यम से इस बीमार उद्योग को लाभ के मार्ग पर लाया जा सकता है। विदित हो कि बीमारी सबको दिखलाई दे रही है परन्तु निहित स्वार्थ ने सबके हाथ-पैर जकड़े हुये हैं। क्रमशः…. ईश्वर सबकी मदद करे! राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.