
मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता। यह मांग जायज है कि उ0प्र0 की विद्युत वितरण कम्पनियों अर्थात सार्वजनिक उद्योगों का निजीकरण नहीं होना चाहिये। उपरोक्त के सम्बन्ध में चार प्रश्न उठते हैंः-
- निजीकरण क्यों नहीं होना चाहिये?
- निजीकरण का लाभ किसको प्राप्त होने वाला है?
- प्रबन्धन की कार्यशैली
- इसे रोकेगा कौन?
निजीकरण क्यों नहीं होना चाहियेः-
क्योंकि देश के विकास अर्थात आम नागरिकों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिये, भोजन के समान ऊर्जा भी अनिवार्य है। बिजली-पानी आम नागरिकों की मूलभूत सुविधाओं का एक अनिवार्य अंग है। जिसे देश के सुखद एवं उज्ज्वल भविष्य के लिये, जन-कल्याण हेतु सरकार द्वारा बिना लाभ एवं हानि के चलाया जाता रहा है। अतः निजीकरण होने के उपरान्त जन-कल्याण पूर्णतः प्रभावित हो जायेगा।
भारतीय संविधान की एकसमानता की भावना का मूल उद्देश्य खंडित हो जायेगा। क्योंकि सुविधायें उसका मूल अधिकार न होकर, उसकी क्रय करने की क्षमता पर निर्भर करेगी। जिस निवेश एवं घाटे का बहाना लेकर, निजीकरण प्रस्तावित है, वह किसी भी सूरत में घटेगा नहीं, बल्कि और बढ़ जायेगा। क्योंकि निजीकरण के उपरान्त सरकार स्वयं एक उपभोक्ता बन जायेगी तथा निजी कम्पनियां जन कल्याण एवं प्रदेश में आये दिन होने वाले विभिन्न आयोजनों के नाम पर अपनी राजनीतिक पहुंच एवं चुनावी चंदे के आधार पर अनाप-शनाप धन वसूल करेंगी। भ्रष्टाचार एकीकृत हो जायेगा, अर्थात जनता के धन का बंदरबांट, निचले स्तर पर न होकर ऊपर के स्तर पर होगा।
जिससे यह स्पष्ट है कि निजीकरण से सरकार पर वित्तीय भार घटेगा नहीं बल्कि अप्रत्यक्ष रुप से बढ़ेगा। जिसके लक्षण स्पष्ट रूप से नजर आ रहे हैं। प्रदेश के ऊर्जामन्त्री एवं उ0प्र0पा0का0लि0 के अध्यक्ष नित्य बढ़ते हुये घाटे को रोक पाने में अपनी विफलता स्वीकार करने के स्थान पर, निजीकरण की वकालत करते हुये अपने ही कार्मिकों को निजीकरण के लाभ गिनवा रहे हैं। परन्तु वे यह नहीं बता रहे हैं, कि उनके द्वारा 25 वर्ष पूर्व गठित वितरण कम्पनियों के संचालन हेतु, शासन द्वारा जारी MoA का पालन आजतक क्यों नहीं किया गया?
क्या घाटे का मूल कारण ही MoA को दरकिनार कर, निदेशक मण्डल को अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु, कठपुतली बनाकर, अन्दर खाने राजनीतिक हस्तक्षेप एवं निजी कम्पनियों के प्रभुत्व के अनुसार वितरण कम्पनियों को निजी उद्योग के समान चलाना था? जिसके कारण पूरे प्रदेश में कार्य एवं सामग्री की गुणवत्ता में भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार परिलक्षित हो रहा है। आये दिन कहीं न कहीं मानवता को शर्मशार करने वाली, लाईन पर कार्य करने वाले युवा कार्मिकों की विचलित करने वाली भयावह एवं हृदयविदारक तस्वीरें नजर आती रहती हैं। जिनके खून के छींटें, झूठी उपलब्धियां गिनाने वालों के चेहरे एवं कपड़ों तक पर स्पष्ट रुप से दिखलाई देते रहते हैं। बेबाक का स्पष्ट रुप से यह मानना है कि यदि MoA लागू किया गया होता, तो कहीं न कहीं प्रबन्धन के भी उत्तरदायित्व निर्धारित होते तथा स्थिति इतनी भयावह नहीं होती। हमने निहित स्वार्थ में मानवता को इतना रक्त रंजित कर दिया है, कि हजार बार कुम्भ स्नान के बाद भी, मानव हत्या में सम्मिलित होने के पाप से मुक्ति सम्भव नहीं है। प्रश्न उठता है कि क्या यही कारण है कि खून के धब्बों को छिपाने के लिये, आये दिन भीषण गर्मी में भी सदरी पहनना एक मजबूरी बन गया है।
यक्ष प्रश्न उठता है कि क्या निजीकरण एक नीतिगत् भ्रष्टाचार का अंग तो नहीं है? जिसका बीज लगभग 25 वर्ष पहले बोया गया था और आज उसकी जड़ें पूरे उद्योग को लीलने जा रही हैं। क्या निजीकरण का मूल उद्देश्य, एक सोची-समझी साजिश के तहत, प्रदेश की विद्युत वितरण कम्पनियों को कृतिम रुप से बीमार घोषित करने हेतु, लगभग 1.5 लाख करोड़ के घाटे में डुबोने वाले कतिपय प्रबन्धन एवं राजनीतिक गठबन्धन के कृत्यों पर पर्दा डालना नहीं है? लोकतन्त्र में लगभग 1.5 लाख करोड़ के घाटे की चर्चा के विपरीत, विभागीय मन्त्री एवं ऊर्जा प्रबन्धन के लिये नियुक्त प्रशासनिक अधिकारी, जोकि स्वयं सरकारी सेवक हैं, के द्वारा निजीकम्पनियों के प्रतिनिधि के रुप में निजीकरण के लाभ गिनाना, निश्चित ही घोर आश्चर्यजनक है।
विदित हो कि अब निजी कम्पनियों के द्वारा सेवाभाव के स्थान पर, व्यापार का मतलब सिर्फ और सिर्फ लाभ कमाना मानते हुये, अपनी व्यापारिक नीति में शाम-दाम, दण्ड, भेद को प्रमुखता से सम्मिलित करते हुये, प्रबन्धन एवं अपने राजननीतिक प्रभावों के माध्यम से, अपने उद्देश्यों की प्राप्ति सुगमता पूर्वक की जा रही है। जिसके पहले चरण में अवरोधों का स्थानान्तरण एवं निलम्बन है। क्योंकि यह कटु सत्य है कि ऊर्जा निगमों में स्थानान्तरणों का ”योग्यता की उपयोगिता“ के सिद्धान्त से कोई लेना देना नहीं होता है। यहां अयोग्य कार्यालय से सम्बद्ध होते हैं और अयोग्य अतिरिक्त उच्च पद के कार्यभार के साथ दबंगई कर रहे होते हैं। अतः माननीय प्रधानमन्त्री जी एवं उ0प्र0 के मुख्यमन्त्री जी से जनहित में सादर विनम्र अनुरोध है कि लगभग 1.5 लाख करोड़ के घाटे एवं परिणाम स्वरुप आये दिन घटित होने वाली हृदय विदारक घातक दुर्घटनाओं की जांच अवश्य होनी चाहिये। कि आखिर शासन द्वारा जारी MoA के अनुसार प्रदेश की विद्युत वितरण कम्पनियों का आज तक संचालन क्यों नहीं किया गया? तब तक जनहित में प्रदेश की वितरण कम्पनियों का निजीकरण रोकने की कृपा करें। क्रमशः….. ईश्वर हम सबकी मदद करे!
राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द! बी0के0 शर्मा महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.