
मित्रों नमस्कार! आजकल दिल्ली में एक न्यायाधीश महोदय के घर लगी आग की चर्चा जारों पर है, जिसके कारण माननीय न्यायाधीश का पूरा का पूरा मेकअप धुल गया है। यक्ष प्रश्न उठता है कि विधायिका एवं कार्यपालिका में ऐसे कितने लोग हैं, जिनके घर यदि आग की एक चिन्गारी भी पहुंच जाये, तो शायद उनका मेकअप एक पल के लिये भी ठहर नहीं पायेगा। जिसको कायम रखने के लिये सार्वजनिक उद्योग एवं उपक्रम रात दिन वातानूकूलन चलाने का खर्चा उठाते-उठाते, खुद गर्म होकर, पिघल कर मिट्टी में मिलने के कगार पर पहुंच चुके हैं।
इन वातानुकूलन के लिये ऊर्जा देने वाले ऊर्जा निगमों की वित्तीय स्थिति लगातार चिन्ताजनक बनी हुई है। जिसके लिये, कभी किसी योजना तो कभी किसी योजना के तहत, सरकार ऊर्जा निगमों को तेल उपलब्ध कराती ही रहती है। परन्तु तब भी आये दिन ऊर्जा निगम शोर मचाते रहते हैं। क्योंकि जो ऊर्जा निगम प्रबन्धन लगातार दूसरों के मेकअप बचाये रखने के लिये कृतसंकल्प दिखलाई देता है, उसे भी रात दिन अपना मेकअप बचाये रखने की चिंता खाती रहती है। स्पष्ट है कि सारा का सारा खेल ही मेकअप का है। जिसको लगाकर कुर्सी पर बैठकर एक कड़क अधिकारी होने का भरपूर नाटक खेला जाता है। कड़क बने रहना भी प्रबन्धन की मजबूरी है। क्योंकि उन्हें भी रात-दिन ऊपर से गर्म किया जाता है, जिसके कारण, उनके मेकअप को खतरा उत्पन्न हो जाता है। जिसे बचाने के लिये अर्थात ऊपर से प्राप्त गर्मी को स्थान्तरित करना अनिवार्य हो जाता है। परिणामतः वे घण्टों लम्बी-लम्बी मैराथन बैठकें कर, अपनी गर्मी दूसरों पर निकालते हुये, दूसरों का मेकअप उतारकर, अपना मेकअप बचाने का प्रयास करते नजर आते हैं।
अतः यह पहचानना नामुमकिन सा है कि निगमों का प्रबन्धन एवं कार्मिक, किसी रंगमंच के मझे हुये कलाकार हैं अथवा जनता के सेवक। क्योंकि दोनों ही मौकों पर ये जबरदस्त प्रदर्शन करते हैं। प्रश्न उठता है कि ”खुदा न खास्ता“ यदि कभी कोई आग की चिन्गारी, इन कलाकारों के घर पर गिर गई तो क्या होगा? स्पष्ट है कि जज साहब तो सार्वजनिक क्षेत्र का चेहरा नहीं थे, परन्तु यहां तो सभी सार्वजनिक क्षेत्र का चेहरा ही नहीं अपितु एक दूसरे से, कुछ इस तरह से जुड़े हुये हैं कि न तो किसी का घर बचेगा और न ही मेकअप। यदि किसी एक का भी मेकअप उतरा, तो फिर अन्य का मेकअप बचाना दुष्कर होगा। जिसके बाद जो वीभत्स चेहरे निकलकर बाहर आयेंगे, तो उनसे उठने वाले तुफान को शायद स्वयं ईश्वर भी नहीं सम्भाल पायेंगे। इसलिये चिन्गारी छोड़ यदि कोई आग का गोला भी आकर गिर जाये तो भी कुछ नहीं होगा। ये सभी मिलकर उसे भी कुछ न कुछ देकर वापस जाने के लिये मना ही लेंगे। जिस प्रकार से जंगल में शेर को नित्य खाने के लिये जानवर चाहिये होते हैं, ठीक उसी प्रकार से पारदर्शिता के नाटक को वास्तविकता प्रदान करने के लिये आये दिन कभी कोई संविदाकर्मी, तो कभी अभियन्ता को कुछ हजारो की रिश्वत लेते रंगे हाथ पकड़वाकर, रामराज्य आने की आहट उत्पन्न की जाती रहती है। जबकि यह रिश्वत भी प्रबन्धन द्वारा चलाये जा रहे स्थानान्तरण, नियुक्ति एवं बहाली के उद्योग के माध्यम से उन्हीं के पास वापस आ जाती है। यदि रिश्वत का हम विश्लेषण करें तो पायेंगे कि रिश्वत दो प्रकार की होती है एक जिसे टिप के नाम से सार्वजनिक मान्यता प्राप्त है। जोकि लेने वाले से भी कहीं ज्यादा देने वाले के लिये महत्वपूर्ण है। क्योंकि आज के तथाकथित उन्नत समाज में अपने स्टैटस का प्रदर्शन करने के लिये मोटी टिप देना अनिवार्य है। अन्यथा समाज ही नहीं बल्कि टिप लेने वाला भी बड़ी चुभती हुयी हेय दृष्टि से देखता है। जिसके कारण चेहरे का मेकअप उतरने का खतरा उत्पन्न हो जाता है।
दूसरी रिश्वत वह है, जहां बिना कार्य किये अथवा कार्य की गुणवत्ता से समझौता करने के बदले रिश्वत ली जाती है। जिसके फलस्वरुप घटिया निर्माण सामग्री से निर्मित भवन, पुल, सड़क एवं ऊर्जा निगमों में आये दिन, घातक दुर्घटनायें घटती रहती है। जिनको दबाने के लिये भी रिश्वत दी जाती है। उपरोक्त दोनों ही रिश्वतों में मूल अन्तर यह होता है कि एक (टिप) के कारण किसी भी संस्थान को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। जैसे होटल में ली जानी वाली टिप के आधार पर होटल की प्रतिष्ठा का आकलन किया जा सकता है। परन्तु उस टिप के कारण होटल कभी घाटे की ओर अग्रसरित नहीं होता। परन्तु दूसरी रिश्वत में, टिप के बदले फ्री में खाना खिलाकर, होटल को कंगाल करना है। ऊर्जा निगमों में भी दोनों ही प्रकार की रिश्वत का प्रचलन है।
एक वह जो क्षेत्र में नियुक्त अधिकारी एवं कर्मचारी सेवा प्रदान करने के बदले प्राप्त करते हैं, जिससे विभाग को घाटा नही होता। वहीं दूसरी ओर कार्यालयों एवं होटलों में बैठकर निविदाओं पर मोटी-मोटी रकम वसूलकर अनुबंध करने एवं बिना कार्य अथवा अधूरा गुणवत्ताहीन कार्य कराकर एवं गुणवत्ताहीन सामग्री क्रय करके ऊर्जा निगमों को गर्त में धकेला जा रहा है। जिसकी चेन इतनी मजबूत है कि उससे टकराने का मतलब खुद फुटबाल बन जाना अथवा त्रिशंकु बनकर ताउम्र जांच प्रक्रिया में ही उलझे रहना है। दूसरी रिश्वत में रंगे हाथ पकड़े जाने की सम्भावना नगण्य होती है। क्योंकि इसका आदान-प्रदान दो मोटे मेकअप युक्त सभ्रान्त एवं प्रतिष्ठित लोगों (जोकि टिप ले देकर ही इस ऊंचाई तक पहुंचे हैं) के बीच होता है। जहां कुछ लाख से लेकर करोड़ों तक का आदान-प्रदान होता है। जिसे आपसी सामन्जस्य के माध्यम से कई गुना लाभ में परिवर्तित कर लिया जाता है।
यही कारण है कि आज सार्वजनिक उद्योगों के जनसेवा के मूल कार्य की आड़ में, राजनीतिज्ञ एवं प्रबन्धन का गठजोड़, उद्योग और उनके कार्मिकों का दोहन कर, कतिपय सभ्रान्त पूंजीपतियों को रोजगार देने में लगे हुये हैं। स्पष्ट है कि ऊर्जा निगम भ्रष्टाचार की कुछ इतनी मजबूत चेन में जकड़े हुये हैं कि जिससे निकल पाना ही लगभग नामुकिन प्रतीत होता है। आज निजीकरण के विरोध का जो नाटक चल रहा है, उसमें अधिकांश वे ही लोग हैं, जिन्होंने कभी पद पर रहते हुये इस भ्रष्टाचार की चेन को स्थापित किया था। जोकि धीरे-धीरे आज इतनी मजबूत हो चुकी है कि अब निजीकरण का औपचारिक विरोध करने के नाम पर पंचायत करने के लिये भी नियमित कार्मिक नहीं मिल पा रहे हैं। कारण स्पष्ट है कि कोई भी नियमित अधिकारी अथवा कर्मचारी यह नहीं चाहता कि उसका मेकअप उतरे और उसे फुटबाल बना दिया जाये। अतः यह स्पष्ट है कि जबतक नियमित कार्मिक अपने मेकअप एवं फुटबाल बनने के भय का त्याग नहीं करेगा। ये बाहरी लोग निजीकरण के विरोध के नाम पर, अन्दर ही अन्दर वितरण कम्पनियों को और तेजी से निजीकरण की ओर धकेलते रहेंगे। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.