
मित्रों नमस्कार! जिस प्रकार से हमारे धार्मिक स्थान हम सभी के लिये महत्वपूर्ण हैं, ठीक उसी प्रकार से आजादी के बाद जिन सार्वजनिक उद्योगों ने देश की स्थापना एवं विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हुये, हमें विश्व में पहचान दिलायी, हम सभी के लिये पूज्यनीय एवं ऐतिहासिक धरोहर हैं। परन्तु दुखद है कि हमीं ने अपनी ऐतिहासिक धरोहरों को अपने निहित स्वार्थ सिद्धि के नाम पर खोखला करके रख दिया है।
अब प्रश्न उठता है कि जब न तो उपभोक्ता, न ही कार्मिक और न ही नियोक्ता ईमानदार है, तो इन ऐतिहासिक धरोहर अर्थात संस्थानों को सम्भालेगा कौन और किस प्रकार से ये चलेंगे। उपरोक्त के साथ-साथ एक प्रश्न और उठता है, कि उपरोक्त तीनों के ईमानदार न होने के पीछे उत्तरदायी कौन है? विधायिका या कार्यपालिका या दोनों? प्रदेश के एक मन्त्री जी का यह बयान कि वे दारोगाओं अर्थात सरकारी कार्मिकों के कई बार हाथ-पैर तुड़वाकर, यहां तक पहुंचे हैं।
बेबाक के उस कथन को प्रमाणित करता है, कि आजादी के बाद देश के नवनिर्माण में 584 रियासतों के विलय के बदले, कुल 5331 सरकारी VIPs बने थे। जोकि अपने आपको किसी राजा से कम नहीं समझते हैं। यह दर्शाता है कि देश के प्रत्येक नागरिक से भारतीय संविधान के अनुरुप आचरण करने की अपेक्षा करने वाले इन स्वघोषित राजाओं/माननीयों के दिलों में भारतीय संविधान के प्रति कितना सम्मान है। सार्वजनिक उद्योगों एवं संस्थाओं के डूबने में इन राजाओं का बहुत बड़ा योगदान है। जिसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी स्वीकारा जा चुका है।
ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जहां तथाकथित राजाओं के सम्मान को ठेस पहुंची नहीं कि ईमानादार एवं निष्ठावान अधिकारियों एवं कर्मचारियों को उसका दण्ड भुगतना पड़ा है। जोकि विभाग, प्रदेश एवं देश के लिये दुर्भाग्यपूर्ण है। क्योंकि विभाग के प्रति निष्ठावान एवं ईमानदार होने के परिणाम स्वरुप सार्वजनिक रुप से दण्डित एवं अपमानित होने के कारण, आज अधिकांश कार्मिकों ने अपनी निष्ठा एवं ईमानदारी उतारकर घर पर टांग दी है अथवा कहीं नदी में बहाकर, चापलूसी का चोला धारण कर लिया। जिसमें जी साहब के अतिरिक्त मुख से अन्य कोई शब्द निकलता ही नहीं है। वैसे भी ऊर्जा निगमों का औद्योगिक वातावरण कुछ इस प्रकार का है, जहां ज्ञान एवं अनुभव की अपेक्षा पद सर्वोच्च है। चाहे उच्च पद किसी भी तरह से हासिल किया गया हो।
यही कारण है कि आज सरकारी संस्थानों में पद का, योग्यता से कोई भी सम्बन्ध नहीं रह गया है। अयोग्य कार्मिक धन एवं बल के द्वारा, उच्च पदों को क्रय करके कार्यवाहक अधिकारी बनकर, मुगल शासकों को भी पछाड़ने की महत्वकांक्षा एवं मानसिकता के साथ आचरण कर रहे हैं। जिसमें योग्यता विहीन अहंकार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। जहां उच्चाधिकारी ने जो कहा, वही सही है, उस पर टिप्पणी करना ही सबसे बड़ा गुनाह है। शायद पूरे विश्व में प्रदेश के ऊर्जा निगम ही एकमात्र संस्थान होंगे जहां योग्यता, अयोग्यता के हाथों बार-बार अपमानित होती है। क्योंकि प्रायः सरकारी विभागों में अयोग्यता अपने अवैध धन एवं बल के आधार पर पग-पग पर योग्यता को पछाड़ते हुये, बहुत तेजी से आगे बढ़ती है।
दो दिन पूर्व कभी पश्चिमांचल विद्युत वितरण निगम के प्रबन्ध निदेशक पद पर रहते हुये, बैठकों में बात-बात पर अभियन्ताओं को जलील करने वाले, एक दबंग प्रशासनिक अधिकारी भ्रष्टाचार के मामले में निलम्बित हुये हैं। जो ऊर्जा निगमों में नियुक्त प्रशासनिक अधिकारियों के एक दूसरे रुप एवं निगमों के घाटे की एक मूल कड़ी की ओर भी ईशारा करते हुये, कार्यपालिका की वर्तमान स्थिति को परिभाषित करती है। ठीक इसी प्रकार से उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के यहां करोड़ों रुपये नगद मिलने के बाद सिर्फ उनका स्थानान्तरण, न्यायपालिका की स्थिति को स्पष्ट करता है। इसी प्रकार से एक लाईनमैन के घर विजिलेंस के द्वारा छापा मारने की भी खबर चर्चा में है।
यक्ष प्रश्न उठता है कि जो विभाग एक लाख करोड़ से भी अधिक के घाटे में डूब चुका है, उसके किसी भी अधिकारी के यहां आज तक, किसी जांच एजेन्सी द्वारा छापा क्यों नहीं मारा गया? आजकल ऊर्जा निगमों में भोजनावकाश के दौरान, सेवानिवृत्त कार्मिकों के द्वारा, रंगारंग कार्यक्रम की प्रस्तुति की जा रही है। क्योंकि पहले वे वितरण कम्पनियों के निजीकरण हेतु ट्रांजैक्शन कंसल्टेंट की बिड खुलने न देने के लिये संकल्पबद्ध थे। परन्तु बिड खुलने के बाद पूरी प्रक्रिया को अवैधानिक बताते हुये Conflict of Interest की बात कर रहे हैं। जिससे ऐसा प्रतीत होता होता है कि यदि Conflict of Interest की आपत्ति दूर हो जाये, तो विभाग के स्वघोषित खैर-ख्वाह सेवानिवृत्त आन्दोलनकारियों को निजीकरण पर कोई आपत्ति नहीं होगी। जो बेबाक के उस कथन को प्रमाणित करता है, कि निजीकरण के विरुद्ध जारी आन्दोलन, कतिपय सेवानिवृत्त कार्मिकों के द्वारा एक प्रायोजित आन्दोलन अर्थात एक प्रायोजित नाटक के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इस आन्दोलन का मूल सार कुछ इस प्रकार से है जहां पर गली, स्कूल, कॉलेज आदि में कोई युवक, दूसरे से कहता है, कि अब की मारकर दिखला और मार खाता रहता है। परन्तु यहां पर शायद मार खाने की फीस प्राप्त होती है।
कटु सत्य यह है कि भोजनावकाश में चल रहे मनोरंजक नाटकों के बीच वितरण कम्पनियां तीव्रगति से से निजीकरण की ओर बढ़ रही हैं। नियमित कार्मिक, कतिपय भ्रष्ट प्रबन्धन एवं अतिरिक्त कार्यभार के पद पर आसीन अधिकारियों के साथ मिलकर, डूबते जहाज को लूटने में ही डूबा हुआ है। यही कारण है कि निजीकरण को लेकर, कहीं दूर-दूर तक किसी के भी चेहरे पर शिकन तक दिखलाई नहीं दे रही है। ऐसी विषम परिस्थिति में बस यही कहा जा सकता है कि निजीकरण रोकने का मतलब, विभागीय एवं गैर विभागीय लुटेरों को ऊर्जा निगमों को लूटने का और मौका देना है। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द! बी0के0 शर्मा महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.