
मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता … जो यह कहते नहीं थकते कि पिछले 70 सालों में हमने किया क्या है? न जाने कितनी सरकारें आयी और गयी। परन्तु हमने और हमारे पूर्ववर्तियों ने मिलकर, इन लाखों करोड़ के ऊर्जा उद्योग की स्थापना कर, देश की बुनियाद में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था, जिस पर आज एक दिन में 30 हजार मेगावाट (लगभग) की आपूर्ति का दावा करने के बाद, तथाकथित PPP Model के नाम पर बेचने का प्रयास किया जा रहा है। वैसे तो यह निजीकरण का फैसला अचानक नहीं है, इसके लिये तो लगभग 25 वर्ष पूर्व ही इसकी जड़ों में घुन पालने का काम शुरु हो गया था। जिसमें क्या प्रबन्धन और क्या कार्मिक, सभी ने एकजुट होकर एक लाख 10 हजार करोड़ से भी अधिक की सम्पत्ति चट कराने/करने का एक कीर्तिमान स्थापित किया है। उक्त घुनों के सम्भवतः कुछ पालक निजीकरण के विरुद्ध औपचारिक रुप से चल रहे ऐतिहासिक आन्दोलन में भी हो सकते हैं।
प्रचलित आन्दोलन ऐतिहासिक इसलिये है, कि इसकी अग्रणी पंक्ति में अधिकांश सेवानिवृत्त लोग ही नजर आ रहे हैं। जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि उ0प्र0पा0का0लि0 एवं उसके वितरण निगमों में अब युवाओं का अकाल पड़ चुका है। जहां तक निजीकरण के विरुद्ध सेवानिवृत्त लोगों की आन्दोलन में सहभागिता की बात है, तो इसको दो भागों में देखा जा सकता है। एक सेवानिवृत्त कार्मिक वो हैं जो अपनी मेहनत से खड़े हुये घरौंदे को लुटते हुये चुपचाप देख रहे हैं और दूसरे वो हैं जो लिख-पढ़कर, अपनी आवाज उठाकर, गहरी नींद में सोये हुये लोगों को जगाने का निरन्तर प्रयास कर रहे है। यदि अपने बनाये हुये घरौंदे को लुटते हुये चुपचाप देखने वालों की थोड़ी चर्चा करें, तो शायद यह स्पष्ट हो जायेगा, कि ये वो लोग हैं, जिनके ही कारण आज वितरण निगम निजीकरण के मुहाने पर खड़े हुये हैं। यह भी सम्भव है कि इन्हीं के बीच के कुछ लोग आन्दोलन का झण्डा लेकर, अन्दर खाने, घर के भेदी का रोल बखूबी निभाते हुये, निजीकरण कराने में बिचौलिये की भूमिका निभा रहे हों। आवश्यकता है इस बात पर विचार करने की, कि आखिर इतने बड़े आन्दोलन में, नियमित युवा कार्मिक खुलकर सामने क्यों नहीं आ रहा है? क्या उन्हें अन्दर खाने चल रहे निजीकरण के खेल की जानकारी मिल चुकी है? क्या सेवानिवृत्त कार्मिकों का कार्मिक संगठनों पर अवैध दबदबा, उन्हें आगे आने नहीं दे रहा है?
आखिर सेवानिवृत्त/बाहरी लोग किस नियम के आधार पर नियमित कार्मिकों के मुद्दों के आन्दोलन की अगुआई कर रहे हैं? आईये आज आपको एक कहानी सुनाता हूं। यह मुझे कक्षा 4 में हमारे अध्यापक, जोकि कक्षा में धोती कुर्ता पहनकर आते थे और जरा सी गलती पर, बच्चों की अच्छी तरह से धुनाई करते थे, उन्होंने सुनाई थीः- एक बालक पहली बार स्कूल गया, तो वह किसी बालक की कलम अपने थैले में रखकर घर ले आया, जहां उसकी मां ने उसे कुछ नहीं कहा। अगली बार वह किसी की किताब ले आया, मां ने कुछ नहीं कहा। इसी प्रकार से कभी किसी का लंच बाक्स, तो कभी कुछ, बालक घर लाता रहा और मां ने उसे कभी नहीं टोका। बड़ा होकर वह बालक चोर बन गया और मां उसको और चोरी करने के लिये उकसाती रही। धीरे-धीरे वह डकैत बन गया और लोगों को लूटकर, सामान घर लाने लगा। एक बार लूट के दौरान उससे एक हत्या हो गई और वह पकड़ा गया। मुकदमा चला और जज ने उसे मौत की सजा सुना दी। जिस दिन उसकी फांसी का समय आया, तो उसने आखिरी ईच्छा में, अपनी मां से मिलने की ईच्छा जाहिर की। उसकी मां रोते हुये उससे मिलने जेल में आई, तो बालक से बने डकैत ने अपनी मां को कान में कुछ कहने के लिये मां को अपने पास बुलाया और मां का कान पास आते ही, उसने अपनी मां का कान चबा डाला। मां लहुलुहान होकर दर्द के मारे चीखने चिल्लाने लगी। लोगों ने उक्त डकैत से इसका कारण पूछा, तो उसने बताया कि काश, जब मैंने स्कूल में पहली बार चोरी की थी, मेरी मां ने मुझे सजा दी होती, तो आज मैं फांसी की सजा न पाता।
कहने का तात्पर्य यह है कि पिछले 25 वर्षों से घाटे में विभाग सिर्फ इसलिये डूब रहा है कि वरिष्ठ साथियों ने, जो अब सेवा निवृत्त हो चुके हैं, यदि अपने युवा साथियों को भ्रष्टाचार के मार्ग पर जाने से रोका होता और उन्हें विभाग के प्रति निष्ठा का पाठ पढ़ाया होता, तो आज विभाग शान से लाभ में होता। परन्तु वरिष्ठ साथियों ने खाओ और खिलाओ तथा यदि कोई पकड़ा जाये तो खिलाकर छूटने के गुर बताये। स्थानान्तरण एवं मलाईदार पदों पर नियुक्ति पाने के हथकण्डे बताये। घर में बाहरी राजनीतिक लोगों को घुसने का रास्ता दिखलाया। इन्होंने ही मलाई खाने के लिये, अतिरिक्त कार्यभार ग्रहण करने के नुक्ते बताये। इन सेवानिवृत्त कार्मिक पदाधिकारियों के पास, वर्ष 2001 में तत्कालीन उ0प्र0रा0वि0प0 के विघटन तत्पश्चात ग्रेटर नोएडा एवं आगरा के निजीकरण का विशेष अनुभव है।
सम्भवतः इस बार भी निजीकरण कराने का ठेका इन्हीं के पास है। जिसमें कोई व्यवधान न हो, शायद इसीलिये आन्दोलन की बागडोर इन्होंने स्वयं अपने हाथों में ली हुई है। पता नहीं इस बार इन्होंने सभी युवाओं को कौन सी घुट्टी पिला दी है अथवा भयभीत कर दिया है कि वे सभी आगे आने से कतरा रहे हैं। परन्तु सत्य यह भी नहीं है जानकारी में आया है कि कुछ अधीक्षण अभियन्ता गण रात-दिन दोनों हाथों से जितना भी हो सकता है, लूटने में लगे हुये हैं। क्योंकि उन्हें लग रहा है कि अब जहाज तो डूब ही रहा है, अतः जितना हो सके लूट लो। कुल स्थिति यह है कि जब युवाओं को उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता थी तब उनको लूटना सिखाया गया और आज उन्हें लूट के नशे में डुबोकर खुद उनके भविष्य को भी डुबोने में लगे हुये हैं।
बेबाक का उन सभी सेवानिवृत्त लोगों से खुला सवाल है, जिन्होंने अपना सेवाकाल तो शान से पूरा किया। परन्तु सेवानिवृत्त होने के बाद भी कार्मिक संगठनों के पदों पर अपना प्रभाव कुछ इस प्रकार से बनाये रखा, कि किसी को भी स्वतन्त्र रुप से कभी भी कार्य करने ही नहीं दिया। प्रश्न उठता है कि इस आन्दोलन की अग्रिम पंक्ति में सेवानिवृत्त कार्मिकों के खड़े होने से, नियमित कार्मिकों को किस प्रकार से लाभ होगा? क्या प्रबन्धन भी यही चाहता है कि सेवानिवृत्त कार्मिक, अन्दोलन की बागडोर अपने हाथों में ही रखें, जिससे कि वह सुगमता से निर्बाध होकर अपना कार्य करता रहे। जहां तक Prebid की बात है, तो वह Online भी हो जायेगी और उसकी आवश्यकता भी क्या है जब सम्भवतः RFP, Bidders की सहमति से तैयार की गई हो।
बेबाक का स्पष्ट रुप से यह मानना है कि यदि नियमित कार्मिकों के किसी आन्दोलन का नेत्रत्व उसके सेवानिवृत्त कार्मिकों के द्वारा किया जाता है तो उसकी सफलता की सम्भावना शून्य से अधिक नहीं हो सकती। क्योंकि इस आन्दोलन में सेवानिवृत्त कार्मिकों के हित किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं होते हैं। अतः नियमित कार्मिकों के आन्दोलन में अग्रणी भूमिका में सेवानिवृत्त लोगों का आगे होना, स्वतः परिणाम बयां कर देता है। यदि वास्तव में वितरण कम्पनियों को बचाना है, तो नियमित कार्मिकों को एक संकल्प एवं अनुशासन के साथ आगे, आना ही होगा। अन्यथा परिणाम की चिन्ता छोड़ देनी चाहिये।
राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
- बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA.