
मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता…. पीपीपी मॉडल, अर्थात पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (Public & Private Partnership) जोकि सरकार और निजी क्षेत्र के बीच एक समझौता है। इस मॉडल में, सरकार और निजी कम्पनियां मिलकर किसी सार्वजनिक परियोजना या सेवा की योजना, निर्माण, और संचालन के लिए सहयोग करती हैं। इसका मुख्य उद्देश्य सरकारी संसाधनों की कमी को दूर करना और जनता को बेहतर सेवाएं प्रदान करना है। जिसके मुख्य पहलू हैंः साझेदारी, जहां सार्वजनिक और निजी क्षेत्र मिलकर काम करते हैं। जिसमें दोनों पक्ष जोखिम और लाभ आपस में साझा करते हैं। यह एक लंबी अवधि का समझौता होता है, जिसमें निजी क्षेत्र, परियोजना के निर्माण, संचालन और रखरखाव में योगदान करता है।
निजी क्षेत्र परियोजना के लिए वित्तीय संसाधन प्रदान करता है, जबकि सरकार नियामक और पर्यवेक्षी भूमिका निभाती है। निजी क्षेत्र की विशेषज्ञता और दक्षता का उपयोग किया जाता है, जिससे परियोजनाओं को बेहतर तरीके से पूरा किया जा सकता है। निजी क्षेत्र की विशेषज्ञता और दक्षता का लाभ जनता को बेहतर सेवाओं के रुप में प्राप्त होता है। उपरोक्त कथन कागजों पर बहुत अच्छा लगता है। प्रश्न उठता है कि क्या धरातल पर भी यह इतना ही सुखद होगा? क्योंकि 25 वर्ष पूर्व, जब तत्कालीन उ0प्र0रा0वि0प0 के विघटन के उपरान्त कम्पनियों का गठन हुआ था, तब भी इसी प्रकार से बड़े-बड़े वादे किये गये थे। परन्तु प्रदेश के साथ इससे बड़ा और कोई मजाक हो ही नहीं सकता, कि विघटन के उपरान्त गठित ऊर्जा निगमों के उचित संचालन हेतु जारी MoA का ही पालन आजतक नहीं किया गया। अर्थात जब कम्पनियों को चलाने के मूल सिद्धान्त का ही पालन नहीं किया गया, तो कम्पनियों के लाभ और घाटे की बात करना ही हास्यापद है। जोकि जनता के साथ एक धोखे के समान है।
स्पष्ट है कि पूंजीपति, जिनका एक ही सिद्धान्त होता है सत्ता पक्ष के साथ जुड़कर, अधिक से अधिक धन कमाना। इसीलिये वे आजादी से पूर्व भी सफल थे और आज भी सफल हैं। वैसे भी आज बिकने वालों की कोई कमी नहीं है। स्पष्ट है कि वितरण कम्पनियों के गठन के दौरान ही, ऊर्जा निगमों के निजीकरण की पटकथा लिख दी गई थी। जिसके तहत वितरण कम्पनियों के संचालन हेतु, शासन द्वारा जारी MoA को ही दरकिनार कर, मनमर्जी से गठित कम्पनियों को चलवाकर, बिना कोई उत्तरदायित्व निर्धारित किये, लगभग 1.5 लाख करोड़ के घाटे में डुबोकर, आज कम्पनियों को निजीकरण के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है। जिसके तहत, पूंजीपतियों के द्वारा अपने राजनीतिक प्रभाव एवं धन के माध्यम से, प्रबन्धन में घुसपैठ कर, समय-समय पर जन-कल्याण एवं उपभोक्ताओं की सुविधाओं के नाम पर हजारों करोड़ की विभिन्न विद्युतिकरण एवं सुदृढ़ीकरण की योजनाओं की घोषणा कराकर, प्रबन्धन एवं कतिपय अति महत्वकांक्षी अभियन्ताओं के माध्यम से, वितरण निगमों में गुणवत्ताहीन सामग्री की आपूर्ति करते हुये, गुणवत्ताहीन कार्य कराकर, जनता के धन का बन्दरबांट कर, विद्युत वितरण कम्पनियों को पूर्णतः बीमार घोषित करा दिया गया। यह सत्य है कि थोपे गये प्रबन्धन के द्वारा ऊर्जा उद्योग को कभी अपना माना ही नहीं गया। यदि किसी ने अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वों के पालन का प्रयास किया भी, तो ऊर्जा निगमों के ही कतिपय स्वघोषित भीष्म पितामाहों के द्वारा उन्हें अपने निहित स्वार्थ के रक्षार्थ सफल नहीं होने दिया गया। यही कारण है कि अधिकांश तथाकथित वायसरायों के द्वारा, पर्दे की आड़ में, कतिपय कार्मिक संगठनों के पदाधिकारियों के साथ जोड़-तोड़ कर, निहित स्वार्थ एवं अपने अहंकार की सन्तुष्टि का इसे प्रमुख स्थान बना डाला। जिसका परिणाम यह रहा कि जो लाभ ऊर्जा निगमों के खाते में जाना चाहिये था, वो कार्य एवं सामग्री की गुणवत्ता के सापेक्ष कमीशन के रुप में भ्रष्टाचार के खाते में चला गया। जिसका ज्ञान देश के पेशेवर उद्योगपतियों एवं पूंजीपतियों को बहुत बारीकी से है तथा उन्हें यह बखूबी पता है कि उपरोक्त कमीशन किस प्रकार से एवं किस अनुपात में कम करते ही, कृतिम रुप से बीमार घोषित ऊर्जा निगमों को लाभ में परिवर्तित किया जा सकता है।
निजी कम्पनियां यह बखूबी जानती हैं कि ”बिजली“ देश की बुनियादी सुविधाओं का एक महत्वपूर्ण अंग है। जोकि राजनीतिक दलों के वोट बैंक, अर्थात सत्ता पर काबिज होने का भी मूल आधार है। राजनीतिक दलों की बस यही कमजोरी, निजी कम्पनियों के व्यापक हितों को साधने की गारण्टी है। उपरोक्त कथित PPP Model में निजी कम्पनी एवं सरकार की भागीदारी का अनुपात 51 एवं 49 प्रतिशत होना है। जिसकी आड़ में दोनों ही पक्षों को अपने-अपने हित नजर आ रहे हैं। प्रस्तावित निजीकरण का लाभ उपभोक्ताओं को कितना होगा, यह तो समय बतायेगा। परन्तु यह निश्चित है कि निजी कम्पनियां जन-कल्याण के नाम पर, चुनावी चन्दों की आड़ में, अनाप-शनाप धन वसूलेंगी। एक ब्लैक लिस्टेड कम्पनी को सलाहकार के रुप में नियुक्त किये जाने से, यह तो स्पष्ट है कि कृतिम रुप से बीमार घोषित उद्योग का निजीकरण औने-पौने दामों में सम्भावित होगा। जिसकी आड़ में, वितरण कम्पनियों में खेले गये 1.5 लाख करोड़ के खेल पर चुपचाप पर्दा डाल दिया जायेगा। जिसके एवज में, तोहफों की बरसात होने से इन्कार नहीं किया जा सकता।
स्मरण रहे कि आजादी से पूर्व अंग्रेजों के द्वारा अपने सहयोगी पूंजीपतियों को “Sir” की उपाधियां दी जाती थी। तो आज अपने ही बाप दादाओं की मेहनत से स्थापित उद्योगों का निजीकरण कराने का श्रेय लेने की होड़ लगी हुई है। जिसका जीता-जागता प्रमाण है कि जिनका उत्तरदायित्व था, ऊर्जा निगमों को घाटे से उबारने का, आज वे ही निजीकरण के कसीदे पढ़ रहे हैं। जिसका खामियाजा निश्चित ही देश को भुगतना होगा। यदि वास्तव में ऊर्जा प्रबन्धन को कभी इन ऐतिहासिक सार्वजनिक उद्योगों एवं देश के भविष्य की चिन्ता होती, तो वे वर्तमान ऊर्जा उद्योगों के समानान्तर, निजी कम्पनियों को अपने अलग-अलग उद्योग स्थापित करने का दबाव बनवाकर, एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के माध्यम से, गुणवत्तायुक्त उत्पाद उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराने का प्रयास करते। निजी कम्पनियों के द्वारा, अपने अलग उद्योग स्थापित करने के स्थान पर, देश के ही ऐतिहासिक सार्वजनिक उद्योगों पर, अपने राजनीतिक गठजोड़ के माध्यम से, कब्जा जमाने की कुचेष्टा करना, निश्चित ही देश के लिये दुर्भाग्यपूर्ण है। क्रमशः….. ईश्वर हम सबकी मदद करे! राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
- बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.