आजादी के बाद देश को पहचान दिलाने वाले ऐतिहासिक उद्योगों (धरोहर) को पूंजीपतियों/उद्योगपतियों के विकास के लिये… बेचा जा रहा है औने-पौने दामों में

मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता। प्रत्येक देश में पूजीपतियों एवं उद्योगपतियों का एक वर्ग होता है, जो देश में आंधी-तुफान आये या भूचाल आये या अन्य कोई दैवीय-आपदा आये, उनके ऐशो-आराम पर कोई फर्क नहीं पड़ता। बल्कि आपदा इनके लिए अवसर होती है। इन्हें पता है कि इनके पास लक्ष्मी निवास करती है, जो चाहे देश का स्वतन्त्रता सेनानी हो अथवा देश की सीमाओं पर देश की रक्षा के लिये हंसते-हंसते अपने प्राण न्यौछावर करने वाला सैनिक, सब पर भारी है।

जब देश गुलाम था या आजादी के बाद सरकारें आती-जाती रही, इनके ऐशो-आराम पर कभी कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि इन्हें मां लक्ष्मी की कृपा से, दूसरों के ऐशो-आराम निर्धारित करने का आशीर्वाद जो प्राप्त है। ये वो नहीं हैं जब चीन के साथ 1962 की लड़ाई में दुनिया के सबसे बड़े कंजूस के नाम से जाने वाले हैदराबाद के निजाम ने 5000 किलो सोना भारताय सेना को देकर, अपने देश की मदद की थी।

देश में आज बीमार उद्योगों के घाटे को दूर करने के लिये मरीज को ही बेच देने का चलन चल रहा है… जबकि वास्तविकता यह है कि निजीकरण का, सार्वजनिक उद्योगों का घाटा कम करने से कुछ भी लेना देना नहीं है। बल्कि सत्ता में आने के बाद, राजनीतिक दलों के द्वारा, पूंजीपतियों एवं औद्योगिक घरानों से लिये जाने वाले, सैकड़ों करोड़ के चंदे पर साभार वापस दिये जाने वाला उपहार (Return Gift) मात्र है। चूंकि आज राजनीति में देश के स्वतन्त्रता संग्राम से जुड़ा कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं है अतः उन उद्यागों की अहमियत का उन्हें कोई अंदाजा ही नहीं है, जिन्होंने देश की स्थापना में आधारभूत सहयोग प्रदान करते हुये, स्वतन्त्र भारत को विश्व में एक अलग पहचान दिलाई। अतः पूंजीपतियों एवं उद्योगपतियों ये घराने, जिनका देश की आजादी में रत्ती-भर भी कोई योगदान नहीं था, आज करोडों़ का चंदा, राजनीतिक दलों के पार्टी फण्ड में देकर, बड़े ही आराम से देश के विकास की आड़ में अपने व्यवसाय का विस्तार कर रहे हैं। इनके लिए देश से ज्यादा महत्वपूर्ण है अपना व्यवसाय।

यदि भारतीय चुनाव आयोग द्वारा जारी इलेक्टोरल बाण्ड के माध्यम से राजनीतिक दलों को चंदा देने वालों की सूची का सरसरी तौर पर भी विश्लेषण किया जाये, तो एक सामान्य व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि करोड़ों रुपये का चंदा देने का रहस्य क्या है, जब चंदा देने वाला एक अस्पताल जोकि ईलाज के नाम पर बिना कोई दया-धर्म के किसी के जीवन का सहारा तक छीनने से गुरेज नहीं करता। जिस प्रकार से एक देश के जासूस दूसरे देश में घुसकर, उसके सामरिक महत्व के आर्थिक एवं सुरक्षा चक्र को भेदने में लगे रहते हैं, ठीक उसी प्रकार से, देश के बड़े-बड़े सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण उद्योगों में, इन पूजीपतियों के आदमी प्रबन्धन में बैठकर, इनके उद्देश्यों की पूर्ति में लगे रहते हैं। जो सरकार तक में भी अपनी पूरी की पूरी घुसपैठ बनाये रहते हैं। आज इनके हाथ, देश के छोटे-बड़े उद्योगपतियों, सरकारी अधिकारियों एवं राजनीतिज्ञों के माध्यम से, देश के कोने-कोने तक पहुंचे हुये हैं। इन्हें पता है कि सरकारें 5 वर्षों के लिये आती हैं और सरकारी अधिकारी औसतन 35 वर्ष तक नियमित कार्य करता है। आज ये ही पसंदीदा राजनीतिक दलों को, सरकारें बनाने के गणित समझाते हैं। उनके माध्यम से अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आवश्यकतानुसार सरल/कठिन नीतियां लागू करवाते हैं और फिर हिस्सेदारी के आधार पर सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों के माध्यम से उन्हें कार्यान्वित कराते हैं।

Global Perception Index (CPI) 2024 की रिपोर्ट के अनुसार भारत 100 में से 38 अंक प्राप्त कर 180 देशों की सूची में 96 वें स्थान पर है जबकि चीन 76 वें स्थान पर। जिसका मूल कारण है देश की राजनीति में पूंजीपतियों एवं उधोगपतियों की घुसपैठ। वास्तविकता यह है कि आज हम अपने देश एवं परिवार के लिये नहीं, बल्कि इन पूंजीपतियों के लिये कार्य कर रहे हैं। अपने निहित स्वार्थ में हम यह भूल गये थे कि जिन अपने उद्योग-धन्धों को हम इन पूंजीपतियों के कहने पर अन्दर ही अन्दर खोखला करते आ रहे थे। तो आजादी के बाद जिस औद्योगिक नीति 1948, के माध्यम से स्थापित जिन उद्योगों ने, देश को दुनिया में पहचान प्राप्त हुई थी, आज इन्हीं पूंजीपतियों एवं उद्योगपतियों द्वारा चटाये गये भ्रष्टाचार की अफीम के कारण, कंगाली के कगार पर हैं और हम जयचन्द के अंजाम तक पहुंच चुके हैं। इन उद्योगपतियों की देश में पकड़ कितनी मजबूत है, उसका अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है। कि औद्योगिक नीति 1991, एवं उसके बाद समय-समय पर लागू अन्य औद्योगिक नीतियों में बीमार उद्योगों के निजीकरण की बात कही गई थी।

परन्तु बीमार उद्योगों की आड़ में न जाने कितने लाभ के उद्योगों का निजीकरण कर दिया गया। जिसका सीधा-सीधा मतलब है कि कुछ लोगों को लाभ पहुंचाने के लिये, जनता द्वारा चयनित सरकारों को, देश के राजकोष को ही वित्तीय नुकसान पहुंचाने में कोई हिचक नहीं है। यही कारण है कि आज आजादी के बाद देश को पहचान दिलाने वाले एतिहासिक उद्योगों (धरोहर) को, इन पूंजीपतियों/उद्योगपतियों के विकास के लिये, उन्हें औने-पौने दामों बेचा जा रहा है। जिस प्रकार से व्यापार की आड़ में लंदन स्थित, ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत पर कब्जा किया था, ठीक उसी प्रकार से इन सर्वकालीन पूंजीपतियों ने देश के मौकापरस्त राजनीतिज्ञों के माध्यम से, सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण उद्योग धन्धों के पर कब्जा जमाने के साथ-साथ, देश की आर्थिक नीतियों पर कब्जा जमाना आरम्भ कर दिया है। जिस प्रकार से राजनीतिक दलों के लिये ऐन-केन प्रकारेण सरकारों में बने रहना ही, उनका एकमात्र उद्देश्य रह गया है, उसी प्रकार से, ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं न कहीं पूजीपतियों के सहयोग से उत्तर प्रदेश (सेवा संघों को मान्यता) नियमावली-1979 के विरुद्ध अयोग्य लोगों के द्वारा कार्मिक संगठनों में भी सिर्फ अपने-अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु कब्जा जमाया हुआ है।

अतः निजीकरण रोकने का संकल्प कहीं दूर-दूर तक भी दिखलाई नहीं दे रहा है। जो अन्दोलन है वह भी निजीकरण को जल्द से जल्द कराने का मात्र एक प्रयास ही प्रतीत होता है। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!

-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.

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