
मित्रों नमस्कार! आज उ0प्र0पा0का0लि0 के निजीकरण के नाम पर जिस तरह से कार्मिक संगठन बिखरे-बिखरे आन्दोलन कर रहे हैं। तो ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे यह आन्दोलन निजीकरण रोकने के लिये कम, सेवानिवृत्त कार्मिकों के अस्तित्व की रक्षा करने के लिये ज्यादा है। इस आन्दोलन में दूर-दूर तक कहीं भी कोई सेवारत् परिपक्व नेत्रत्व दिखलाई नहीं पड़ रहा है। यह सौभाग्य नहीं, बल्कि दुर्भाग्य है कि ऊर्जा निगमों के निजीकरण का विरोध करने के लिये सेवारत् नेत्रत्व के स्थान पर, कई-कई वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त कार्मिक आन्दोलन का नेत्रत्व करते नजर आ रहे हैं। यह कहना कदापि अनुचित न होगा कि यह निगमों की मलाई ही है, जो सेवानिर्वत एवं बाहरी लोगों को बार-बार, निगमों के कार्यों में, आन्दोलन के नाम पर, हस्तक्षेप करने के लिये प्रेरित कर रही है।
स्पष्ट है कि जिस तीवृता से, ऊर्जा निगम घाटे में डूब रहे हैं, ठीक उसी प्रकार से ये नेत्रत्वहीन कार्मिक संगठन, अन्धकार में डूबते जा रहे हैं। जोकि दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं, बल्कि ऊर्जा निगमों के घाटे में डूबने का मूल कारक भी हैं। विदित हो कि कार्मिक संगठनों का, किसी भी संस्थान की तरक्की एवं पतन में महत्वपूर्ण योगदान होता है। सैद्धांतिक रुप से कार्मिक संगठनों के उपरोक्त कथित सेवानिवृत्त एवं बाहरी लोगों को निगमों के निजीकरण होने, न होने से, कोई नुकसान नहीं होता। परन्तु धरातल पर, कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष रुप से, कार्मिक संगठनों पर काबिज, बाहरी पदाधिकारियों के निहित स्वार्थ प्रभावित होते हैं। जिसके लिये ही वे अवैध रुप से, सेवारत् कार्मिकों के संगठनों पर काबिज होकर, उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। निश्चित ही ऐसे लोगों का कार्मिक आन्दोलन में अग्रणी होना, ऊर्जा निगमों के भविष्य पर छाये काले, घने बादलों की ओर ईशारा कर रहा है। किसी भी संस्थान के कार्मिक संगठन के नेत्रत्व से अभिप्राय सिर्फ इतना होता है कि वह योग्य, ऊर्जावान, ईमानदार एवं अपने संस्थान के प्रति निष्ठावान हो। कार्मिक संगठनों के नेत्रत्व से चिपके ये लोग, अपने सेवाकाल में ही, अपने संगठन का भविष्य, सुरक्षित रखने के स्थान पर, निहित स्वार्थ में अपने भविष्य को, किसी भी तरह से सुरक्षित रखने के उद्देश्य से, अन्य युवा नेत्रत्व को येन-केन प्रकारेण उभरने से रोकते रहे हैं, जोकि सीधे-सीधे, विभाग के प्रति इनकी निष्ठा को प्रमाणित करता है तथा ऊर्जा निगमों में नियम विरुद्ध ऐसे लोगों की उपस्थिति ही, यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है, कि कहीं न कहीं ये सब बाहरी पदाधिकारी गण, प्रबन्धन एवं राजनीतिज्ञों के मोहरे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। जिनका विभाग की उन्नत्ति एवं जनहित से कोई लेना देना नहीं है।
एक पत्रकार महोदय, जोकि उन चुनिंदा पत्रकारों में से एक हैं, जोकि खोज-खोज के सत्य लिखने का प्रयास करते रहते हैं। जो ऊर्जा निगमों में नियुक्त प्रशासनिक अधिकारियों को ‘‘बड़का बाबू’’ एवं उनकी नियुक्ति को अवैध कहते हुये, अपने प्रत्येक लेख के अन्त में ‘‘युद्ध अभी शेष है’’ लिखना नहीं भूलते। इसी प्रकार से UPPCL Media ग्रुप भी ज्वलन्त विषयों पर अपनी आवाज उठाने का प्रयास करता रहता है। परन्तु न जाने क्यों कार्मिक संगठनों के शीर्ष पदों पर काबिज सेवानिवृत्त, गैर संवर्गीय कार्मिक एवं बाहरी लोगों की वैधता पर वे मौन रहते हैं।
आज की तारीख में सभी चुनावों में, बिजली एक प्रमुख मुद्दा होती है तथा सीधे-सीधे वोट को प्रभावित करती है। अतः जनहित में बेबाक का इन सेवा निवृत्त कार्मिकों से एक प्रश्न है, कि यदि इन्हें जनहित एवं ऊर्जा निगमों की इतनी ही चिन्ता है, तो पूरे प्रदेश में घर-घर तक फैले बिजली वालों के नेटवर्क के माध्यम से चुनाव जीतकर, विधानसभा/ लोकसभा में बैठकर, राष्ट्र के निर्माण एवं विकास में अपना योगदान क्यों नहीं देते। क्यों आये दिन बात-बात पर ऊर्जा निगमों में कार्मिकों को अन्दोलन के लिये प्रेरित करने के स्थान पर, उन्हें कभी ईमानदारी एवं निष्ठा से कार्य करने के लिये प्रेरित करने का प्रयास क्यों नहीं करते। आज ऊर्जा निगमों की स्थिति यह है कि अधिकांश कार्मिक सिर्फ और सिर्फ अपने निहित स्वार्थ में कार्य कर रहे हैं, उनके लिये ईमानदारी एवं निष्ठा सिर्फ दिखावे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। ये वही कार्मिक हैं जो नौकरी न मिलने से पहले, एक अदद नौकरी पाने के लिये काला-पानी तक जाने के लिये तैयार थे। परन्तु आज एक ही शहर में मात्र नियुक्ति का स्थान परिवर्तित होने पर, उसी स्थान पर रुकने के लिये, सभी कर्म करने के लिये तैयार रहते हैं। कार्मिकों के इसी भाव ने ऊर्जा निगमों में योग्यता एवं निष्ठा को लगभग समाप्त कर दिया है।
बेबाक का स्पष्ट रुप से यह मानना है कि जब तक कार्यरत् कार्मिक, स्थानान्तरण एवं नियुक्ति के नासुर से मुक्ति प्राप्त करने का संकल्प नहीं लेंगे, ऊर्जा निगमों में सुधार असम्भव है। ऊर्जा निगमों के घाटे के लिये स्थानान्तरण एवं नियुक्ति का खेल ही, मूल रुप से उत्तरदायी है। एक प्रबन्धन कार्मिकों का इधर से उधर स्थानान्तरण करता है तो वहीं दूसरा प्रबन्धन आते ही, उधर से फिर इधर स्थानान्तरण कर देता है। अनुशासनात्मक कार्यवाहियां सिर्फ अपने मार्ग से कांटा निकालने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। ऊर्जा निगमों के घाटे के लिये कोई बाहरी नहीं, बल्कि अधिकांश कार्मिकों के अन्दर छिपा स्वार्थ उत्तरदायी है, जिसके लिये हम, हर समय कुछ भी करने के लिये तैयार रहते हैं। प्रदेश सरकार के अनुपूरक बजट का 50% ऊर्जा निगमों के लिये आबंटित होना, अपने आप में ही बहुत महत्वपूर्ण एवं विचारणीय तथ्य है।
प्रश्न उठता है कि क्या निजीकरण का समर्थन एवं विरोध दोनों ही, निहित स्वार्थों की पूर्ति से सम्बन्धित है। जैसे नकली दूध में, दूघ का कोई अंश नहीं होता, ठीक उसी प्रकार से जनहित एवं गुणवत्ता के नाम पर प्रस्तावित निजीकरण योजना में जनहित एवं गुणवत्ता को तलाशना एक दुष्कर कार्य है। लोगों को अपनी-अपनी नौकरी की फिक्र है, क्योंकि उन्होंने आज तक कार्य के नाम पर हस्ताक्षर करने की फीस ही ली थी और अब भविष्य में कार्य करना पड़ेगा। सबसे दुखद यह है कि जिन शहीदों ने देश के लिये हंसते-हंसते अपने प्राण न्यौछावर कर हमें आजादी और कुर्सी दिलाई, आज हम 1.10 लाख करोड़ के घाटे पर भी, कुर्सी-कुर्सी खेलते हुये, उन शहीदों के साथ अपना आन्दोलन जोड़कर, उनकी पवित्र आत्मा तक को दुख पहुंचाने से बाज नहीं आ रहे हैं। परन्तु उन शहीदों के नाम पर, ईमानदारी एवं निष्ठा से कार्य करने का संकल्प तक लेने के लिये तैयार नहीं हैं। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
-बी0के0 शर्मा महासचिव PPEWA.