
मित्रों नमस्कार! पिछले अंक में आपके द्वारा यह पढ़ा गया कि कहीं प्रस्तावित निजीकरण के पीछे उपरोक्त घाटे के साक्ष्यों को मिटाना तो नहीं है? पिछले लगभग 24 वर्षों से एक सुनियोजित योजना के तहत प्रबन्धन एवं कार्मिक संगठनों के सहयोग से निगमों के घाटे को कम करने की आड़ में, सुधार के नाम पर एक लाख करोड़ से भी अधिक का घाटा करने के पश्चात, निजीकरण की प्रक्रिया पर प्रबन्धन रात-दिन एक किये हुये है।
परन्तु आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि न तो प्रबन्धन द्वारा और न ही कार्मिक संगठनों के कभी कोई यासेजना प्रस्तुत ही नहीं की गई। जिससे कि वितरण निगमों का घाटा कम किया जा सकता। अतः जब भी निजीकरण का जिन्न बाहर आता है, तो हड़ताल का हो हल्ला कर, सुधार करने के नाम पर निजीकरण को टाला जाता रहा है। परन्तु सुधार के नाम पर कोई कार्य नहीं किया जाता। क्योंकि सुधार का मतलब, अपने सीमित संसाधनों के माध्यम से, अपने खर्चों में कटौती कर, अधिक से अधिक कार्य करते हुये, अपने संस्थान/उद्योग को आगे बढ़ना होता है। परन्तु यहां सुधार के नाम पर, उपभोक्ता देवो भव की आड़ में, प्रणाली सुधार के नाम पर हजारों करोड़ रुपये की बड़ी-बड़ी योजनायें थोपी जाती हैं। जोकि निगमों के नियमित कार्मिकों के द्वारा नहीं, बल्कि देश के बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों के द्वारा तैयार कर, भारत सरकार के माध्यम से डिस्कामों पर थोपी जाती रही हैं। यदि इन कार्य योजनाओं का थोड़ा सा भी गहराई में जाकर विश्लेषण करें, तो यह ज्ञात हो जायेगा, कि ये सारी की सारी योजनायें देश के बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों को कार्य देने के लिये, उन्हीं के द्वारा तैयार कर, भारत सरकार के माध्यम से डिस्कामों पर थोपी जाती रही हैं। जिनको पूर्ण कराने की औपचारिकता बाहरी प्रबन्धन को ही निभानी होती है। कार्य में पारदर्शिता दर्शाने के लिये बाहरी Third Party Inspection हेतु PMA नियुक्त किये जाते हैं।
विद्युत सामग्री की गुणवत्ता सुनिश्चित करने हेतु Third Party Inspection हेतु, Quality Cell नहीं बल्कि सामग्री प्रबन्धन द्वारा वाह्य ऐजेन्सी अनुबन्धित की जाती हैं। जोकि विभागीय अधिकारी के साथ संयुक्त परीक्षण कर सामग्री की गुणवत्ता सुनिश्चित करने की मात्र औपचारिकता पूर्ण करती है। क्षेत्र में कार्य समापन के नाम पर, कार्यदायी संस्थाओं के द्वारा प्रेषित बिलों का भुगतान करने हेतु, प्रबन्धन द्वारा VC के माध्यम से, डिस्कामों के अधिकारियों को बात-बात पर अपमानित करते हुये, दबाव बनाया जाता है तथा इसी क्रम में कुछ अधिकारियों को VC के दौरान ही निलम्बित करने के आदेश देकर, प्रतिष्ठित कार्यदायी संस्थाओं के द्वारा लगाये गये टेढ़े-मेढ़े खम्भों पर कौअे मारकर टांग दिये जाते हैं। पूर्ण प्रक्रिया में विभाग के नियमित कार्मिकों का सिर्फ एक ही कार्य होता है कि ”कौआ उड़ के साथ-साथ घोड़ा उड़“ दोहराना होता है। वास्तविकता यही है कि ”कौआ उड़ के साथ-साथ घोड़ा उड़“ कहने से विभागीय अधिकारियों को भी टिप मिल जाती है। यही कारण है कि आज डिस्कामों में मलाईदार पदों पर नियुक्त लगभग सभी अधिकारी ”घोड़ा उड़“ कहते हुये नजर आते ही नहीं, बल्कि कुछ अधिकारी तो आकर यह भी बताते हैं, कि उनके द्वारा सुबह उठते ही, घर की छत पर उड़ते हुये घोड़े को देखा है।
RFP हो या Tender Documents सब के सब बाहरी कम्पनियां ही तैयार करती हैं। जिसमें एक मशहूर एवं प्रबन्धन की पहली पसन्द वाली कम्पनी जोकि निगमों के लिये ही नहीं बल्कि निविदा डालने वाली बाहरी कम्पनियों की निविदायें डलवाते हुये, सम्भवतः Tender Pool भी कराते हुये, अपने हित साधती हो। ऐसा प्रतीत होता है कि आज ऊर्जा प्रबन्धन, कथित वितरण निगमों को प्राप्त करने की इच्छुक, निजी कम्पनियों की इच्छानुसार पूर्वांचल एवं दक्षिणांचल डिस्काम को विभक्त कर, Tender Pool करके, इच्छुक कम्पनियों को 51% की हिस्सेदारी देने एवं स्वयं की 49% रखकर, एक बहुत दूर की सोच का खेल, खेलने का प्रयास कर रहा है। क्योंकि ऊर्जा प्रबन्धन यह भलीभांति यह जानता है, कि वितरण कम्पनियां वो मुर्गियां हैं, जो उपभोक्ता देवो भव के नाम पर सोने का अण्डा देती हैं। अतः ऐसी कम्पनियों को वे कभी, औने-पौने दामों में बेचना नहीं चाहेंगे। वितरण कम्पनियों को बेचने के प्रारुप में सरकार की 49% हिस्सेदारी के पीछे भी यही सोच है। जिसके माध्यम से उपभोक्ता देवो भव की आड़ में अनुदान का खेल होना सम्भावित है। जिसमें निजी कम्पनियां, जनहित के नाम पर, 49% की हिस्सेदारी वाले पर, सम्भवतः दबाव बनाकर धन की मांग करती रहेंगी। तब न तो विलम्ब शुल्क की माफी होगी और न ही खुला राजनीतिक Welfare होगा। यदि सरकार कोई Welfare करना भी चाहेगी, तो उसे, निजी कम्पनी को उसकी कीमत देनी होगी। अतः समय-समय पर सरकार, कभी आवश्यक सेवाओं के नाम पर तो कभी उपभोक्ता देवो भव के नाम पर निजी कम्पनियों को अनुदान देती रहेगी। अब चुनौती घाटा कम करने की नहीं है बल्कि प्रति माह लगभग 500 करोड़ के घाटे को रोकने की है। जोकि कम होने के स्थान पर लगातार बढ़ता ही जा रहा है। जिसको नियन्त्रित करने के लिये ईमानदारी के नमक की आवश्यकता है। जोकि अब न तो प्रबन्धन के पास बचा है और न ही कार्मिकों के पास।
ऊर्जा प्रबन्धन द्वारा जिस प्रकार से हड़ताल का हौवा खड़ा करके, पूरे प्रदेश में कानून-व्यवस्था चाक-चौबंद करायी जा रही है। उससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रबन्धन भी व्याकुल है कि जल्दी से जल्दी हो, जिसके लिये वो लगातार अपने कार्मिकों को, हड़ताल करने के लिये उकसाने में लगा हुआ है। क्योंकि वह यह अच्छी तरह से जानता है कि विरोध के बदले, निगमों को खरीदने की इच्छुक कम्पनियों से अच्छा मोल-भाव हो सकेगा। अर्थात ”कहीं पे निगाहें और कहीं पे निशाना“ की नीति के तहत, मोल-भाव की कूटनीति का खेल खेला जा रहा है। जिसमें एक बार फिर कार्मिक संगठनों की भूमिका संदिग्ध नजर आ रही है। दुखद है कि प्रबन्धन की कुटिल चालों को समझने और उनका समुचित जवाब देने के लिये कार्मिक संगठनों के पास योग्य प्रतिनिधि ही नहीं हैं। क्योंकि संगठनों के वरिष्ठ पदाधिकारियों के द्वारा सेवा निवृत्त होने के बावजूद, किसी युवा को कभी भी उचित दीक्षा देना उचित नहीं समझा। जिसके कारण आज युवा बेचारे, बुड्ढों की शरण में हाथ-पैर मार रहे हैं। चूंकि इस रहस्य का पूरा ज्ञान प्रबन्धन को है, अतः लड़ाई रोचक न होकर एक तरफा दिखलाई दे रही है। क्रमशः…..
राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द! बी0के0 शर्मा महासचिव PPEWA.