
मित्रों नमस्कार! पिछले बेबाक No. 34/16.09.2024 के अनुक्रम में कि इन्जीनियर हैं कहां? क्योंकि अब अधिकांश इन्जीनियरों की निष्ठा न तो अपने देश के प्रति बची है और न ही अपने-अपने विभागों के प्रति। नौकरी प्राप्त करने से लेकर स्थानान्तरण एवं नियुक्ति तक सिर्फ जोड़-तोड़ कर, अधिक से अधिक अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने अर्थात प्राप्त अधिकारों को अधिक से अधिक धन में परिवर्तन करने की होड़ सी लगी हुई है। जिसमें निष्ठा की तो छोड़िये मानवता तक समाप्त हो चुकी है। पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक वीडिओ चल रही थी, जिसमें यह दिखाया गया था कि सड़क बनाने के ठेके में किस तरह से हिस्सेदारी बंटती है और अन्त में ठेकेदार किस तरह से, सड़क के स्थान पर सड़क के मात्र एक टुकड़े को ही औपचारिक रुप से काले रंग से रंगकर, कार्य की औपचारिकता निभाते हुये कार्य का समापन करता है।
वर्तमान में पॉवर कारपोरेशन लखनऊ द्वारा पूरे प्रदेश में 5 कार्यों का निरीक्षण, मुख्यालय पर नियुक्त अधिकारियों के माध्यम से कराया जा रहा है। आश्चर्यजनक, परन्तु सत्य यह है कि यदि इन सब अधिकारियों को, बाहरी किसी कम्पनी में साक्षात्कार देने के लिये भेजा जाये, तो इनमें से 1% इन्जीनियर की सफलता भी आश्चर्यजनक होगी। कारण स्पष्ट है कि मुख्यालय पर बाबूगिरी के अतिरिक्त कोई इन्जीनियरिंग का कार्य न तो होता है और न ही कराया जाता है। यदि गलती से कोई इन्जीनियरिंग दिमाग का इस्तेमाल करने का थोड़ा सा दुस्साहस करने का प्रयास करता है, तो उसे बात-बात पर डांट-डांट कर या तो कोल्हू का बैल बना दिया जाता है अथवा दूर-दराज स्थान्तरित कर दिया जाता है। उपरोक्त 5 बिन्दुओं पर जांच के लिये भेजे गये तथाकथित इन्जीनियरों में से अधिकांश को तो यह भी मालूम नहीं होगा कि उन्हें करना क्या है। अन्ततः घूम फिरकर, उन्हें एक-दूसरे से पूछ-पूछ कर, आंकड़ों की बाजीगिरी करते हुये, निरीक्षण की औपचारिकता पूर्ण कर रिपोर्ट प्रेषित करनी है।
वैसे तो यह स्थिति, सभी ऊर्जा निगमों में, लगभग एक समान है, जहां पर विभागीय इन्जीनियर, न तो इन्जीनियरिंग का कोई कार्य करते हैं और न ही उनसे कोई इन्जीनियरिंग का कार्य कराया जाता है। सर्वप्रथम उत्तर प्रदेश राज्य में Electricity Act of 1903 के तहत विद्युत उत्पादन का 855 KW का एक प्लान्ट कानपुर में स्थापित हुआ तथा 23 दिसम्बर 1906 को कानपुर में विद्युत आपूर्ति कार्यशील हुयी थी तथा उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत परिषद की स्थापना वर्ष 1959 में हुई। मात्र 77 करोड़ के घाटे को दूर करने के लिये, वर्ष 2000 में UPSEB को तीन भागों में UPPCL, UPRVUNL & UPJVNL में बांट दिया गया था तथा प्रदेश में विद्युत आपूर्ति हेतु UPPCL के अन्तर्गत 5 विद्युत वितरण कम्पनियां PuVVNL, MVVNL, DVVNL, PVVNL & KESCO पंजीकृत एवं कार्यशील हुई। पिछले 24 वर्षों में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि ऊर्जा निगमों के इन्जीनियरों ने कभी कोई विशिष्ट कार्य किया हो और वितरण कम्पनियां किसी भी एक कार्यक्षेत्र में भी, आत्म निर्भर बनी हों। बल्कि आयातित प्रबन्धन एवं विशेषज्ञ इन्जीनियर निदेशकों की रात-दिन मेहनत के बल पर आज ऊर्जा निगमों का घाटा एक लाख करोड़ से ऊपर पहुंच चुका है।
धरातल पर हालात ये हैं, कि आये दिन विद्युत दुर्घटनायें होती रहती हैं, जिसमें निर्दोष जनता एवं विद्युत कार्मिक हृदय विदारक अकाल मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। जो कि अब वितरण कम्पनियों का एक सामान्य दैनिक अंग बनकर रह गया है। इसी प्रकार विद्युत उपकरण धू-धू कर जलते हुये कहीं न कहीं नजर आ जाते हैं। विद्युत दुर्घटना रोकने का कोई स्थाई समाधान निकालने के स्थान पर, विभागीय इन्जीनियरों के द्वारा विद्युत पोलों पर प्लास्टिक की पन्नियां बांधने का खेल, खेला जा रहा है। जिसमें कितनी पन्नियां बांधने के आदेश होते हैं और कितने पोलों पर बांधी जाती हैं, यह बहुत रोचक खेल है। प्रति वर्ष विद्युत सुधार के नाम पर हजारों करोड़ के टेण्डरों का खेल होता है। जिसमें वास्तविक कार्य और Adjustment का जबरदस्त खेल होता है जोकि सभी के लिये आकर्षण का बिन्दु है। नित्य पदोन्नत्ति की लम्बी-लम्बी सूची जारी होती हैं, जिनकी धरातल पर सिर्फ पद के विरुद्ध प्राप्त होने वाली हिस्सेदारी के अतिरिक्त कोई उपयोगिता दिखलाई नहीं पड़ती। पदोन्नति के उपरान्त पद की योग्यता एवं उपयोगिता का कोई मेल नहीं होता है। यही कारण है कि बढ़ते पद एवं अधिकारियों के कारण, न तो कार्य की गुणवत्ता में कोई सुधार हो पा रहा है और न ही उपभोक्ता सेवा में। निगम एवं जनहित में प्रत्येक कार्य योजना बनाने के लिये PMA एवं बाहरी कार्यदायी संस्थानों का ही भुगतान के आधार पर सहयोग लिया जाता है। जिनके हित, विभाग एवं बाहरी कार्यदायी संस्थाओं के साथ समान रुप से जुड़े हुये होते हैं।
यह कटु सत्य है कि निगमों में कार्य के नाम पर सुबह से शाम तक मैराथन VCs एवं स्थानान्तरण/निलम्बन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता है। मैराथन VCs एवं स्थानान्तरण तथा निलम्बन की उपयोगिता सिर्फ इतनी है, कि UPPCL प्रति वर्ष लगभग 5000 करोड़ की दर से घाटे में डूब रहा है। System Strengthening & Augmentation के नाम पर हजारों करोड़ खर्च करने के बाद भी, न तो Breakdown रुक पा रहे हैं और न ही विद्युत दुर्घटनायें। जिसका सिर्फ और सिर्फ एक ही कारण है। प्रबन्धन का, कहीं भी, किसी भी स्तर पर, किसी भी कार्य के लिये उत्तरदायी न होना। जबकि धरातल पर कोई भी कार्य बिना प्रबन्धन की अनुमति एवं निर्देश के नहीं होता। जिसके कारण प्रायः प्रबन्धन निरंकुश होकर, एक तानाशाह के रुप में, अपने स्वार्थ सिद्ध करते हुये, विदा हो जाता है। नया प्रबन्धन आते ही ताश की गडडी की तरह, एक बार फिर कार्मिकों को फेंटते हुये, अपनी टीम एवं अपनी कार्य योजना बनाकर, खेल खेलता है। आज की खबर, कि Gate के अंकों के आधार पर, प्रशिक्षु सहायक अभियन्ताओं का चयन होगा। हास्यापद है, क्योंकि उपरोक्तानुसार निगमों में इन्जीनियरों की तो कोई आवश्यकता ही नहीं है, तो योग्यता की चाहत क्यों। यहां तो चाहे IT Engineer हो या Civil Engineer, सभी Electrical Engineer का कार्य, प्रबन्धन की अपेक्षाओं के अनुसार, सफलता पूर्वक कर रहे हैं। यदि इन्जीनियरों की उपयोगिता की बात करें, तो क्षेत्र में अवर अभियन्ता, सहायक अभियन्ता, अघिशासी अभियन्ता, अधीक्षण अभियन्ता और मुख्य अभियन्ता, सभी के सभी इन्जीनियर हैं। परन्तु इनके कार्य देखे जायें, तो कोई भी इन्जीनियरिंग का कार्य नहीं करता है, सब के सब बाबूजी बने बैठे हैं। इन्हीं इन्जीनियरों के बीच से जोड़-तोड़ के आधार पर निदेशक वितरण, निदेशक तकनीकी, निदेशक वाणिज्य, आदि 3 वर्ष के लिये निविदा पर चुने जाते है तथा वे भी सिर्फ बाबू का ही कार्य करते हैं। ऐसे अधिकांश इन्जीनियर निहित स्वार्थ में, विषमतः परिस्थितियों में भी, अपने स्वाभिमान को त्यागकर, कार्य करने के लिये हर वक्त तैयार मिलते हैं। यही कारण है कि ऊर्जा निगमों के साथ जुड़ने वाली अधिकांश कार्यदायी संस्थायें, दिन दूनी और रात चौगुनी गति से तरक्की कर रही हैं। जबकि निगम कर्ज में डूबते ही जा रहे हैं। उपभोक्ता बिजली बिल देना नहीं चाहता, अधिकारी चाहते हैं कि उपभोक्ता विभागीय खाते के स्थान पर बिल की धनराशि उन्हें दे दे। सामग्री एवं कार्य की गुणवत्ता की बात भूल ही जाईये, ठेकेदार बख्शीश के बदले, सामग्री की गिनती तक पूरी करना नहीं चाहता। अतः बेबाक का स्पष्ट रुप से यह मानना है कि जब इन्जीनियर से बाबू का ही काम लेना है, तो इन्जीनियर की उपयोगिता ही क्या है। अतः बेहतर होगा कि इन्जीनियर के स्थान पर बाबू की ही भर्ती की जाये। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA.