बेबाक: चहुं ओर भेंट का साम्राज्य! आचरण नियमावली एवं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जनहित याचिका सं0 79/1997 पर दिये गये निर्देश मात्र दिखावा!

दो दिन पूर्व उ0प्र0 सरकारी कर्मचारी आचरण नियमावली-1956 में शासन द्वारा, उत्तर प्रदेश के सरकारी सेवकों के द्वारा संचार माध्यमों (मीडिया) का उपयोग करने के सम्बन्ध में शासन द्वारा नई गाइड लाइन जारी कर, मीडिया माध्यमों के इस्तेमाल से पूर्व, शासन से पूर्वानुमति लेना अनिवार्य किया गया है। वैसे यह प्रतिबन्ध पहले से ही विद्यमान है। इसके साथ-साथ उपरोक्त आचरण नियमावली के बिन्दु 3-(1) “प्रत्येक सरकारी कर्मचारी, सभी समयों में, परम सत्यनिष्ठा तथा कर्तव्य परायणता से कार्य करता रहेगा।” 3-(2) “सभी समयों पर, व्यवहार तथा आचरण को नियमित करने वाले प्रवृत्त विशिष्ट या ध्वनित शासकीय आदेशों के अनुसार आचरण करेगा।” जिसके अनुसार सरकारी कर्मचारी पहले से ही गुलाम है।आईये आज उपरोक्त नियमावली का एक बार व्यवहसरिक दृष्टि से पुनः थोड़ा सा विश्लेषण करने का प्रयास करें। उपरोक्त के बिन्दु 5-(1) के अनुसार “कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी राजनीतिक दल का या किसी संस्था का, जो राजनीति में हिस्सा लेती हैं, सदस्य न होगा और न अन्यथा उससे सम्बन्ध रखेगा और न वह किसी ऐसे आन्दोलन में या संस्था में हिस्सा लेगा, उसके सहायतार्थ चन्दा देगा या किसी अन्य रीति से उसकी मदद करेगा, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विधि द्वारा स्थापित प्रति सरकार के उच्छेदक या उसके प्रति उच्छेदक कार्यवाहियां करने की प्रवृत्ति पैदा करती है।” उपरोक्त बिन्दु ऐसा है जिसका पग-पग पर उल्लंघन, लगभग सभी विभागाध्यक्षों के द्वारा किया जाता है। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है, विभागाध्यक्षों के द्वारा अपने सभी अधिकारियों एवं कर्मचारियों को अपने-अपने क्षेत्र के विधायकों एवं सांसदों से उनके कार्यालय/निवास पर जाकर मिलने के लिये सीधे-सीधे आदेश देना है। जहां पर सम्बन्धित अधिकारियों को, सम्बन्धित विधायकों एवं सांसदों के द्वारा अपने विवेकानुसार अथवा कार्यकर्ताओं की इच्छानुसार कार्य करने के लिये निर्देशित किया जाता है तथा उक्त आदेशों को स्वयं सम्बन्धित विभाग के मन्त्री महोदय द्वारा संरक्षण प्रदान किया जाता है। कल भी माननीय उर्जामन्त्री जी के द्वारा यह निर्देश जारी किये गये कि शटडाउन लेने पर जनप्रतिनिधियों को सूचित किया जाये। सभी कार्मिकों के मोबाईलों में जनप्रतिनिधियों के फोन न0 अनिवार्य रुप से सुरक्षित होने चाहिये। जिससे कि माननीयों के फोन तत्काल उठाये जा सकें। एक तरफ विभाग के पास, समुचित मात्रा में कर्मचारी नहीं हैं, जिसके कारण उसके अपने ही कई कर्मचारी नित्य, असमय, दर्दनाक मृत्यु के शिकार हो रहे हैं, जिनको बचाने के सार्थक उपाय तक करने में विभाग, अपने आपको अक्षम पा रहा है, वहीं दूसरी ओर आये दिन नये-नये निर्देश।

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि उ0प्र0 पॉवर कारपोरेशन लि0 दुनिया का एक मात्र ऐसा उपक्रम है जहां कार्य से ज्यादा निर्देश विद्यमान हैं और सुबह से शाम तक दिये जाने वाले निर्देशों की कोई सीमा नहीं है। यह कहना कदापि अनुचित न होगा कि यहां जनसेवा कम, चापलूसी करने का काम ज्यादा है। जिससे सामने वाले के खुश या नाराज होने के आधार पर ही कार्मिकों की नौकरी चलती है। परन्तु निर्देशों का पालन करने हेतु सामग्री एवं उपकरण नहीं हैं। विभाग ने दुनिया भर के मोबाईल-एप बनवा रखे हैं, जिनकी सूचना, जनप्रतिनिधियों को प्रेषित कर, जनप्रतिनिधियों को अवगत् कराने की जिम्मेदारी नियन्त्रण कक्ष को दी जानी चाहिये। यदि उपरोक्त बिन्दु का सामान्यतः भी विश्लेषण करें, तो यह स्पष्ट होता है कि अप्रत्यक्ष नहीं बल्कि प्रत्यक्ष रुप से सरकारी कर्मचारी को राजनीति का एक अंग बनाने का लगातार प्रयास किया जा रहा है। जिसके माध्यम से सरकारी कर्मचारी को उनके हितानुसार कार्य करने पर प्रलोभन/दण्ड देने तक की धमकी दी जाती है। जहां पर राजनीति सम्मत कार्य करने के दबावों के कारण, संविधान सम्मत नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करने हेतु, एक समान आचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

इसी क्रम में बिन्दु 27- “असरकारी या अन्य वाह्य प्रभाव का मतार्थन” कोई सरकारी कर्मचारी अपनी सेवा से सम्बन्धित हितों में वृद्धि करने के उद्देश्य से कोई राजनीतिक या अन्य वाह्य प्रभाव डलवाने का प्रयास नहीं करेगा, की स्वतः ही उत्पत्ति हो जाती है। दि0 19.06.24 को मुख्य अभियन्ता बांदा के कार्यालय में, माननीय जल शक्ति मन्त्री जी की उपस्थिति में, आवेदकों की वरीयता तोड़ते हुये, एक निजि नलकूप का सामान न देने के कारण, जिस प्रकार उनके कार्यकर्ताओं के द्वारा, सुनियोजित तरीके से, विभागीय अधिकारियों के साथ गाली-गलौच एवं मारपीट की गई, वह स्वतः परिभाषित करती है कि जनप्रतिनिधियों तक को यह ज्ञात नहीं है कि किसके क्या अधिकार एवं उत्तरदायित्व हैं। सामग्री का क्रय डिस्काम द्वारा किया जाता है। उपरोक्त दुखद घटना सामग्री की अनुपलब्धता से सम्बन्धित है, जिसके लिये डिस्काम उत्तरदायी है। जानकारी में यह आया है कि भण्डार केन्द्रों में, पूर्ण जमा योजना के तहत (जिसमें विभाग आवेदक से पहले ही सामग्री की कीमत वसूल लेता है) कराये जाने वाले कार्यों के लिये भी, विभाग के पास सामग्री नहीं है।

उपरोक्त से स्पष्ट है कि क्षेत्र में नियुक्त सरकारी कर्मचारियों के लिये नियम एवं कायदों के क्या मायने होते हैं और उनके निर्वहन के बदले, उन्हें किस हद तक प्रताणित होना पड़ता है। जिसके कारण प्रायः वह नित्य गाली-गलौच एवं मारपीट से बचने के लिये, परिस्थितियों के अनुसार, कहीं न कहीं अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वों से समझौता कर, राजनीतिक व्यक्तियों से सम्बन्ध बनाने के लिये विवश हो जाता है। स्पष्ट है कि भारतीय संविधान द्वारा प्रवृत्त मूल अधिकार के अनुसार, सभी को अपनी एवं अपने परिवार की रक्षा करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। जिसके कारण जब विषम परिस्थितियों में भी, उच्चाधिकारियों एवं प्रबन्धन द्वारा उसको, उसके कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वों के निर्वहन में कोई सहयोग प्रदान नहीं करने के ही कारण, उसे मजबूरन अपनी एवं अपने परिवार की रक्षा के लिये, दबाव में कार्य करने के लिये विवश होना पड़ता है। परन्तु इसके बावजूद प्रबन्धन द्वारा उसे पग-पग पर तार-तार होते नियमों के नाम पर, आरोपित एवं निलम्बित करने के अपने एकाधिकार का प्रयोग कर, अपने उत्तरदायित्वों की इतिश्री कर दी जाती है।

इसी प्रकार से एक अन्य अतिमहत्वपूर्ण बिन्दु 11-“भेंट” (क) स्वयं अपनी ओर से या किसी अन्य व्यक्ति की ओर से या किसी ऐसे व्यक्ति से जो उसका निकट सम्बन्धी न हो, प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः कोई भेंट, अनुग्रह धन पुरस्कार स्वीकार नहीं करेगा। 11-(ख) अपने परिवार के किसी ऐसे सदस्य को, उस पर आश्रित हो, किसी ऐसे व्यक्ति से जो उसका निकट सम्बन्धी न हो, कोई भेंट, अनुग्रह धन पुरस्कार स्वीकार नहीं करेगा। बिन्दु 31-“खरीददारियों के भुगतान देना” कोई सरकारी कर्मचारी, चाहे वह उसने किन्हीं भी परिस्थिति में खरीदी हों, उनका भुगतान रोकेगा नहीं अर्थात नियमानुसार किश्तों के अतिरिक्त पूर्ण भुगतान करेगा।” बिन्दु 32-“बिना मूल्य दिये सेवाओं का प्रयोग करना” कोई सरकारी कर्मचारी, बिना यथोचित एवं पर्याप्त मूल्य दिये, किसी ऐसी सेवा या अमोद का प्रयोग न करेगा, जिसके लिये कोई किराया या मूल्य प्रवेश शुल्क लिया जाता हो। उपरोक्त बिन्दुओं के परिपेक्ष्य में यदि सरकारी कर्मचारियों, जोकि रात-दिन मोबाईल फोन के माध्यम से इन्टरनेट एवं सोशल मीडिया से जुड़े रहते हैं तथा Call Attend न करने पर निलम्बित तक कर दिये जाते हैं।

प्रश्न उठता है कि क्या विभागाध्यक्षों को यह ज्ञात नहीं है कि उनके पास महंगे-महंगे मोबाईल फोन कहां से आते हैं। यदि आज विभाग, अपने कार्मिकों से प्रयोग किये जा रहे मोबाईलों के बिल एवं भुगतान का विवरण मांग ले, तो कल से, दो-दो फोन और आई-फोन रखने वाले अधिकारी/कर्मचारी सामान्य फोन लेकर कार्यालय में दिखाई देने लगेंगे। सामान्यतः मलाईदार पदों पर कार्यभार ग्रहण करते ही अधीनस्थों एवं ठेकेदारों के द्वारा मोबाईल फोन आदि भेंट किये जाते हैं, नहीं तो अधिकारियों द्वारा स्वयं मांग लिये जाते हैं। राजनीतिक सम्बन्धों मे तो भेंट बहुत ही महत्वपूर्ण है। वैसे मिठाई, मिठाई न होकर भेट की सांकेतिक भाषा है। बिन्दु 33-“दूसरे की सवारी गाडियां़ प्रयोग में लाना” कोई सरकारी कर्मचारी, सिवाय बहुत ही विशेष परिस्थितियों के होने की दशा में, किसी ऐसी सवारी गाड़ी को प्रयोग में नहीं लायेगा जो किसी असरकारी व्यक्ति की हो या किसी अधीनस्थ कर्मचारी की हो। बिन्दु 34-“अधीनस्थ कर्मचारियों के जरिये खरीददारियां” कोई सरकारी कर्मचारी, अपने अधीनस्थ कर्मचारी से, अपनी ओर से, अपनी पत्नी या अपने परिवार के सदस्य की ओर से, चाहे अग्रिम भुगतान करने पर या अन्यथा उसी शहर में या किसी अन्य शहर में, खरीददारियां करने के लिये, न तो स्वयं कहेगा और न पत्नी को या अपने परिवार के किसी अन्य सदस्य को, जो उसके साथ रह रहा हो, करने की अनुमति देगा। उपरोक्त बिन्दुओं का सामान्यतः खूब उल्लंघन किया जाता है। जिसमें अधीनस्थों की गाड़ियों का प्रयोग, अपनी निजी गाड़ियों में तेल भरवाना एवं शहर की मशहूर चीजों की सूची देकर, महंगे सामान अधीनस्थ अधिकारियों एवं ठेकेदारों से खरीदवाकर मंगाना।

अतः स्पष्ट है कि सरकारी कार्मिकों को अपने निर्धारित कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वों का निर्वहन करने के स्थान पर, उन्हें क्षेत्र के विधायक एवं सांसदों के निवास/कार्यालय पर भेजा जाना, पूर्णतः सरकारी कार्य में दखल आमन्त्रित करने के समान है। कार्मिकों के द्वारा फोन न उठाने की स्थिति यह है कि अति संवेदनशील कार्य में लगे होने के दौरान, मोबाईल पर सीधे-सीधे गाली-गलौच सुनकर, एकाग्रता भंग होने के कारण, किसी निर्दोष की जान को खतरा हो सकता है। स्पष्ट है कि जब उर्जा निगम, पूर्ण जमा योजना के कार्यों को पूर्ण कराने तक के लिये भी सामग्री उपलब्ध न करा पाने में असफल हैं तथा जनप्रतिनिधि एवं माननीय मन्त्री जी तक, उर्जा निगमों के कार्य में सीधे-सीधे हस्तक्षेप करने के लिये कटिबद्ध दिखाई देते हैं। तो यक्ष प्रश्न उठता है कि सभी उर्जा निगमों का एकीकरण करके, उ.प्र.रा.वि.प. का पुनः गठन क्यों नहीं कर दिया जाता। स्पष्ट है कि उर्जा निगमों में सीधे-सीधे राजनीतिक दखल ही उर्जा निगमों में लगातार बढ़ते भ्रष्टाचार एवं घाटे के लिये उत्तरदायी है।

सर्वोच्च न्यायालय में दायर जनहित याचिका सं0 79/1997 पर दिये गये निर्णय में भी तत्कालीन उ0प्र0रा0वि0प0 में राजनीतिक हस्तक्षेप को ही, घाटे का मूल कारण माना गया था तथा सुधार हेतु दिशा-निर्देश दिये गये थे। जिसकी खानापूर्ति, स्थानान्तरण एवं नियुक्ति आदेशों के बिन्दु-2 पर जनहित याचिका सं0 79/1997 के अनुपालन करने का मात्र जिक्र करके की जा रही है। कल ही सोशल मीडिया में छपी खबर के अनुसार माननीय मन्त्री जी के द्वारा, शिकायत के आधार पर बिना किसी जांच के स्थानान्तरण करा दिये गये। जोकि विभागीय कार्य में राजनीतिक हस्तक्षेप का परिचायक है। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!

-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA

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