काश! वितरण कम्पनियों के गठन के बाद तथाकथित वायसराय वापस लौट जाते, तो न हो रही होती आज वितरण कम्पनियां नीलाम

मित्रों नमस्कार! उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बिजली क्षेत्र के पुनर्गठन को ध्यान में रखते हुए यूपी विद्युत सुधार अधिनियम 1999 को अधिनियमित किया गया था और एक स्वायत्त निगमित निकाय के रूप में यूपी विद्युत नियामक आयोग (यूपीईआरसी) की स्थापना की गई थी। तत्पश्चात बड़े जोर-शोर से तमाम कार्मिक आन्दोलन एवं विरोधों को दरकिनार कर, तत्कालीन उ0प्र0रा0वि0प0 का वर्ष 2001 में विघटन कर स्वतंत्र निगमों की स्थापना की गई थी।

जिस प्रकार से मार्च 1947 भारत की आजादी के समय, सत्ता सौंपने एवं ब्रिटिश सेना की वापसी हेतु “लॉर्ड लुइस माउंटबेटन” को ब्रिटिश इंडिया के अंतिम वायसराय के रुप में नियुक्त किया गया था। ठीक उसी प्रकार से प्रदेश में पंजीकृत ऊर्जा निगमों एवं वितरण कम्पनियों के परिचालन हेतु उ0प्र0पा0का0लि0 एवं सम्बन्धित वितरण कम्पनियों में प्रशासनिक अधिकारियों को अध्यक्ष एवं प्रबन्ध निदेशकों के पदों पर नियुक्त किया गया था। भारत की आजादी के मात्र 10 माह बाद, ब्रिटिश इंडिया के अंतिम वायसराय तो ब्रिटेन वापस लौट गये थे। परन्तु वर्ष 2001 में विघटन के बाद बने ऊर्जा निगमों में तथाकथित नियुक्त वायसराय (अध्यक्ष एवं प्रबन्ध निदेशकों के पदों पर) अर्थात प्रशासनिक अधिकारी, सरकार द्वारा ही घोषित MoA को दरकिनार करते हुये, आज भी लगातार जमे हुये हैं।

दि0 12.04.25 को विद्युत सुधार के नाम पर विद्युत वितरण कम्पनियों के तथाकथित वायसरायों के साथ 5-सितारा होटल में आयोजित बैठक में माननीय मुख्य सचिव का यह कथन की योगी सरकार प्रदेश में बेहतर विद्युत व्यवस्था को लेकर कृत संकल्पित है, की आड़ में निजीकरण की प्रक्रिया बिना डरे-रुके पूरी करने की धमकी देना, अचम्भित करने वाला ही नहीं अपितु पूर्णतः अलोकतान्त्रिक है। क्योंकि विद्युत वितरण क्षेत्र से जुड़े जिन विशेषज्ञों के साथ बैठक की गई थी, वे विशेषज्ञ न होकर साधारण भाषा में व्यापारी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। जिस नोएडा पॉवर कम्पनी लि0 की सफलता की बात कही गई है। उसके लाइसेंस का नवीनीकरण किस प्रकार से हुआ, इस पर चर्चा का बाजार गर्म रहा है। निजीकरण का गुणगान करने वाले यह भूल जाते हैं कि निजीकरण उनकी ही असफलता एवं भ्रष्टाचार का जीता जागता प्रमाण पत्र है। यह कटु सत्य है कि राजस्व एवं गुणवत्तापरक विद्युत आपूर्ति दोनों के लिये ही राजनीतिक दृढ़ ईच्छाशक्ति की आवश्यकता है। परन्तु यह कहना कि सभी डिस्कामों को सुदृढ़ करने के लिये सरकार प्रयासरत है पूर्णतः भ्रामक है। क्योंकि तथाकथित नियुक्त वायसराय एक तकनीकी विभाग को विभाग के अनुभवी अभियन्ताओं को दरकिनार कर कतिपय उद्योगपतियों की सलाह एवं निर्देशों के अनुसार उनके ही हितों के लिये चलाने के लिये प्रतिबद्ध हैं। जिसके ही कारण विगत 25 वर्षों में लाखों करोड़ खर्च करने के बावजूद विभाग किसी भी क्षेत्र में आत्म निर्भर नहीं बन पाया है। आज पूरा का पूरा ऊर्जा निगम जुगाड़ और संविदा कर्मियों के कन्धों पर टिका हुआ है। अखबारों में छप रही यह खबर कि राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण में घोटाला सिर्फ एक ईशारा मात्र है।

यदि कोई यह प्रश्न पूछे कि ऐसी कौन सी योजना है जिसमें भ्रष्टाचार नहीं हुआ है और तकनीकी रुप से सुदृढ़ है, तो किसी के पास कोई भी उत्तर नहीं होगा। अध्यक्ष महोदय का यह कहना कि रिफार्म की प्रक्रिया पूर्णतः पारदर्शी एवं सभी मानकों के अनुरुप की जा रही है, हास्यापद है। रिफार्म के नाम पर आयोजित बैठक में NPCL की सफलता का गुणगान करते हुये लोग यह भूल गये, कि वितरण निगमों में नियुक्त तथाकथित वायसराय की शक्ति के सामने तो निजी कम्पनी वाले एक तिनके के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं, तो प्रदेश की सरकारी वितरण कम्पनियां घाटे में क्यों डूब गई? माननीय मन्त्री जी प्रदेश में लोकतन्त्र की बातें करते हैं। परन्तु वे यह नहीं बताते कि लोकतन्त्र में सार्वजनिक सम्पत्ति पर पहला हक जनता का होता है। जिसके लाभ और हानि के सम्बन्ध में जानना उसका संवैधानिक अधिकार है। यह सही है कि आवश्यकतानुसार सरकार जनहित में निर्णय ले सकती है। परन्तु सरकार का भी यह दायित्व है कि वह आवश्यकता एवं परिस्थितियों के सम्बन्ध में जनता को अवगत कराये। कि पहले विद्युत सुधार के नाम पर जो वितरण कम्पनियां बनाई गई, उनमें विभिन्न सुधार योजनाओं के नाम पर बेशुमार धन खर्च करने के बाद, उन्हें अब बिना कोई लाभ प्राप्त किये, बेचा क्यों जा रहा है?

यक्ष प्रश्न उठता है कि क्या निजीकरण का मूल उद्देश्य, विगत् 25 वर्षों से वितरण कम्पनियों में खुली लूट के चलाये जा रहे संयुक्त अभियान पर पर्दा डालना है? क्या यह सत्य नहीं है कि MoA का पालन कराने की जिम्मेदारी प्रदेश सरकार की है। जिसे उसके द्वारा अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु कभी भी लागू ही नहीं किया गया। परिणाम पूरा का पूरा निदेशक मण्डल, बंधक के रुप में सिर्फ कागजों में ही सिमटकर रह गया। जिसका कार्य समय-समय पर सरकार द्वारा जनहित एवं विद्युत सुधार के नाम पर घोषित योजनाओं को, बिन विचारे लागू कराना मात्र रह गया। यही कारण है कि वर्ष 2001 से आज तक, वितरण कम्पनियों के 1 लाख करोड़ से भी अधिक के घाटे में डूब जाने पर भी, घाटे के सम्बन्ध में कभी कोई औपचारिक चर्चा तक नहीं हुई। परन्तु सुधार के नाम पर अब निजीकरण का गुणगान बड़े जोर-शोर से किया जाने लगा है। पता नहीं कि निजीकरण का गुणगान करने के लिये ऊर्जा एवं सिग्नल कहां से प्राप्त हो रहे हैं? यदि सुधार हेतु लागू वर्तमान RDSS योजना के तहत लगाये जाने वाले स्मार्ट मीटर का ही संक्षिप्त विश्लेषण करें, तो ज्ञात होगा। कि जहां एक तरफ विभाग के पास अपने कार्मिकों को वेतन देने के लिये धन नहीं है। तो वहीं भारत सरकार द्वारा मात्र 700 रुपये का लालच देकर, वितरण कम्पनियों पर लगभग रु0 4300 का अतिरिक्त वित्तीय भार डालकर, सभी उपभोक्ताओं के यहां स्मार्ट मीटर स्थापित करने के एक तरफा निर्देश जारी कर, निजी कम्पनियों को लगभग रु0 5000 की दर से मीटर स्थापित करने का रोजगार दे दिया गया है। वितरण निगमों में लगातार 18-18 घण्टे कार्य करने वालों कार्मिकों की Face Recognition System से 8 घण्टे की उपस्थिति दर्ज कराने के लिये करोड़ों रुपये खर्च कराये जा रहे हैं।

प्रश्न उठता है कि आजादी के बाद, यदि वायसराय वापस ब्रिटेन न जाते, तो क्या भारत स्वतन्त्रता के बाद विश्व के मानचित्र पर, कभी एक स्वतन्त्र, सशक्त एवं समृद्ध राष्ट्र के रुप में अपनी पहचान बना पाता? काश 25 वर्ष पूर्व विद्युत कम्पनियों के गठन के बाद घोषित MoA के अनुरुप अध्यक्ष एवं प्रबन्ध निदेशकों की नियुक्ति हुई होती, अर्थात ससमय वायसरायों की विदाई हो जाती, तो आज वितरण कम्पनियां, कहीं न कहीं आत्म निर्भर होकर अपनी आवश्यकताओं को स्वयं पूरी करते हुये गुणवत्तापरक आपूर्ति प्रदान करते हुये राष्ट्र के विकास में अपना योगदान दे रही होती। MoA की अवहेलना के ही कारण किसी भी कम्पनी के लिये सबसे महत्वपूर्ण एवं सशक्त निदेशक मण्डल, बंधक बनकर, सिर्फ कागजों में ही सिमटकर रह गया है।

नियामक आयोग जोकि एक स्वतंत्र संस्था है जो कुछ निश्चित क्षेत्रों में नियमों और विनियमों को बनाता है और लागू करता है। उसमें भी अध्यक्ष की नियुक्ति सरकार की कृपा से होने के कारण, उससे कोई विशेष उम्मीद कर पाना गलतफहमी पालने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अब यह देखना रोचक होगा कि दो वितरण कम्पनियों के निजीकरण एवं अन्य तीन कम्पनियों में, रिफार्म के नाम पर एक बार फिर कितना धन बन्दरबांट करने के लिये प्राप्त होता है। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!

-बी0के0 शर्मा,महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.

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