
मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता। जीवन की अन्तिम पारी खेलते, हमारे बुजुर्ग कार्मिक साथियों के कथित मोर्चा द्वारा निजीकरण के विरोध के नाम पर, बार-बार उपभोक्ताओं की असुविधाओं की आड़ में, अन्दोलन की रूप रेखा बदलकर, वापस वहीं भोजनावकाश के समय मनोरंजन तक सीमित हो जाना, बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाता है। क्योंकि हर बार ऊर्जा प्रबन्धन निजीकरण के विरोध के नाम पर, आन्दोलन के मनोरंजन स्थल से आगे बढ़ने की आहट के साथ ही, कार्मिकों को नियन्त्रित करने हेतु कठोर निर्देशों के साथ-साथ, नियमावली तक में संशोधन कर, यह सन्देश देने में कामयाब रहा है, कि हड़ताल में जाने के बाद अंजाम क्या होगा। जिसके लिए वह किसी न किसी बहाने, क्षेत्र में कुछ अधिकारियों का निलम्बन तथा कुछ संविदा कर्मियों को बर्खास्त कर, अपनी मंशा जाहिर कर देता है। जोकि ऊर्जा प्रबन्धन एवं प्रशासन के लगातार बढ़ते दबाव का जीता जागता प्रमाण है।
यही कारण है कि बार-बार आन्दोलन की घोषणा के बावजूद, तथाकथित बुजुर्ग नेतागण वापस भोजनावकाश पर तालिंया पीटने पर सिमटने के लिए विवश हैं। जिसका तात्पर्य सिर्फ इतना है। कि यदि गाहे-बगाहे निजीकरण के विरुद्ध कोई आन्दोलन हो भी जाता है, तो वह कुछ कदम चलते ही, अपना दम तोड़ देगा। जो स्वतः कतिपय बुजुर्ग साथियों की आन्दोलन की नीति को स्पष्ट करती है। जिससे स्पष्ट रुप से महसूस हो रहा है, कि निजीकरण का औपचारिक विरोध, निजीकरण को रोकने के लिये नहीं, बल्कि उसको निजीकरण की कार्यवाही को कवर अप देने के लिये किया जा रहा है। जिससे कि निजीकरण की प्रक्रिया बिना किसी व्यवधान के सुगमतापूर्वक सम्पन्न हो सके। क्योंकि जब से वितरण कम्पनियों के निजीकरण करने की घोषणा हुई है। निजीकरण की प्रक्रिया अपनी गति से निर्बाध चल रही है।
कथित मोर्चा की तमाम आन्दोलन की धमकी के बावजूद, नियम विरुद्ध अयोग्य Transaction Consultant नियुक्त होकर कार्य कर रहा है। जोकि कथित मोर्चा के प्रशासन एवं प्रबन्धन के साथ कहीं न कहीं अन्दरखाने बने हुए समन्वय को प्रकट करता है। इसी समन्वय के कारण प्रबन्धन आये दिन निलम्बन, बर्खास्तगी कर-कर के व्यापक स्तर पर भय का माहौल बनाये हुये है। भय का आलम यह है, कि अधिकांश अनुभवी अधिकारी/कर्मचारी समय से पूर्व ही VRS ले लेकर पलायन कर रहे हैं। वहीं सेवानिवृत्त अधिकारी/कर्मचारी निजीकरण का विरोध कर रहे हैं। इस चूहे बिल्ली के खेल ने, जहां नियमित कार्मिकों के दिलों में बचे-खुचे साहस को भी लगभग शून्य कर दिया है, तो वहीं प्रबन्धन के आत्मविश्वास को कई गुना बढ़ा दिया है।
यक्ष प्रश्न उठता है कि क्या कतिपय मोर्चा का मूल उद्देश्य ही कार्मिकों के मन में भय उत्पन्न कराना एवं निजीकरण को सुगम बनाना है? क्योंकि यह पूर्णतः स्पष्ट है कि सेवानिवृत्त कार्मिकों एवं बाहरी लोगों को निजीकरण न होने से कोई लाभ प्राप्त नहीं होना है। परन्तु निजीकरण होने से, निजी कम्पनियों से बख्शीश प्राप्त होने की प्रबल सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इस आन्दोलन में एक बात बहुत ही स्पष्ट है, जिस पर कोई भी गौर नहीं कर रहा है। कि जहां एक ओर ऊर्जा प्रबन्धन अपने नियमित कार्मिकों पर नकेल पर नकेल डालने का हर सम्भव प्रयास कर रहा है। तो वहीं सेवानिवृत्त कार्मिकों एवं बाहरी लोगों पर आंखें मूंदें हुए है। जो इस शंका का स्पष्ट प्रमाण है कि यह पूरा का पूरा आन्दोलन, उच्च स्तरीय प्रायोजित आन्दोलन है। जिसका मूल उद्देश्य निजीकरण के जहाज को मंजिल तक पहुंचाने के लिये कवर अप देना है।
इसी के साथ-साथ यह भी सत्य है कि इन बाहरी एवं सेवानिवृत्त कार्मिकों को इस सत्य का पूर्ण ज्ञान है, कि यदि वे लिये गये कार्य से थोड़ा बहुत भी विचलित होने का प्रयास करेंगे, तो उसके परिणाम क्या हो सकते हैं। एक ओर तकनीकी कारणों से निजीकरण हेतु निविदा में विलम्ब होने का बहाना बनाकर, सेवानिवृत्त कथित बुजुर्गों के द्वारा आन्दोलन स्थगित करने की घोषणा की जाती है, तो वहीं प्रदेश के ऊर्जा मन्त्री के द्वारा यह कहा जाना, कि निजीकरण होकर रहेगा। निजीकरण में हो रहे विलम्ब एवं ऊर्जा मन्त्री पर निजीकरण कराने के लिये पड़ रहे दबाव के कारण उत्पन्न हुई हताशा को दर्शाता है। प्रतीत होता है कि जैसे प्रबन्धन के साथ-साथ ऊर्जा मन्त्री ने भी निजीकरण कराने का ठेका लिया हुआ है। जिसका प्रतिफल यह है कि एक ओर नियमित कार्मिकों का कथित मोर्चा से मोहभंग हो रहा है, तो वहीं दूसरी ओर नियमित अधिकारियों/कर्मचारियों के द्वारा, ऊर्जा निगमों को डूबता जहाज मानते हुये, दोनों हाथों से लूट के स्तर को, लूट सको तो लूट, की स्थिति में पहुंचा दिया है। जिसमें उच्चाधिकारी महात्मा बने हुये हैं और अधीनस्थ बगुलाभगत।
परिणामतः बिना बख्शीश के धरातल कोई भी कार्य करा पाना अत्याधिक दुष्कर हो चुका है। बार-बार घोषित आन्दोलन के भोजनावकाश पर पहुंच जाने के पीछे भी, उपभोक्ताओं से विभिन्न कार्यों के एवज में मिलने वाली मलाई एक कारक है। क्योंकि बड़ी जद्दोजहद के बाद, उपभोक्ताओं के साथ व्यापार करने के लिए प्रबन्धन से प्राप्त लाइसेंस को कोई बर्बाद नहीं करना चाहता। वर्तमान परिदृष्य में यह कहना अनुचित न होगा, कि निजीकरण की घोषणा, अधिकारियों एवं कर्मचारियों के लिये लूट की घोषणा एवं एक अन्तिम सुनहरे अवसर के समान है। बेबाक को यह कहने में कोई संकोच नहीं कि जिस दिन निजीकरण हेतु निविदा निकलेगी अथवा निजीकरण अन्तिम दौर में होगा। उसी समय निजीकरण के स्वागत के लिये एक औपचारिक आन्दोलन किया जाना है। जिसकी हवा निकालने के लिये ही, भोजनावकाश के समय, ठेके पर मजमा सजा हुआ है। अर्थात निजीकरण रुकना कोई दैवीय घटना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होगी। क्योंकि एक ओर निजीकरण प्रक्रिया को कवर अप देने के लिए मजमा, तो वहीं दूसरी ओर लूट सके तो लूट में जुटे हुए लोग। शेष बचे खुचे कार्यालयों से सम्बद्ध भी, किसी तरह से लूट का लाइसेंस पाने की तिकड़म भिड़ाने में लगे हुए हैं।
अब प्रश्न उठता है कि इस विषम परिस्थिति में निजीकरण रोकने हेतु अपनी नौकरी का बलिदान करने कौन आगे आयेगा? क्योंकि मुख्यालय के द्वार पर मजमा लगाये बैठे सेवानिवृत्त एवं बाहरी लोगों की तो कोई नौकरी है ही नहीं। यदि बेबाक के सत्य से किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचती है तो उसके लिये खेद है। ईश्वर हम सबकी मदद करे! राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.