प्रशासनिक अधिकारियों की निरंकुशता एवं Chain of command का पूर्णतः ध्वस्त होना, वितरण कम्पनियों के घाटे में चलने के मूल कारण है…

विधुत वितरण कम्पनियों का निजीकरण करने से पूर्व उनके 1.10 लाख करोड़ के घाटे की जांच के लिए जनहित में प्रदेश मुख्यमंत्री को खुला पत्र!

 

माननीय मुख्यमंत्री
उत्तर प्रदेश सरकार
लखनऊ।

महोदय,
उपरोक्त विषयक, सादर संज्ञानित कराना है कि अध्यक्ष उ0प्र0पा0का0लि0 लखनऊ के द्वारा दि0 26.11.2024 को वीडिओ कान्फ्रेन्सिंग के माध्यम से वितरण कम्पनियों के सभी कार्मिकों को उ0प्र0पा0का0लि0 के लगातार बढ़ते वित्तीय घाटे के कारण पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम लि0 वाराणसी एवं दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम लि0 के विघटन एवं निजीकरण करने के फैसले के सम्बन्ध में अवगत कराया गया था। तदानुसार उ0प्र0पा0का0लि0 लखनऊ द्वारा अपने एवं शासन स्तर पर लगातार विद्युत कार्मिकों को निजीकरण के कारण होने वाले लाभ को बताया एवं प्रचारित किया गया। सादर संज्ञानित कराना है कि वर्ष 2000 में तत्कालीन उ0प्र0रा0वि0प0 को मात्र 77 करोड़ के घाटे के कारण, आवश्यक सुधार एवं लाभ की ओर ले जाने हेतु, तीन निगमों में उत्पादन, पारेषण एवं वितरण में विघटित किया गया था। तदुपरान्त वितरण क्षेत्र में पूर्वांचल, मध्यांचल, दक्षिणांचल, पश्चिमांचल एवं केस्को के नाम से वितरण कम्पनियों को, कम्पनी एक्ट-1956 के अन्तर्गत पंजीकृत कराकर पूर्ण स्वामित्व प्रदान किया गया। जिनमें शासन द्वारा डिस्कामों के संचालन एवं गठन हेतु जारी Memorandum of article का पालन न करते हुये सीधे-सीधे प्रबन्ध निदेशक के पदों पर प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति की गई। परन्तु नव गठित वितरण निगम, सुधार एवं लाभ की ओर जाने के स्थान पर, औसतन लगभग रु० 6000 करोड़ प्रति वर्ष की दर से घाटे में डूबते गये और परिणामत: आज उनका घाटा एक लाख, दस हजार करोड़ से भी आगे जा चुका है।

        जहां माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जनहित याचिका संख्या 79/1997 पर दिये गये निर्णय में तत्कालीन उ0प्र0रा0वि0प0 के घाटे में चलने का मूल कारण राजनीतिक हस्तक्षेप माना था। वहीं उस आदेश के पालन का दिखावा मात्र करते हुये, शासन द्वारा सभी ऊर्जा निगमों एवं डिस्कामों के प्रबन्ध निदेशक एवं अध्यक्ष पद पर अपने प्रशासनिक अधिकारियों को नियुक्त करते हुये, उन पर अपना नियन्त्रण रखा। जहां तक वितरण कम्पनियों के पूर्ण स्वामित्व की बात है तो वह भी सिर्फ कागजों तक ही सीमित रही। क्योंकि उन सभी पर उ0प्र0पा0का0लि0 के अध्यक्ष पद पर नियुक्त प्रशासनिक अधिकारी एवं निदेशक मण्डल का नियन्त्रण पूर्ववत् आज भी है। जिसके कारण प्रशासनिक अधिकारियों के द्वारा ऊर्जा निगमों एवं डिस्कामों को अपनी प्रयोगशाला बनाकर रख दिया गया है। जिसके ही कारण आज डिस्कामों का कुल घाटा रु0 110000 करोड़ को भी पार कर गया है। परन्तु इस घाटे का न तो कभी डिस्काम प्रबन्धन, न ही उ0प्र0पा0का0लि0 प्रबन्धन, न ही कार्मिक संगठनों ने और न ही शासन के द्वारा कभी संज्ञान लिया गया। जिससे कि यह प्रतीत होता है कि वितरण कम्पनियों को अधिक से अधिक घाटे में डुबोने में, सभी की एकजुटता थी, वितरण निगमों के घाटे में डूबने के कुछ मूल कारण निम्नवत् हैंः-

► वर्ष 2000 में कम्पनी एक्ट में पंजीकृत वितरण कम्पनियों में Memorandum of article का पालन न करते हुये, डिस्कामों में प्रबन्ध निदेशकों के पद एवं उ0प्र0पा0का0लि0 के अध्यक्ष पद पर सीधे-सीधे प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति कर शासन द्वारा वितरण कम्पनियों को अपने नियन्त्रण में रखते हुए अपनी नीतियों को लागू किया गया। जिसके कारण, सुधार के नाम पर डिस्काम, राजनीतिक हस्तक्षेप का अडडा एवं प्रशासनिक अधिकारियों की प्रयोगशाला बनकर रह गये।

► विगत् लगभग 24 वर्षों में वितरण कम्पनियों में नियुक्त कार्मिकों ने वही कार्य किया, जो उन्हें प्रबन्धन द्वारा दिया गया। जिनमें लापरवाही के नाम पर, हजारों कार्मिकों को स्थान्तरित/निलम्बित कर दण्डित किया गया। कुछ लोगों की भ्रष्टाचार में संलिप्तता के कारण सेवायें तक समाप्त की गई। यदि उन सभी दण्डों को, निगमों के घाटे के परिपेक्ष में देखा जाये, तो वे सभी दण्ड कहीं न कहीं लगातार प्रबन्धन की नीतियों पर पर्दा डालने एवं निगमों के बढ़ते घाटे से, विद्युत कार्मिकों एवं जनता का घ्यान हटाने के लिये ही दिये गये थे। परन्तु प्रबन्धन के विरुद्ध शासन द्वारा कभी भी कोई कार्यवाही नहीं की गई। जबकि विगत् 24 वर्षों में समस्त निर्णय निदेशक मण्डल के नाम पर Memorandum of article को दरकिनार कर नियुक्त प्रशासनिक अधिकारियों के द्वारा लिये गये हैं। जिसमें कार्मिकों का कार्य सिर्फ इतना दायित्व रहा कि उनके द्वारा डिस्कामों के प्रबन्ध निदेशक एवं अध्यक्ष उ0प्र0पा0का0लि0 द्वारा समय-समय पर दिये गये निर्णयों का पालन करना था।

► जिस प्रकार से उ0प्र0पा0का0लि0, डिस्कामों की आवश्यकतानुसार, विद्युत क्रय में, विद्युत उत्पादन करने अथवा बेचने वाली कम्पनियों के हितों का विशेष रुप से ध्यान रखता है, यदि इसी प्रकार से अपनी तराजू अर्थात मीटरों के मानकों एवं उनकी गुणवत्ता पर ध्यान देता, तो विगत् 24 वर्षों में असंख्य मीटर निर्माताओं के मीटरों को बार-बार न बदलना पड़ता। यह आम चर्चा है कि नित्य नये-नये मीटर निर्माताओं से मीटर क्रय करने में बहुत बड़ा खेल खेला जाता है।

► भारत सरकार की DDUGJY-10, 11, 12, New, Saubhagya, ADB एवं RDSS योजनाओं के तहत घर-घर बिजली पहुंचाने, उपभोक्ताओं को निर्बाध आपूर्ति प्रदान करने हेतु, प्रणाली सुदृढ़ एवं प्रणाली सुधार हेतु, हजारों करोड़ की योजनाओं के तहत कार्य कराये गये। जिनका लाभ उपभोक्ता को मिला या नहीं, यह विचारणीय है, परन्तु डिस्काम हजारों करोड़ के घाटे में डूब गये।

► यह सत्य है कि इस वर्ष ग्रीष्म काल में एक दिन में देश में सर्वाधिक लगभग 30000 मेगावाट की विद्युत आपूर्ति का रिकार्ड कायम किया गया। परन्तु उक्त विद्युत आपूर्ति के विरुद्ध राजस्व वसूली की स्थिति पर कभी किसी ने कोई चर्चा नहीं की। परन्तु इसी के साथ-साथ यह भी कटु सत्य है कि उसी विद्युत आपूर्ति के लिये सैकड़ों विद्युत कर्मियों को प्रणाली एवं प्रचालन में खामियों के कारण, अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। जिसके लिये आज तक किसी का भी कोई उत्तरदायित्व निर्धारित नहीं किया गया।

► जिसमें इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि राजनीतिक Welfare की आड़ में, पूर्ण स्वामित्व वाली वितरण कम्पनियों में, लगातार घोर अनियमिततायें की गई। जिन पर नियन्त्रण हेतु वितरण कम्पनियों के निदेशक मण्डलों ने कभी कोई कारगर कदम नहीं उठाये। यह कहना कि बकाया बिलों की वसूली न हो पाने के कारण, डिस्कामों का लगभग 70 हजार करोड़ का बकाया है, जिसकी वसूली के उपरान्त विभाग का घाटा कम हो जायेगा, तो वह सिर्फ सच्चाई से भागने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। क्योंकि उपरोक्त बकाये की वसूली हेतु ही, प्रति वर्ष लगभग दो-बार विलम्ब अधिभार में छूट देते हुये, खूब प्रचार प्रसार किया जाता है। परन्तु एक निश्चित सीमा से ज्यादा धन की वसूली कभी भी नहीं हो पाती है। जिसमें सरकारी संस्थानों का बिल वसूल नहीं हो पाता है। जबकि एकमुश्त समाधान योजना के प्रचार-प्रसार पर अलग से धन व्यय होता है।

► कार्मिक संगठन जिनका किसी भी औद्योगिक संस्थान की उन्नत्ति में बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है। परन्तु कार्मिक संगठनों में नियम विरुद्ध, बाहरी व्यक्तियों के नेत्रत्व में सम्मिलित होने एवं प्रबन्धन द्वारा नियमों को अनदेखा करते हुए, उनसे वार्ता करने के कारण, कार्मिक संगठनों की, निगमों के प्रति निष्ठा एवं समर्पण भाव, निहित स्वार्थ के रुप में प्रतिस्थपित हो जाने के कारण, निगमों में आवश्यकतानुसार कार्य एवं सामग्रियों के मानक निर्धारित करने, योग्यता को बढ़ावा देने, कार्य की गुणवत्ता को मानक स्वरुप करने के विपरीत, प्रबन्धन एवं कार्मिक संगठनों के द्वारा सिर्फ अपनी मनमर्जी चलाई जाती रही है। जिसके कारण आज डिस्काम गुणवत्ताहीन सामग्री एवं कार्य के कचरे के डिब्बे बनकर रह गये हैं।

► उपरोक्त अनियमितताओं पर कोई ऊंगली न उठाये, उसके लिये बात-बात पर, नियम विरुद्ध बिना कोई कारण बताओ नोटिस जारी किये, बिना कोई स्पष्टीकरण मांगे, निलम्बन एवं स्थानान्तरण की कार्यवाही करके, कार्मिकों को पूर्ण वेतन के साथ, प्रणाली से बाहर किया जाता है। जिससे कि निलम्बित कार्मिक प्रणाली से बाहर हो जाता है और उसके स्थान पर किसी अन्य को उसका अतिरिक्त कार्यभार देने से, न तो कार्य में कोई तीव्रता आती है और न ही कार्य की गुणवत्ता में कोई सुधार होता है। कुछ दिनों बाद प्रायः निलम्बित कार्मिक को लम्बित जांच के विरुद्ध कार्य पर बहाल कर दिया जाता है। जिसके कारण सुधार के नाम किये गये स्थानान्तरण एवं निलम्बन की उपयोगिता का कोई महत्व नहीं रह जाता।

► इसी प्रकार पदोन्नत्ति के लिये अनुपयुक्त/अयोग्य अधिकारी, जोकि विभागीय नियमावली के अनुसार पदोन्नत्ति के लिये पूर्णतः अपात्र हैं, जिनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही प्रचलन में हैं। उन अपात्रों को, नियम विरुद्ध उच्च पदों का कार्यभार दिया जाता है। जोकि अपात्र होते हुये भी, प्रबन्धन के निहित स्वार्थ की पूर्ति हेतु, प्रबन्धन के अहसानों के दबाव में ही कार्य करते हैं। जिनका योगदान प्रणाली सुधार में कम, निहित स्वार्थ की पूर्ति में ज्यादा होता है।

► वितरण कम्पनियों में बहुत ही सुनियोजित ढंग से खर्च और आमदनी पर बिना नियन्त्रण किये, सामग्री निर्माता/आपूर्तिकर्ता एवं कार्यदायी संस्थाओं के हितों को घ्यान में रखते हुये, सामग्री एवं कार्य की गुणवत्ता के साथ समझौता किया गया है। जिसके कारण, गारण्टी अवधि में ही अधिकांश विद्युत सामग्री एवं उपकरण क्षतिग्रस्त होते रहे है तथा मलाईदार लाभ के पदों पर नियुक्त कार्मिकों के द्वारा सुनियोजित ढंग से उनको गारण्टी अवधि से बाहर किया जाता रहा है।

► जहां एक ओर देश के किसी भी बैंक द्वारा, किसी भी बचत योजना पर 3% से ज्यादा का ब्याज नहीं दिया जाता, तो वहीं उ0प्र0पा0का0लि0 द्वारा विद्युत क्रय के विरुद्ध लम्बित भुगतान पर 12% ब्याज की दर से विलम्ब शुल्क (LPS) दिया जाता है। जिसके भुगतान में भी कोई नियम कायदे नहीं हैं। किसको कितना भुगतान करना है यह सीधे-सीधे अध्यक्ष उ0प्र0पा0का0लि0 द्वारा तय किया जाता है। इसके विपरीत, विभाग द्वारा उपभोक्ता को बेची गई बिजली के विरुद्ध अपने बिलों पर वर्ष में लगभग 2 बार, विलम्ब अधिभार में 100% तक की छूट प्रदान की जाती है।

महोदय, भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की आपकी नीति के अनुसार प्रदेश की जनता एवं वितरण कम्पनियों के कार्मिकों को यह जानने का हक है, कि जब उनके द्वारा उच्चाधिकारियों के निर्देशानुसार लगातार कार्य किया गया। तो वितरण कम्पनियों के घाटे के लिये वो कैसे उत्तरदायी हैं। जिस प्रकार से उनके विरुद्ध लापरवाही एवं भ्रष्टाचार के नाम पर लगातार कठोर कार्यवाहियां होती आ रही हैं, तो प्रबन्धन में बैठे लोगों के आज तक उत्तरदायित्व निर्धारित क्यों नहीं किये गये। डिस्कामों के हजारों करोड़ के घाटे के कारणों की जांच क्यों नहीं करायी गई। निजी कम्पनियों के पास वो कौन सा अलादीन का चिराग है कि निजी कम्पनियां आते ही गुणवत्ता युक्त विधुत आपूर्ति करने के साथ-साथ लाभ में कार्य करेंगी। क्योंकि जिस विभाग को देश के प्रतिष्ठित प्रशासनिक अधिकारी चला पाने में असमर्थ रहे, उसको निजी कम्पनियां आते ही निर्बाध आपूर्ति देने के साथ-साथ लाभ में चलायेंगी। जिसमें इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता, कि एक सुनियोजित तरीके से प्रबन्धन एवं कार्मिकों के द्वारा आपसी मिलीभगत कर विद्युत वितरण क्षेत्र को लगातार घाटे में धकेला गया है। रु० 110000 करोड़ (लगभग) के बहुत बड़े घाटे के कारणों एवं साक्ष्यों पर पर्दा डालने हेतु ही घाटे के कारणों की बिना जांच कराये, वितरण कम्पनियों का निजीकरण निजी कम्पनियों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से प्रस्तावित किया गया है। क्या यह आशंका नहीं होगी, कि राजनीतिक Welfare के नाम पर ऊर्जा मन्त्रालय, समय-समय पर अनुदान एवं अन्य मदों में निजी कम्पनियों को अतिरिक्त भुगतान करते हुये, उन्हें लाभ पहुंचाने का प्रयास नहीं करेगा।

अतः उपरोक्त के परिपेक्ष्य में, संगठन सर्वसम्मत्ति से जनहित एवं कार्मिक हितों में वितरण निगमों का निजीकरण करने से पूर्व, उनके लगातार बढ़ते घाटे के कारणों की, निम्नलिखित बिन्दुओं पर आपसे उच्च स्तरीय जांच कराने की सादर मांग करता हैः

1. वर्ष 2000 के बाद से आज तक डिस्कामों में सुधार के नाम पर क्या-क्या उपाय किये गये और उनका परिणाम क्या रहा।

2. क्या नित्य मैराथन VC के माध्यम से समीक्षा करने से होने वाले लाभ एवं हानियों का आकलन किया गया? क्योंकि VC से पूर्व VC की तैयारी में, VC के दौरान समीक्षक अधिकारी के प्रश्नों का उत्तर देने एवं उनके निर्देशों को नोट करने में तथा VC के बाद बाद दिये गये निर्देशों के अनुपालन हेतु कार्य योजना बनाने में, सहायक अभियन्ता से लेकर निदेशकों तक के कार्य वहीं के वहीं रुक जाते हैं। जिसका प्रभाव सीधे-सीधे अन्य कार्यों पर पड़ता है। जबकि वास्तविकता यह है कि VC के दौरान समीक्षा का महत्व सिर्फ और सिर्फ आंकड़ेबाजी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। क्योंकि यदि नित्य मैराथन VC करने से वितरण कम्पनियों में कार्यकुशलता प्रभावित होती तो डिस्काम घाटे से कब का उबर गये होते।

3. नित्य VC के माध्यम से सभी स्तर के अधिकारियों के साथ समीक्षा करने के साथ-साथ उनको सीधे निर्देश दिये जाने एवं हर चीज का सीधे-सीधे स्वतः संज्ञान लेने के कारण क्या Chain of command पूरी तरह से ध्वस्त नहीं हो गई है। जिसमें अध्यक्ष उ0प्र0पा0का0लि0, प्रबन्ध निदेशक डिस्काम द्वारा सीधे-सीधे बीच के सभी अधिकारियों को Bypass करते हुये, अवर अभियन्ता तक को निर्देश दिये जाते हैं अथवा VC से समीक्षा के दौरान ही कनिष्ठ अधिकारी के विरुद्ध असंसदीय भाषा तक का प्रयोग करते हुये अपमानित तक किया जाता है तथा बिना किसी अनुशासनात्मक प्रक्रिया को अपनाये सीधे निलम्बित करने तक के फरमान जारी कर दिये जाते हैं।

4. क्या सुनियोजित ढंग से Chain of command पूरी तरह से ध्वस्त करने के बाद, प्रबन्धन निहित स्वार्थ में निरंकुश होकर Misuse of the office करते हुये, विधि और विधान को समाप्त करते हुये सिर्फ अपनी मर्जी से कार्य कर रहे हैं। जिसमें कार्मिकों की योग्यता का उचित प्रयोग शून्य हो चुका है तथा वितरण कम्पनियां लगातार घाटे में चल रही है।

5. Chain of command पूरी तरह से ध्वस्त होने के कारण, कार्यदायी संस्थायें Engineer of contract एवं अनुबन्धकर्ता अधिकारी को Bypass करते हुये, सीधे-सीधे प्रबन्धन से निर्देश लेती हैं और उन्हीं के माध्यम से अधिकारियों को कार्य का मापन एवं कार्य के झूठे-सच्चे बिल का सत्यापन करने का दबाव बनवाती हैं। जिसके कारण, बीच के सभी अधिकारियों की उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। चूंकि प्रशासनिक अधिकारियों के कैडर में वरिष्ठ अधिकारियों के समक्ष कनिष्ठ अधिकारी “Yes Sir” के अतिरिक्त कुछ भी बोलने की गुस्ताखी कभी नहीं करता। अतः वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा दिये गये निर्देश अथवा प्रस्ताव बिना किसी रोक-टोक/टीका-टिप्पणीं के सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिये जाते हैं।

6. जब डिस्कामों के द्वारा एक ही वर्ष में बार-बार विलम्ब अधिभार में छूट प्रदान कर, बकाया वसूलने के प्रयास किये जाते हैं, तो ऊर्जा क्रय करने पर बकाये के भुगतान पर, बैंक द्वारा देय ब्याज से, चार गुना से भी अधिक का ब्याज (12%) किस आधार पर LPS के रुप में देना निर्धारित किया गया है।

7. क्या प्रदेश की वितरण कम्पनियों के घाटे के लिये प्रबन्धन, कार्मिक, राजनीतिक, विद्युत सामग्री निर्माता एवं कार्य हेतु नियुक्त कार्यदायी संस्थाओं का अप्रत्यक्ष रुप से पर्दे के पीछे किया गया कोई गठबन्धन उत्तरदायी है।

8. उदाहरण के लिये विद्युत लाईनों में प्रयुक्त अधिकांश Poles, conductors, Transformers, VCBs, आदि गुणवत्ताहीन हैं। जिसके लिये यदि उत्तर प्रदेश में अथवा प्रदेश के बाहर निजी कम्पनियों के द्वारा चलाई जा रही वितरण कम्पनियों के कार्य एवं उनके द्वारा प्रयुक्त विद्युत सामग्रियों की तुलना, उत्तर प्रदेश राज्य के डिस्कामों में प्रयुक्त सामग्री एवं कार्य से की जाये। तो आंखें खुली की खुली रह जायेंगी। निजी कम्पनियों के लाभ में चलने का मूल कारण है कि उनके पास अपनी आवश्यकताओं की पूर्ण जानकारी होना है तथा अपनी आवश्यकतानुसार वे अपने मानक स्वयं निर्धारित कर, विद्युत सामग्री का क्रय करती हैं। जिसके कारण उनका Infra हमारे डिस्कामों के Infra से अधिक गुणवत्तापरक एवं टिकाऊ होता है।

9. डिस्कामों को अपने कार्यक्षेत्र में विभिन्न योजनाओं के अन्तर्गत बदले जाने वाले Poles, conductors, Transformers, VCBs, आदि की सामान्य स्थिति में औसत आयु का न तो कोई ज्ञान है और न ही कोई रिकार्ड। डिस्कामों के द्वारा इस बात का कोई विश्लेषण नहीं किया जाता कि बदली जाने वाली सामग्री कब स्थापित की गई थी और कितने समय बाद वह खराब हो गई। उसके खराब होने के क्या कारण हैं। कहीं वह खराब गुणवत्ता के कारण तो क्षतिग्रस्त नहीं हुई है?

10. विगत् 24 वर्षों में वितरण कम्पनियों एवं उ0प्र0पा0का0लि0 के प्रबन्धन द्वारा सरकार से धन मांगने के अतिरिक्त, किसी भी क्षेत्र में न तो आत्मनिर्भरता प्राप्त की गई और न ही आत्म निर्भर बनने की कोई कार्य योजना बनाकर उन पर कोई कार्य किया है।

11. आज की तारीख में विद्युत अनिवार्य आवश्यक सेवाओं की श्रेणी में आती है। जिसके बिना जीवन एवं विकास की कल्पना निरर्थक है। जिसके लिये वितरण निगम 24 घण्टे अनवरत् युद्ध स्तर पर कार्य करते हैं। विद्युत आपूर्ति में व्यवधान उत्पन्न होने पर, उसका सीधा प्रभाव प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र, औद्योगिक क्षेत्र, वाणिज्य क्षेत्र के साथ-साथ भारतीय रेल पर भी पड़ता है। जोकि प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश की राजनीति को भी प्रभावित करती है। निजीकरण होने पर यदि विद्युत व्यवस्था डगमगायेगी, तो सरकार की योजनाओं के साथ-साथ सरकार की छवि भी प्रभावित होगी। जिसके लिये क्या सरकार को आगे आकर निजी कम्पनियों को वित्तीय अनुदान देने पर विवश होना ही पड़ेगा।

12. जिन वितरण कम्पनियों को सरकार के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी, पिछले 24 वर्षों से चला रहे हैं तथा निरन्तर अथक प्रयासों के बावजूद, वितरण कम्पनियों के लगातार बढ़ते घाटे को नियन्त्रित नहीं कर पाये। अन्ततः अपनी विफलता पर पर्दा डालने के उद्देश्य से, ऊर्जा निगमों को लगातार बढ़ते घाटे की लाईलाज बीमारी से ग्रसित मानते हुये, उसके इलाज हेतु, वितरण कम्पनियों का निजीकरण करने हेतु विवश हैं। क्या सुधार की समस्त योजनायें कभी कागजों से धरातल पर नहीं आ पायी। क्या लगातार बढ़़ते घाटे पर आंख मूंदने एवं अब अचानक घाटे के ही कारण निजीकरण का निर्णय लेने के पीछे कोई साजिश एवं रु० 110000 करोड़ (लगभग) के घाटे के कारणों एवं साक्ष्यों पर पर्दा डालना है।

13. क्या निजी उद्योगपतियों के पास कोई अलादीन का चिराग है अथवा उनके पास कोई महामानव हैं? जिस उद्योग को चलाने में सरकार विफल हो चुकी है, उसको वो खरीदकर अथवा उसमें बड़ी हिस्सेदारी लेकर, वे उसमें सुधार कर देंगे।

14. क्योंकि जिस विभाग को देश के प्रतिष्ठित प्रशासनिक अधिकारी चला पाने में असमर्थ रहे, उसको निजी कम्पनियां आते ही निर्बाध आपूर्ति देने के साथ-साथ लाभ में चलायेंगी। क्या निजी उद्योगपतियों के पास कोई अलादीन का चिराग है अथवा उनके पास कोई महामानव हैं? जिस उद्योग को चलाने में सरकार विफल हो चुकी है, उसको वो खरीदकर अथवा उसमें बड़ी हिस्सेदारी लेकर, वे उसमें सुधार कर देंगे। क्या सुनियोजित तरीके से प्रबन्धन एवं कार्मिकों के द्वारा आपसी मिलीभगत कर विद्युत वितरण क्षेत्र को लगातार घाटे में धकेला गया है। रु० 110000 करोड़ (लगभग) के बहुत बड़े घाटे के कारणों एवं साक्ष्यों पर पर्दा डालने हेतु ही घाटे के कारणों की बिना जांच कराये, वितरण कम्पनियों का निजीकरण, निजी कम्पनियों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से प्रस्तावित किया गया है।

15. क्या वितरण कम्पनियों के घाटे के लिये, प्रबन्धन के साथ-साथ विद्युत कार्मिक एवं उनके कार्मिक संगठनों का वितरण कम्पनियों के प्रति कोई निष्ठा न होना है। जिसका प्रमाण है कि वितरण कम्पनियों के घाटे का लगातार बढ़ना। परन्तु आश्चर्यजनक रुप से वितरण कम्पनियों के साथ जुड़ी निजी कम्पनियां एवं ठेकेदार सभी बड़ी तेजी से उन्नत्ति कर रहे हैं।

16. क्या वितरण कम्पनियों के घाटे के लिये, प्रबन्धन के साथ-साथ विद्युत कार्मिक एवं उनके कार्मिक संगठनों का कोई गठजोड़ उत्तरदायी है?

17. क्या निहित स्वार्थ में या अपने अहम के कारण ही बात-बात पर कार्मिकों को निलम्बित किया जाता है तथा कुछ दिन बाद ही लम्बित जांच के विरुद्ध उन्हें बहाल कर दिया जाता है। यदि कोई प्रबन्धन के निर्णय के विरुद्ध न्यायालय की शरण में जाता है, तो उसे अपने “अहम” को चुनौती देना मानते हुये, काला पानी अर्थात कहीं दूर-दराज स्थान्तरित कर सम्बद्ध कर दिया जाता है।

18. क्या निलम्बन के कारण, कार्मिक के प्रणाली से बाहर होने एवं उसके स्थान पर किसी अन्य को उसका अतिरिक्त कार्यभार देने से, कार्य में कोई तीव्रता आती है अथवा कार्य की गुणवत्ता में कोई सुधार होता है। जबकि प्रायः निलम्बित कार्मिक को निलम्बन के कुछ दिनों के बाद ही लम्बित जांच के विरुद्ध कार्य पर बहाल कर दिया जाता है। जिसके कारण सुधार के नाम किये गये निलम्बन की प्रणाली में उपयोगिता के स्थान पर कार्य की तीव्रता एवं गुणवत्ता प्रभावित होती है। जिसके कारण कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि कतिपय ठेकेदार अथवा सामग्री आपूर्तिकर्ता का मार्ग सुगम बनाने के लिये ही निलम्बन की कार्यवाही की गई है।

19. एक ही प्रकार की अनियमितता पर अनुशासनात्मक कार्यवाही में भेदभाव किया जाता है। जिससे यह प्रतीत होता है कि अनुशासनात्मक कार्यवाही का उद्देश्य सुधार न होकर निहित स्वार्थ से प्रेरित होता है। यही कारण है कि अनुशासनात्मक कार्यवाही की समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है? जिसके कारण प्रचलित अनुशासनात्मक कार्यवाही पर नियम कायदों की बात करने वाला कार्मिक कभी भी अनुशासनात्मक कार्यवाही से मुक्त नहीं हो पाता है। जबकि वास्तविक रुप से आरोपी जांच अधिकारी एवं उच्चाधिकारियों की ईश्वर से तुलना करने पर या तो बहुत जल्द दोष मुक्त हो जाते हैं अथवा पदोन्नत्ति के लिये अपात्र होने के बावजूद उच्च पद का अतिरिक्त कार्यभार पा लेते हैं। प्रायः यह देखा गया है कि गम्भीर आरोपों के आरोपियों की जांच कभी आगे नहीं बढ़ती है।

20. क्या प्रबन्धन एवं कार्मिक निजी कम्पनियों की Corporate Sponsored Management की नीति के तहत Marketing Agent के रुप में कार्य कर रहे हैं। जिसके अन्तर्गत दि0 25.11.2024 को जिस प्रकार से स्वयं अध्यक्ष उ0प्र0पा0का0लि0 द्वारा निजीकरण के फायदे बताये गये थे, जिनको सुन कर ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे निजी कम्पनी का कोई प्रतिनिधि, अपनी कम्पनी का प्रचार कर रहा हो।

21. क्या वर्ष दो-दो बार उपभोक्ता के बिल पर विलम्ब अधिभार में छूट प्रदान करने से बकायेदारों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। क्योंकि समय पर ईमानदारी से जमा करने वाले उपभोक्ताओं को कोई लाभ प्रदान नहीं किया जाता है।

22. क्या डिस्कामों एवं उ0प्र0पा0का0लि0 के पास ऐसे कोई आंकड़े हैं, जिसमें उन्हें अपने यहां उपलब्ध तकनीकी विशेषज्ञों, ईमानदार एवं निष्ठावान अधिकारियों एवं कर्मचारियों की कोई जानकारी हो।

23. क्या विशेषज्ञ, ईमानदार एवं निष्ठावान कार्मिकों को कार्य से दूर रखने के लिए ही, प्रायः बात-बात पर, बिना कोई कारण बताओ नोटिस जारी किये, बिना कोई स्पष्टीकरण मांगे, नियम विरुद्ध निलम्बन एवं स्थानान्तरण की कार्यवाहियां की जाती हैं।

24. क्या स्थानान्तरण नीति दिखावटी है। क्योंकि जब उच्चाधिकारी चाहते हैं, तभी ताश की गडडी की तरह फेंटते हुये, कार्मिकों का स्थानान्तरण कर दिया जाता है। नियुक्ति में योग्यता एवं आवश्यकता का कोई आधार नहीं होता। जिसके कारण Civil, Mechanical & IT Engineers को Electrical Engineers के स्थान पर नियुक्त कर दिया जाता है।

25. क्या निहित स्वार्थ में पदोन्नत्ति के लिये अनुपयुक्त/अयोग्य अधिकारी, जोकि विभागीय नियमावली के अनुसार पदोन्नत्ति के लिये पूर्णतः अपात्र हैं, जिनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही प्रचलन में हैं। उन अपात्रों को नियम विरुद्ध, उच्च पदों का कार्यभार दिया जाना तथा योग्य अधिकारियों को पदोन्नति प्रदान कर कार्यालयों से सम्बद्ध किया जाना, वितरण कम्पनियों के घाटे में डूबने का कारण नहीं है।

26. क्या प्रति वर्ष धार्मिक, राजनीतिक एवं कांवड़ यात्रा के नाम पर फिजूलखर्ची को समाप्त करने हेतु आजतक कोई स्थाई समाधान पर विचार किया गया? कांवड़ अथवा अन्य किसी भी जुलूस आदि के आयोजन पर विधुत पोलों पर प्लास्टिक की पन्नियां बांधना, क्या फिजूलखर्ची एवं वितरण कम्पनियों की योग्यता के साथ-साथ उनकी छवि को धूमिल नहीं करता।

27. क्या कभी किसी कार्य योजना को लागू करने से पूर्व, दूरदर्शिता का परिचय देते हुए, उसके रख-रखाव हेतु अतिरिक्त सामग्री की उपलब्धता सुनिश्चित की गई। जिससे कि किसी लाईन अथवा उपकरण में कोई खराबी आने पर, खराबी को मौके पर ही ससमय दूर किया जा सके। जबकि प्रायः वितरण कम्पनियों की अदरूदर्शिता के कारण, अतिरिक्त कलपुर्जे एवं लाईन सामग्री के अभाव में, जनता एवं उच्चाधिकारियों के दबाव में जुगाड़ के माध्यम से खराबी को दूर करने का प्रयास किया जाता है।

28. केन्द्र सरकार द्वारा पोषित विद्युतिकरण, प्रणाली सुधार एवं सुदृढ़ीकरण की योजनाओं के विरुद्ध कराये गये कार्यों के भुगतान करने हेतु, एक सोची समझी नीति के तहत, कार्य सत्यापन की औपचारिकता पूर्ण करने हेतु ऐसे लोगों को डिस्कामों में भेजा जाता है, जो कि कार्य की न तो मूलभूत जानकारी रखते हैं और न ही उनके पास उन कार्यों के सत्यापन का कोई अनुभव है। विदित हो कि ऊर्जा निगमों में कोई पद उसकी योग्यता एवं अनुभव का परिचायक नहीं है। मुख्यालयों पर नियुक्त अधिकांश अभियन्ता सिर्फ और सिर्फ बाबू से ज्यादा अहमियत नहीं रखते। जिनका मूल कार्य उच्चाधिकारियों के द्वारा निर्देशित प्रस्ताव/पत्र का ड्राफ्ट तैयार करना होता है। जिसमें उनका विवेक कम उच्चाधिकारियों का विवेक ज्यादा होता है।

29. उपरोक्त योजनाओं के कार्यों में प्रयुक्त सामग्री की गुणवत्ता के परीक्षण के नाम पर डिस्कामों में कार्यरत् क्वालिटी सेल का मूल कार्य ही यह होता है कि किस निर्माता की कौन सी सामग्री पास करानी है और कौन से निर्माता की नहीं। उसी प्रकार से निरीक्षणकर्ता अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है। जहां योग्यता से ज्यादा गुणवत्ताहीन सामग्री को पास करने की औपचारिकता पूर्ण करने हेतु अधिकारियों की आवश्यकता होती है।

30. अधिकांश विद्युत सामग्री की गारण्टी अवधि विद्युत भण्डार केन्द्र में ही रखे-रखे समाप्त हो जाती है अथवा विद्युत सामग्री/उपकरण का निर्माण, निर्माता द्वारा कुछ इस प्रकार से किया जाता है कि वह सामग्री/उपकरण गारण्टी अवधि बमुश्किल पूर्ण कर पाती है। जहां निर्माता को सामग्री/ उपकरण की औसत आयु से कुछ भी लेना देना नहीं होता है।

31. जिस प्रकार से एक ट्रक कोई सामान लेकर अपने गन्तव्य की ओर बढ़ता है और उसे निर्धारित टोलों के अतिरिक्त अस्थाई उगाही के टोलों पर कर देना होता है। कुछ इसी प्रकार से सामग्री निर्माताओं एवं ठेकेदारों को भी अपने गुणवत्ताहीन सामग्री एवं कार्य के सत्यापन हेतु, मेज से मेज तक उचित चिकनाई युक्त, उचित मात्रा में मख्खन के पैकेट देने होते हैं। जिससे कि फाईल चिकनाई युक्त सतह पर अच्छी तरह से फिसलती हुई, निर्बाध आगे बढ़ती रहे।

32. वितरण परिवर्तकों की Energy Audit करने, विद्युत चोरी रोकने एवं Load Balancing करने हेतु, परिवर्तकों पर बार-बार DT Meter लगाए जाते रहे हैं। जिससे कि Load के अनुसार, विभिन्न Circuits में उचित क्षमता के केबिल एवं तार का प्रयोग करते हुये विद्युत चोरी रोकी जा सके। परन्तु उन DT Meters की रीडिंग एवं MRI कभी नहीं होती है। जोकि DT Meters पर किये गये व्यय की उपयोगिता पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है। जो यह दर्शाता है कि अधिकांश योजनायें सिर्फ निहित स्वार्थ में मात्र कार्य की औपचारिकताएं पूर्ण करने के लिए बनाई जाती हैं।

33. ऐसा क्या कारण है कि वितरण कम्पनियों अपने कार्मिकों के स्थान पर निजी कम्पनियों के सलाहकारों पर ही पूर्णतः निर्भर हैं। जबकि वितरण कम्पनियों के पास योग्यता एवं अनुभव की कोई कमी नहीं है।

34. क्या निगमों के पास ऐसा कोई विंग है जोकि वितरण कम्पनियों की आवश्यकताओं हेतु शोध करता हो।

35. वितरण कम्पनियों के पास अपने यहां प्रयोग किये जाने वाले उपकरणों एवं मीटरों की गुणवत्ता की जांच हेतु कोई NABL Lab नहीं है। जिसके ही कारण वितरण कम्पनियों में गुणवत्ताहीन सामग्रियों का भण्डार है।

36. क्या विगत् 24 वर्षों में बार-बार वितरण निगमों के निजीकरण की चर्चाओं ने, उत्प्रेरक का कार्य करते हुए, कार्मिकों की निष्ठायें प्रभावित कर, अनियमितताओं को बढ़ावा नहीं दिया।

37. क्या इसकी समीक्षा नहीं की जानी चाहिए कि गैर संवर्गीय एवं गैर विभागीय लोगों का नियम विरुद्ध कार्मिक आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेना और कार्यरत् कार्मिकों के कार्मिक संगठनों का नियम विरुद्ध नेतृत्व करने के पीछे, उनका क्या उद्देश्य है।

38. क्या कार्मिक संगठनों ने कार्मिकों की सुविधाओं एवं वेतन के अतिरिक्त निगमों के घाटे के बारे में कभी विचार किया है।

39. क्या ऊर्जा निगमों में, कार्मिक आन्दोलनों में 10-10 वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त कार्मिकों एवं बाहरी लोगों की उपस्थिति, कार्यरत् कार्मिकों की अक्षमता अथवा उनके गले तक अनियमितताओं में डूबने का प्रतीक नहीं है।

40. क्या ऊर्जा निगमों में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जनहित याचिका संख्या 79/1997 पर दिये गये निर्देशों का अनुपालन किया जा रहा है?41. वितरण कम्पनियों में विद्युत चोरी की रोकथाम हेतु, डिस्कामों के खर्चे पर, डिस्कामों लिये पूर्णतः समर्पित अतिरिक्त 75 थाने बनाये गये थे। जिनसे क्या लाभ प्राप्त हुआ उसकी कोई समीक्षा नहीं की गई। क्योंकि डिस्कामों का बकाया एवं घाटा पूर्ववत् नित्य बढ़ रहा है। परन्तु इन 75 थानों एवं उनमें Deputation पर उ0प्र0पुलिस के नियुक्त सिपाही से लेकर इन्सपेक्टर तक के वेतन पर होने वाले भारी भरकम व्यव को, वितरण कम्पनियां वहन करने के लिये विवश हैं।

42. वितरण कम्पनियों के कार्यकलापों एवं जनहित को सुनिश्चित करने के लिये, शासन द्वारा Umpire के रुप में नियुक्त “Regulatory commission” का अतिरिक्त खर्चा, जोकि वितरण कम्पनियों के ARR का 4.5% है तथा वितरण कम्पनियों द्वारा देय है। जिससे डिस्कामों पर अतिरिक्त वित्तीय भार बढ़ा है।

43. दि0 14.12.2024 को दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित खबर कि ‘‘कारपोरेशन 49.22 प्रतिशत लाईन हानियां दिखाकर कराना चाह रहा है निजीकरण’’ जोकि ऊर्जा प्रबन्धन की वितरण कम्पनियों के निजीकरण कराने में भूमिका को कहीं न कहीं सन्दिग्ध दर्शाता है।

44. चूंकि प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर के आशीर्वाद से किसी न किसी विशेष गुण से युक्त है। जिसकी पहचान और उचित उपयोगिता ही सफल प्रबन्धन की पहचान है। जिस प्रकार से भगवान श्री राम ने लंका भेजने के लिए रुद्र अवतार, केसरी नंदन हनुमान जी को, उनकी विशेष योग्यता के अनुसार चुना था।

यदि उ0प्र0पा0का0लि0 एवं उसके अधीन वितरण कम्पनियां अपने कार्मिकों का भगवान श्री राम की तरह उनकी योग्यता एवं अनुभव के अनुसार उन पर अपना विश्वास जताकर, निगम हित में उनकी नियुक्ति करती। तो उ०प्र०पा०का०लि० एवं वितरण कम्पनियों को न तो निजी कम्पनियों के सलाहकार एवं बाहरी सामग्री निर्माताओं एवं ठेकेदारों से सलाह लेने हेतु अतिरिक्त व्यय नहीं करना पड़ता तथा वितरण कम्पनियों को अपनी आवश्यकता एवं उनके मानकों का उचित ज्ञान होता। जिससे कि विभाग में फिजूलखर्ची एवं आये दिन गुणवत्ताहीन सामग्री एवं कार्यों के कारण होने वाले ब्रेक डाउन तथा नित्य घटने वाली घातक विद्युत दुर्घटनाओं से बचा जा सकता था। जिसके फलस्वरुप वितरण कम्पनियां का घाटा कम होना सम्भावित हो जाता।

         अतः संगठन सर्वसम्मत्ति से जनहित में आपसे सादर अनुरोध करता है कि कृपया विगत् 24 वर्षों से लगातर (लगभग) रु0 6000 करोड़ प्रतिवर्ष की दर से घाटे में चल रही वितरण कम्पनियों का निजीकरण करने से पूर्व, उनके घाटे के कारणों का विश्लेषण अवश्य ही कराया जाये। जिसमें यह सम्भावित है कि एक सुनियोजित तरीके से विद्युत वितरण क्षेत्र को लगातार घाटे में धकेला गया है। क्योंकि वितरण कम्पनियों के लगातार घाटे का मूल कारण राजनीतिक Welfare प्रबन्धन की गलत नीतियां, अनियमितताओं पर नियन्त्रण करने में असफलता, योग्यता का उचित उपयोग न करना, निहित स्वार्थ में अयोग्यता को प्राथमिकता प्रदान करना है। बिना उपरोक्त कारणों की जांच किये, वितरण कम्पनियों का निजीकरण, रु0 110000 करोड़ (लगभग) के घाटे के कारणों एवं साक्ष्यों पर पर्दा डालने के समान होगा।

जनहित एवं निगम हित में सहयोगी भावनाओं के साथ कृत संकल्प, सादर।

बी0 के0 शर्मा
महासचिव

प्रतिलिपि निम्न को सादर सूचनार्थ एवं आवश्यक कार्यवाही हेतु प्रेषित हैः-
1. माननीय ऊर्जामन्त्री, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ।
2. माननीय मुख्य सचिव, उत्तर प्रदेश शासन, लखनऊ।
3. माननीय अपर सचिव (ऊर्जा), उत्तर प्रदेश शासन, लखनऊ।

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    UPPCL Media

    सर्वप्रथम आप का यूपीपीसीएल मीडिया में स्वागत है.... बहुत बार बिजली उपभोक्ताओं को कई परेशानियां आती है. ऐसे में बार-बार बोलने एवं निवेदन करने के बाद भी उस समस्या का निराकरण नहीं किया जाता है, ऐसे स्थिति में हम बिजली विभाग की शिकायत कर सकते है. जैसे-बिजली बिल संबंधी शिकायत, नई कनेक्शन संबंधी शिकायत, कनेक्शन परिवर्तन संबंधी शिकायत या मीटर संबंधी शिकायत, आपको इलेक्ट्रिसिटी से सम्बंधित कोई भी परेशानी आ रही और उसका निराकरण बिजली विभाग नहीं कर रहा हो तब उसकी शिकायत आप कर सकते है. बिजली उपभोक्ताओं को अगर इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई, बिल या इससे संबंधित किसी भी तरह की समस्या आती है और आवेदन करने के बाद भी निराकरण नहीं किया जाता है या सर्विस खराब है तब आप उसकी शिकायत कर सकते है. इसके लिए आपको हमारे हेल्पलाइन नंबर 8400041490 पर आपको शिकायत करने की सुविधा दी गई है.... जय हिन्द! जय भारत!!

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