
आप सभी को पवित्र माह ”श्रावण मास“ की हार्दिक शुभकामनायें! भगवान शिव जी के जन्म का पवित्र महीना प्रारम्भ हो चुका है। देवों के देव महादेव के “द्वादश ज्योतिर्लिंगों” के साथ-साथ सिद्ध पीठों पर, जल चढ़ाने के संकल्प के साथ, अपने काम-धन्धों को छोड़कर, विभिन्न प्रदेशों से अपने संकल्पानुसार पवित्र नदियों का जल लाने के लिये भक्तजन सड़कों पर निकल चुके हैं। चूंकि महादेव पृथ्वी पर इन्सानों के साथ असुरों के भी ईष्ट हैं अतः असुरी कृत्यों के आधार पर अपना जीवन यापन करने वाले भी, ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये कठिन कांवड़ यात्रा करते हैं।
आज पूरा का पूरा भारतवर्ष शिवमयी हो चुका है। शिवभक्तों की इस पवित्र यात्रा को सफल बनाने के लिये प्रशासन के साथ-साथ, बिजली विभाग भी मुस्तैद है। बहुतों की स्मृति में होगा कि किस प्रकार, गत् वर्ष मेरठ में एक ऊँची कांवड़ के विद्युत लाईन के सम्पर्क में आ जाने के कारण, एक हृदयविदारक घटना घटी थी, जिसमें कई शिवभक्त अकाल मृत्यु को प्राप्त हुये थे। चूंकि वह दुखद घटना कांवड़ यात्रा के समापन के दौरान घटी थी, अतः प्रशासन, भड़के हुये आक्रोश को शान्त करने में सफल हुआ था। ऐसा नहीं है कि उर्जा निगमों में शिवभक्त नहीं है। कांवड़ मार्ग पर जगह-जगह उर्जा निगमों के कर्मचारी, अपने विद्युत उपकेन्द्रों के सामने, कांवड़ियों की सुविधा के लिये भण्डारे एवं जल का प्रबन्ध करते हैं। परन्तु यह भी एक कटु सत्य है कि किसी भी योजना एवं आयोजन को एक अवसर के रुप में भुनाने का हर सम्भव प्रयास, प्रशासन एवं उर्जा निगम के अधिकारी, करने से नहीं चूकते। उर्जा निगम कांवड़ मार्ग में जगह-जगह अपने विद्युत खम्भों पर प्लास्टिक की पन्नियां लिपटवाना, परिवर्तकों के चारों ओर लकड़ी की बल्लियां बंधवाना, आदि कार्य कुछ चिन्हित ठेकेदारों के माध्यम से ही करवाता है। जिसमें सुखद यह है कि इन कार्यों में धर्म कभी आड़े नहीं आता।
प्रायः उर्जा निगमों में कराये जाने वाले कार्य, सुरक्षा की दृष्टि से कम, निहित स्वार्थ से अधिक प्रेरित होते हैं। यह कहना कदापि अनुचित न होगा कि अधिकांश कार्य असुरी सोच से ग्रसित होते हैं। उर्जा निगमों में इन्सानियत की रक्षा हेतु, नियमों का बहाव, सिर्फ खानापूर्ती के लिये, कागजों पर ही ज्यादा होता है। अर्थात सुरक्षा के नियमों का कोई पालन नहीं होता है। सबसे ज्यादा दुखद एवं आश्चर्यजनक तथ्य यह है, कि स्वयं प्रबन्धन तक ऐसी जानलेवा अनियमितताओं को देखकर चुप रहता है। शायद उर्जा निगमों में ठेकेदार एवं अधिकारियों के गठजोड़ के रुप में कार्यरत् असुरी शक्तियों के सामने प्रबन्धन इतना बेबस है कि विद्युत खम्भों की अनिवार्य अर्थिंग की जांच करने/कराने के स्थान पर, सम्भावित विद्युत दुर्घटना के बाद उत्पन्न होने वाले जनाक्रोश से बचने हेतु, स्वयं विद्युत खम्भों पर प्लास्टिक की पन्नियां बंधवाने का कार्य कराने के लिये विवश है। यक्ष प्रश्न उठता है कि क्या Electricity Rule-1956 अथवा उर्जा से सम्बन्धित किसी भी संस्थान द्वारा जारी, किसी भी अभिलेख में इसका कहीं पर भी कोई वर्णन है कि विद्युत खम्भों में बिजली से बचाव के लिये अर्थिंग के स्थान पर प्लास्टिक की पन्नियों का प्रयोग किया जाये।
क्या यह हास्यापद नहीं है कि प्रबन्धन Electricity Rule-1956 का अनुपालन सुनिश्चित कराने के स्थान पर, विद्युत खम्भों पर प्लास्टिक की पन्नियां बंधवा रहा है। क्या इससे विभाग की छवि में सुधार हो रहा है अथवा खम्भों पर बंधी पन्नियां उर्जा निगमों में सिरे तक व्याप्त भ्रष्टाचार की पोल खोल रही है। शायद किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि कांवड़ यात्रा में शामिल देश-विदेश के लोग, खम्भों पर बंधी पन्नियों एवं परिवर्तकों के चारों ओर बंधी लकड़ी की बल्लियों को देखकर, उत्तर प्रदेश के बारे में लोग क्या सोचते होंगे। सत्यता यह है कि उर्जा निगमों के अधिकांश खम्भों में अनिवार्य अंर्थिंग है ही नहीं और यदि है भी तो वह पूर्णतः अनुपयोगी एवं प्रभावहीन है। क्योंकि अथिंग लगाने एवं लगवाने वाले दोनों ही पक्षों को अर्थिग करने एवं कराने का कोई तकनीकी ज्ञान ही नहीं है। इन पन्नियों को देखकर, मन में एक प्रश्न उठता है कि क्या प्रशासन एवं उर्जा निगमों को कांवड़ यात्रियों के ही जीवन की चिन्ता है, बाकी की नहीं। क्योंकि कांवड़ यात्रा तो वर्ष में एक बार ही होती है, जबकि आम राहगीर तो इन्हीं जोखिम पूर्ण रास्तों पर पूरे वर्ष यात्रा करता है। विदित हो कि एक तरफ बात-बात पर विभाग की छवि धूमिल करने के नाम पर, प्रबन्धन अपने कार्मिकों के विरुद्ध दण्डात्मक कार्यवाही करने से नहीं चूकता। परन्तु वहीं दूसरी तरफ विद्युत खम्भों में हुई अनियमितताओं को छुपाने के लिये, उन पर प्लास्टिक की पन्नियां बंधवाकर, स्वयं विभाग की छवि को पूरे देश में ही नहीं, अपितु पूरे संसार में धूमिल करने के कृत्य में सम्मिलित हो जाता है।
स्पष्ट है कि अतिरिक्त सुरक्षा के लिये खम्भों पर प्लास्टिक की पन्नियां, बंधवाना एक प्रशसनीय कदम है। परन्तु विद्युत खम्भों की मानकों के अनुसार मूलभूत अर्थिंग न होने पर पर्दा डालने के लिये पन्नियां लगाना एक छल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि जन सामान्य के जानमाल के साथ खिलवाड़ करने वालों के विरुद्ध कार्यवाही कर पाना प्रबन्धन के लिये सम्भव नहीं है। एक बार फिर वही प्रश्न, की आखिर विद्युत खम्भों की अर्थिंग क्यों नहीं हुई, यदि हुई तो कहां गई और यदि अर्थिंग है तो वह प्रभावहीन क्यों है। वैसे इन प्रश्नों का उत्तर आये दिन अखबारों एवं सोशल मीडिया के माध्यम से प्राप्त हो रही सूचनाओं एवं जीवित दृश्यों से स्वत: स्पष्ट हो जाता है। जिसमें प्रायः उर्जा निगमों के ही गरीब एवं निर्दोष कार्मिक खम्भे पर इस खबर के साथ लटके हुए दिखाई देते हैं कि कार्य करते वक्त अचानक बिजली चालू हो जाने के कारण, उक्त बदनसीब की दर्दनाक अकाल मृत्यु हो गई। जिसके बाद मौत के कारणों को कोई नहीं तलाशता। तलाशे जाता है कि क्या वह उर्जा निगम का कर्मचारी था अथवा नहीं, क्योंकि कार्यदायी संस्था के खाते से, उसके परिवार को उसकी जान की कीमत 7.5 लाख रुपये अदा करने होते हैं। अन्यथा यह कहकर मुआवजा देने से मना कर दिया जाता है कि वह कार्यदायी संस्था का कर्मचारी ही नहीं था।
यही चरित्र है विद्युत अधिकारियों का, वक्त पड़ने पर रात-दिन कार्य लेते हैं और संकट की घड़ी में मुख मोड़कर पहचानने से भी इन्कार कर देते हैं। वास्तविकता यह है कि उर्जा निगमों द्वारा कोई मुआवजा नहीं दिया जाता। 7.5 लाख रुपये की धनराशि भी मृतक की बीमा धनराशि ही होती है। स्पष्ट है कि मानवता, इन्सानियत, जनसेवा आदि भाषण हेतु एवं दीवारों पर लिखने के लिये उपयुक्त शब्द हैं। जिनका यथार्थ से कुछ भी लेना देना नहीं हैं। हम भारतीयों के लिये तो पृथ्वी पर उपस्थित प्रत्येक जीव तक बहुमूल्य है, जिनके जीवन की रक्षा के लिये हम जीवन पर्यन्त कार्य करते हैं। विद्युत खम्बों पर टंगी हुई इन्सानियत हमें दिखाई नहीं देती, परन्तु आश्चर्यजनक रुप से उन बदनसीब दिवंगतों के शौर्य एवं बलिदान के बदले, प्राप्त उपलब्धि का श्रेय लेने के लिये हम सबसे आगे नजर आते हैं। आईये जनहित में उर्जा निगमों की कार्यशैली की चर्चा कर लें। प्रति वर्ष कांवड़ के नाम पर प्लास्टिक की पन्नियां बांधने एवं लकड़ी की बल्लियां लगाने का कार्य, क्षेत्र के वितरण मण्डलों के द्वारा लगभग पूरे प्रदेश में चुनिंदा ठेकेदारों के माध्यम से कराया जाता है। चुनिंदा अर्थात जो 4 बल्लियां लगाये और 10 बताकर, उसका बिल देकर सबको प्रसन्न रखे। इन कार्यों में जो अधिकारी अड़चन उत्पन्न करे अर्थात 4 बल्लियों को 4 ही गिनने का प्रयास करे तो उसे मार्ग से हटाने के लिये या तो स्थान्तरित कर दिया जाता है अथवा निलम्बित। प्रबन्धन को जन सामान्य के जानमाल एवं कार्य की इतनी चिंता होती है कि जिन्हें Electrical Engineering का कोई ज्ञान ही नहीं होता अर्थात Information Technology के अधिकारियों को वितरण खण्डों का कार्यभार दिलवा दिया जाता है।
स्पष्ट है कि उर्जा निगमों में तकनीकी योग्यता से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है हस्ताक्षर करने की योग्यता।यही कारण है कि कार्य एवं विद्युत सामग्री की गुणवत्ता निम्नतम स्तर की है। बेबाक पहले ही यह स्पष्ट कर चुका है कि विभागीय कार्यों के समानान्तर, धन के बहाव में रुकावट, उच्चाधिकारियों/प्रबन्धन को कतई बर्दाश्त नहीं होती है। क्योंकि यहां कार्य नहीं, कार्य के नाम पर धन का बहाव अनिवार्य है। यही कारण है कि निहित स्वार्थ में अर्थिंग का स्थायी समाधान नहीं किया जाता। क्योंकि यह पूर्व नियोजित है कि प्रत्येक वर्ष जनहित के नाम पर बड़ा खेल खेला जाना है। यदि इनकी गहराईयों में जायेंगे तो Economic Intelligence Organization अर्थात Enforcement Directorate (ED) तक को जांच करनी पड़ेगी।
बेबाक का सिर्फ यह मानना है कि जिन कार्यों से किसी का भी जीवन जुड़ा हो, उसमें लेश मात्र भी लापरवाही का कोई स्थान नहीं होना चाहिये। यदि हमारे किसी भी कृत्य से किसी के जीवन को कोई भी क्षति पहुंचती है, तो जीवन की सारी कमाई एक तरफ और जीव हत्या का पाप एक तरफ हो जाता है। जिसका परिणाम सिर्फ और सिर्फ पाप ही रह जाता है। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
–बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA.