
मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता। पिछले अंक No. 45/29.12.2024 में आपने पढ़ा कि ऊर्जा निगमों में किस प्रकार प्रबन्धन द्वारा निजी कम्पनियों की Sponsored Management के अनुसार सुधार की नीतियों के अनुसार Ferrari Racing Car के Driver से Truck और Truck Driver से Ferrari चलवाने की जिद पर अड़ा हुआ है। जिसमें विफलता के कारण बात-बात पर स्थानान्तरण एवं निलम्बन की कार्यवाहियां लक्ष्य निर्धारित करके की जा रही हैं। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में यह बेहद अफसोस जनक एवं अपमानजनक है। क्योंकि बाहरी प्रबन्धन द्वारा अपने जादुई आयने में देखकर सभी नियमित अधिकारियों एवं कर्मचारियों को गम्भीर कदाचरण का दोषी मानते हुये, निलम्बन के लक्ष्य निर्धारित कर दिये हैं।
गत् माह बुलन्दशहर में निलम्बित और इस माह बहाल किये गये अधीक्षण अभियन्ता, जिनको अब सहारनपुर में निलम्बन के कारण रिक्त हुए स्थान पर नियुक्त किया गया है। प्रश्न उठता है कि क्या जिन गम्भीर कदाचरण के कारण उन्हें निलम्बित किया गया था क्या उनकी गम्भीरता एक माह में ही समाप्त हो गई? प्रश्न उठता है कि वो क्या कारण हैं कि बिना जांच पूरी किये इन्हें जांच लम्बित करते हुये बहाल कर दिया गया है अथवा किसी देवी-देवता ने ख्वाब में आकर इनके निर्दोष होने के साक्ष्य प्रस्तुत कर दिये थे? यदि नहीं तो पहले निलम्बित करने और अब लम्बित जांच के विरुद्ध बहाल कर पुनः कार्यभार देने के पीछे उद्देश्य क्या है? क्या अब ये विभाग के लिये अथवा समाज के लिये खतरा नहीं हैं? मात्र एक माह निलम्बन के दौरान ऐसी कौन सी जादुई ताकत इन्हें प्राप्त हो गई कि अब ये एक ऐसे स्थान पर नियुक्त कर दिये गये हैं जहां पर इनके पूर्ववर्ती अपेक्षित क्षमतानुसार कार्य न कर पाने के आरोपों के कारण निलम्बित किये गये हैं?
प्रश्न उठता है कि इनके निलम्बन अर्थात कार्य पर पूर्ण वेतन के साथ अनुपस्थित रहने के कारण प्रभावित होने वाले विभागीय कार्यों एवं बिना कार्य के बदले दिये जाने वाले वेतन का हर्जाना कौन भरेगा? यक्ष प्रश्न उठता है कि क्या निलम्बन का यह खेल कार्य क्षमता को बढ़ाने के नाम पर, चलते हुये निर्बाध कार्य को जानबूझकर निहित स्वार्थ में प्रभावित करने के लिये खेला जा रहा है। क्योंकि निलम्बन से किस प्रकार गुणवत्ता एवं दक्षता में सुधार हो सकता है, यह सिर्फ प्रदेश का ऊर्जा मन्त्रालय एवं प्रबन्धन ही बता सकता है। क्योंकि निलम्बन की 3-Tier व्यवस्था सिर्फ ऊर्जा मन्त्रालय के अधीन ही चल रही है। जहां मन्त्री जी, प्रशासनिक अधिकारी एवं अभियन्ता अधिकारी धड़ल्ले से निलम्बन कर रहे हैं। यदि कोई गरीब विकलांग है तो वह हैं पा0का0लि0 एवं वितरण कम्पनियों में नियुक्त निदेशक जोकि सहायक बाबुओं की तरह कार्यालय सम्भाल रहे हैं। अभियन्ता होकर भी उन्हें अभियान्त्रिक कार्यों से कोई मतलब नहीं है। उनके पास टेन्डर एवं क्रय समितियों के सदस्य होने के कारण, उनकी पत्रावलियों पर चिड़िया बैठाने से फुर्सत नहीं है। क्योंकि ऊर्जा निगमों से जुड़े कतिपय हितों के शेयरों का असली खेल तो इन्हीं पत्रावलियों के माध्यम से ही होता है।
विभागीय नियमानुसार घोषित अयोग्य अधिकारियों को उपलब्ध नियमित अधिकारियों पर नियम विरुद्ध उच्च पद का कार्यभार देकर, उनसे किस प्रकार के सुधार की अपेक्षा की जा रही है? क्या प्रदेश की जनता को यह जानने का हक नहीं है, कि जब वितरण निगमों एवं पा0का0लि0 के पास निदेशक मण्डल है और स्वयं प्रशासनिक अधिकारी अपने आपको असीम शक्तियों का स्वामी मानते हैं, तो उनके द्वारा आवश्यकतानुसार रिक्त पदों पर चयनित अधिकारियों को पदोन्नत्त करके, रिक्त पदों पर नियमित अधिकारियों को नियुक्त करने के स्थान पर, अयोग्य अधिकारियों को नियमित अधिकारियों के महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील पदों का अतिरिक्त कार्यभार क्यों दिलाया जा रहा है? ये सभी वे प्रश्न हैं जो दाल में काला नहीं बल्कि पूरी की पूरी दाल के ही काली होने की ओर स्पष्ट ईशारा कर रहे हैं। यक्ष प्रश्न उठता है कि क्या यह ”स्थानान्तरण एवं नियुक्ति“ के साथ-साथ भ्रष्टाचार के खुलेआम चलाये जा रह उद्योग का अंग है। क्या बेबाक का यह कहना सत्य नहीं है कि ऊर्जा निगम बाहरी प्रबन्धन की प्रयोगशालायें मात्र बनकर रह गये हैं। जहां उनके द्वारा लिये गये किसी भी निर्णय के कारण राजकोष को होने वाले वित्तीय नुकसान के लिये भी, उनका कोई उत्तरदायित्व नहीं है। क्या यह एक जांच का विषय नहीं है कि कोई वेतन राजकोष से प्राप्त करता है और उसकी निष्ठायें निजी कम्पनियों के साथ हैं।
प्रायः यह देखा गया है कि किसान के हरे-भरे खेत में चाहे कोई छुट्टा बैल घुस आये अथवा कोई जानबूझकर छोड़ दे, तो बैल अथवा बैल मालिक की कभी कोई जिम्मेदारी तय नहीं होती। ठीक उसी प्रकार से ऊर्जा निगमों में सुधार के नाम पर छुट्टा बैल घूम रहे हैं। जो वितरण कम्पनियों को प्रति माह लगभग रु0 500 करोड़ के घाटे में डुबाने में लगे हुये हैं। परन्तु उनका कोई उत्तरदायित्व नहीं है। उनका बस एक ही काम है हरे-भरे खेत को खाना अथवा अपने पैरों तले कुचलना। यदि गलती से कोई किसान बीच में आ जाये तो उसे घायल करके दूर फेंक देना। यहां यह कहना कदापि उचित नहीं होगा कि ”कहीं पे निगाहें और कहीं पे निशाना“ क्योंकि जो कुछ भी हो रहा है वह स्पष्ट रुप से दिखाई एवं सुनाई दे रहा है। जहां कार्य के नहीं निलम्बन के लक्ष्य निर्धारित कर राजस्व वसूली को बढा़ये जाने का निरन्तर प्रयास किया जा रहा है।
यह कहना कदापि अनुचित न होगा कि आज ऊर्जा निगमों के हालात ऐसे हैं, कि पूरा का पूरा ऊर्जा निगम अयोग्यता का शिकार हो चुका है। जहां बाहरी प्रबन्धन, मुख्य पदों पर कृपा पात्र एवं अयोग्य अभियन्ता गण तथा इन सबकी निगरानी करने वाले अयोग्य कार्मिक नेतागण। प्रश्न उठता है कि कहीं यह प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न करने की कोई सोची समझी साजिश तो नहीं है। क्योंकि एक ओर महाकुम्भ तो वहीं दूसरी ओर निजीकरण का जिन्न और ऐसे में कोर्ट-मार्शल की कार्यवाही। क्या लगातार घी डालकर आन्दोलन की आग भड़काने का प्रयास तो नहीं है। इसके बावजूद आग का न जलना, कहीं न कहीं आग के भी पूरी तरह से नियोजित होने की सम्भावना को प्रकट करता है। क्रमशः….
राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
– बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA.