
मित्रों नमस्कार! कैमरे के सामने जैकेट पहनकर विडिओ कान्फ्रेन्सिंग करते ऊर्जामन्त्री अथवा ऊर्जा निगमों के तथाकथित वायसराय जब निर्बाध विद्युत आपूर्ति की बात करते हैं। तो बार-बार अनायास ही नजर उनकी बेशकीमती चमकती जैकेट पर जाकर ठहर जाती है। बार-बार मन यही कहता है कि कितनी बेशकीमती जैकेट है कि मन्त्री जी एवं वायसराय इस प्रचण्ड गर्मी में भी उसका मोह त्याग नहीं पा रहे हैं और पहनकर बैठे हुये हैं। प्रश्न उठता है कि यदि वे इस भीषण गर्मी में जैकेट पहनकर न बैठते तो क्या उन्हें बार-बार अपना परिचय देना पड़ता। एक तरफ विभाग द्वारा विद्युत बिलों के नीचे छपवाया जाता है कि राष्ट्रहित में ऊर्जा बचायें। तो वहीं दूसरी ओर कतिपय मन्त्रीगण एवं अधिकारीगण भीषण गर्मी में भी जैकेट पहनकर कार्यालय आकर, जैकेट के कारण उत्पन्न गर्मी को निष्प्रभावी करने हेतु कार्यालय में अनावश्यक रूप से लगे कई-कई एयरकंडीशनरों का तापमान न्यूनतम रखकर, ऊर्जा की बर्बादी करने में जरा भी संकोच नहीं करते।
प्रश्न उठता है कि राष्ट्रहित में ऊर्जा न बचाकर, क्या ये लोग राष्ट्रद्रोह का कार्य नहीं कर रहे हैं? इस भीषण गर्मी में कैमरे के सामने जैकेट पहनकर वीडिओ कान्फ्रेन्सिंग एवं प्रेस वार्ता द्वारा आम जनता को क्या सन्देश देना चाहते हैं? भारतीय संविधान के अनुसार देश के सभी नागरिकों को एक समान अधिकार प्राप्त हैं और किसी भी नागरिक, अधिकारी अथवा मन्त्री को राष्ट्र की सम्पत्ति अथवा उत्पाद की बर्बादी एवं दुरुपयोग का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। जनसेवा के लिए समर्पित अधिकारी एवं जनप्रतिनिधि का मूल दायित्व अन्य को राष्ट्रहित में प्रेरित करना होता है, न कि अपने पद की ताकत का प्रदर्शन करना। एक ओर बिजली की अनुपलब्धता के कारण, बिजली की कटौती करनी पड़ती है अथवा महंगी बिजली क्रय करनी पड़ती है। तो वहीं इन महानुभावों के शरीर को ठंडा रखने के लिये अर्थात इनके कमरों को लेह-लद्दाख बनाने के लिये, अतिरिक्त बिजली उपलब्ध कराने का उत्तरदायित्व बिजली विभाग का होता है। जिसका खर्चा अन्ततः देश के करदाताओं को ही वहन करना पड़ता है। क्योंकि इनके कमरे में गर्मी बढ़ी नहीं, कि कोई जला नहीं। विचार करने की आवश्यकता है कि यदि मात्र दिखावे के लिये पहनी गई पोशाक का त्यागकर, कमरे के तापमान को 25 से 26 °C पर रखा जाये, तो लगभग 50% तक की ऊर्जा की बचत हो सकती है। जोकि मात्र इनके दिखावे के पर खर्च की होती है।
इसी प्रकार से मात्र अपने पद की ताकत का प्रदर्शन करने अथवा किसी का आशीर्वाद प्राप्त करने के उद्देश्य से ही कथित वायसराय के द्वारा कल अपने कथित निदेशक मण्डल के माध्यम से बिजली सेवायें बाधित करने पर, बिना जांच के ही कर्मचारियों को बर्खास्त करने सम्बन्धित एक ऐतिहासिक आदेश पारित कराया गया।अर्थात ऊर्जा निगमों में अन्याय एवं जनता की आंखों में धूल झोंकने का विरोध करने पर बिना विचारे बर्खास्त करने का असंवैधानिक हथियार, कथित वायसराय द्वारा कठपुतली निदेशक मण्डल के माध्यम से प्राप्त कर लिया गया है। वैसे भी आज शासन करने की मूल कार्यशैली एवं सोच में व्यापक स्तर पर परिवर्तन हो चुका है। अब शासन की नीति विरोधी अर्थात मार्ग में बाधक बनने वाले अधिकारियों-कर्मचारियों को स्थानान्तरित कर किसी अन्य कार्य में उलझाकर अथवा निलम्बित करके मार्ग से हटाने का सुगम तरीका अपना लिया है। जिसमें अधिकार की बात करने वाला ताउम्र न्याय की गुहार लगाता फिरता रह जाता है। जबकि मूल आरोपी, दोष सिद्ध हो जाने अथवा पद के अयोग्य होते हुये भी उच्च पदों पर आसीन होकर मलाई चाटते नजर आ जाते हैं।
सरकारी सेवाओं में प्रायः ईमानदार होना, सबसे बड़ा अपराध है क्योंकि यह भ्रष्टाचार के विरुद्ध स्वाभिमान एवं आत्मबल उत्पन्न करता है। जोकि किसी भी परिस्थिति में आज स्वीकार्य नहीं है। ईमानदारी की बातें सभी करते हैं परन्तु वास्तविकता यह है कि ईमानदारी से किसी को भी कुछ भी लेना देना नहीं है। यदि आज की तारीख में कोई किसी ईमानदार पर दया खाकर चाय भी पिलाता है, तो उसे यह भय रहता है कि कहीं उसे कोई देख न ले। मजेदार बात यह है कि आज वही लोग कामयाब हैं जो पिछले दरवाजे से धन ही नहीं, बल्कि तन-मन तक समर्पित करने के लिये आतुर नजर आते हैं।
उपरोक्त कथित असंवैधानिक आदेश के बाद, एक साथ प्रदेश एवं राष्ट्रीय स्तर पर कई प्रश्न उठ जाते हैं। प्रदेश की सभी वितरण कम्पनियां, जोकि स्वायत्त संस्थायें हैं तथा उनके अपने-अपने निदेशक मण्डल हैं, उन पर इन आदेशों को मानने की क्या बाध्यता है? क्योंकि यूपीपीसीएल सिर्फ बिजली की खरीद-फरोख्त करने के लिये अधिकृत है। उसके द्वारा किस प्रकार से एकल निर्णय लिये जा सकते हैं? कल जब वितरण कम्पनियां किसी अन्य के अधीन होंगी, तो भी क्या यूपीपीसीएल अपने निर्णय उन पर थोप पायेगा? इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि क्या देश में 26 जनवरी 1950 से लागू संविधान एवं उसमें दिये गये मौलिक अधिकार समाप्त हो चुके हैं? क्या कार्मिकों को गुलाम घोषित किया जाना शेष रह गया है? गम्भीर रुप से विचारणीय यह है कि जिस प्रकार से निजीकरण पर सरकार अमादा है, तो कल यदि किसी ने कह दिया कि आजादी हेतु हमारे स्वतन्त्रता सेनानियों के द्वारा किया गया असहयोग आन्दोलन अवैध था तब क्या होगा?
प्रश्न उठता है कि जिस कम्पनी को अमेरिका ने अपने यहां ब्लैक लिस्टेड किया हुआ है, उसके प्रति इतना प्रेम क्यों? कहीं अमेरिका के खाने के और दिखाने के दांत अलग-अलग तो नहीं हैं? वर्ष 2001 में मात्र लगभग 77 करोड़ के घाटे पर सुधार के नाम पर प्रदेश में गठित वितरण कम्पनियों का घाटा आज एक लाख करोड़ से भी बहुत आगे किस प्रकार से पहुंच गया? जबकि वर्ष 2001 से ही देश के सबसे ज्यादा योग्य एवं ज्ञानी नौकरशाह अध्यक्ष एवं प्रबन्ध निदेशक पदों पर विराजमान हैं। घाटे को रोकने हेतु कब-कब और क्या-क्या उपाय किये गये? क्या यह तमाम नियुक्त वायसरायों एवं सरकार की असफलता नहीं है? क्या निजी कम्पनी वाले सरकार से ज्यादा काबिल एवं सामर्थ्यवान हैं? क्या बिजली सेवायें बाधित करने पर बिना जांच के ही कर्मचारियों को बर्खास्त करने का कानून, अंग्रेजों से प्रेरित होकर बनाया गया है? अथवा निजी कम्पनियों के द्वारा सुझाये गये मार्गें में से एक मार्ग है? अन्त में अति गम्भीर एवं विचारणीय प्रश्न है कि क्या निजीकरण एक लाख करोड़ से भी अधिक के घोटाले पर पर्दा डालने एवं उत्तरदायी लोगों को बचाने के एकमात्र विकल्प का परिणाम है? राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
-बी0के0 शर्मा,महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.