क्या 25 वर्ष पहले ही ऊर्जा निगमों के निजीकरण की रुप-रेखा तैयार हो गई थी?

मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता…. यदि हम उ0प्र0पा0का0लि0 के पिछले 25 वर्षों के कार्यकलापों का विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जब तत्कालीन उ0प्र0रा0वि0प0 का तीन भागों में विघटन हुआ था, तभी देश के योग्य अधिकारियों अर्थात नौकरशाहों ने अपने पदार्पण के साथ एक सुनियोजित योजना के तहत, इनके निजीकरण की नींव रख दी थी। कि किस प्रकार से उन्हें समस्त वितरण निगमों के साथ-साथ उत्पादन एवं पारेषण निगमों का भी निजीकरण कराना है।

जो नौकरशाह बात-बात पर नियम एवं कायदों की बात करते हैं, उनके द्वारा अपनी कार्ययोजना को कार्यान्वित करने के लिये, सबसे पहले निगमों के नियमित इन्जीनियरों की निगमों के प्रति निष्ठा एवं कार्यशैली के अवलोकन करने का विचार ही किया था, कि उनके कार्यभार ग्रहण करते ही, बड़े-बड़े फूलों के गुलदस्तों के साथ बधाई देने एवं स्थानान्तरण एवं नियुक्ति हेतु सिफारिशों का दौर आरम्भ हो गया। जिसमें कहीं एक-दूसरे की चुगली करके अथवा राजनीतिक दबाव के साथ-साथ गिन्नियों का खेल भी आरम्भ हो गया…. जिससे उन्हें यह ज्ञात हो गया, कि निगमों का औद्योगिक वातावरण किस प्रकार से लालच एवं महत्वकांक्षाओं के तमाम प्रकार के Bacteria के गिरफ्त में है। वैसे तो इन्सान एक-दूसरे से नैसर्गिक रुप से जलन रखता है। परन्तु निगमों में यह जलन नैसर्गिक न होकर, मलाई की लूट के कारण है। जहां लोग किसी भी हालत में मलाईदार पदों पर आसीन होना/रहना चाहते हैं अर्थात हर हाल में लूट में अव्वल बने रहना चाहते हैं।

इस विरासत को, MOA में दिये गये दिशा निर्देशों का अतिक्रमण करते हुये नियुक्त कार्यवाहक प्रबन्धन (अध्यक्ष एवं प्रबन्ध निदेशक) के द्वारा द्वारा अपनी कार्ययोजना के लिये सहायक एवं अतिमहत्वपूर्ण मानते हुये, भ्रष्टाचार को समाप्त करने का, दिखावा मात्र करते हुये, एक पूर्ण रुप से तकनीकी संस्थान में, अपनी राह सुगम बनाने के लिये, सुनियोजित तरीके से निगमों में उपलब्ध नैसर्गिक योग्यता, अनुभव की उपयोगिता को दरकिनार करते हुये, उनके स्थान पर, कनिष्ठ एवं अयोग्य अधिकारियों को, उच्च पदों पर कार्यवाहक अधिकारी बना-बनाकर, नियुक्त करने के साथ-साथ, कार्मिक संगठनों में भी कार्यवाहक पदाधिकारियों को मान्यता प्रदान की गई। जिन कार्मिक संगठनों का यह नैतिक दायित्व था, कि वह अपने कार्मिकों के उज्ज्वल भविष्य के साथ-साथ, अपने संस्थान के हितों का भी ध्यान रखें। उनके पदाधिकारियों ने भी निगमों की उन्नत्ति के लिए अतिमहत्वपूर्ण योग्यता एवं अनुभव की उपयोगिता को दरकिनार किये जाने पर अपनी आंखें मूंदकर, मौन स्वीकृति प्रदान करते हुये, प्रबन्धन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर, स्थानान्तरण एवं नियुक्ति उद्योग में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित की। जहां एक ओर सरकारी उद्योगों का निजीकरण करने की सरकार की प्रबल राजनीतिक ईच्छा है, तो वहीं प्रबन्धन एवं कार्मिक संगठनों में भी अपने निहित स्वार्थ सिद्धी की प्रबल ईच्छा है। जिसके कारण निगमों में इस बात पर कभी कोई विचार ही नहीं किया जाता, कि किस प्रकार से निगमों की आमदनी एवं खर्चे के अनुपात को नियंत्रित किया जाये। परिणामतः नीचे से ऊपर तक हिस्सेदारी की लूट में गुणवत्ताहीन एवं अनावश्यक सामग्री का आयात बढ़ता चला गया। जिसके कारण अनावश्यक रुप से वितरण प्रणाली के अनुरक्षण की लागत बढ़ती गई।

आज स्थिति यह है कि अधिकांश क्रय की गई सामग्री गारण्टी अवधि में ही कई-कई बार क्षतिग्रस्त होती रहती है। जिसको गारण्टी अवधि से ही बाहर करने के लिये, विभागीय वेतन पर सामग्री निर्माता/आपूर्तिकर्ता के Marketing Agents के रुप में कार्य करने वाले लोग, पूर्ण तत्परता से कार्यरत् है। जिनका यदि थोड़ा सा ही विश्लेषण हो जाये, तो एक ऐसा बवंडर खड़ा हो जायेगा, कि सम्भालना नामुमकिन हो जायेगा। क्योंकि उस बवंडर में सामग्री निर्माताओं के व्यवसायिक हितों के साथ-साथ विभागीय अधिकारियों की निष्ठा पर से भी पर्दा उठ जायेगा। अतः सामान्यतः हस्ताक्षर करने के मेहनताना के बदले, Overload एवं Short Circuit होने के कारण अधिकांश उपकरण/सामग्री का क्षतिग्रस्त होना दर्शाकर, उसे अपने ही स्तर पर गारण्टी अवधि से बाहर कर दिया जाता है। न जाने कितनी फर्मे हैं जिन्हें Black Listed हो जाना चाहिये था। परन्तु वे पूर्णतः निश्चिन्तता के साथ पूर्ववत् कार्य कर रही हैं।

यदि हम पिछले 25 वर्षों का विश्लेषण करें तो शायद ही कोई ऐसा मौका हो कि जब प्रबन्धन ने विभाग के बढ़ते घाटे से निजात पाने के उपायों पर कभी कोई विचार आमन्त्रित किये हों अथवा कोई चर्चा की हो। भ्रष्टाचार के उन्मूलन के नाम पर उनका विरोध करने वालों को ही ताश के पत्तों की तरह, फेंटते हुये कहीं न कहीं अनुशासनात्मक कार्यवाही की अंधेर कोठरी में धकेला गया है, जहां वे अलग-थलग पड़े हुये, एकान्त में नियम-कायदे और कानून का राग अलापते रहें। नियम-कायदों का आलम ये है कि जो विभागीय विशेषज्ञ विद्युत प्रशिक्षण संस्थान में नियम कायदों पर बड़े-बड़े व्याख्यान देते हैं, वे भी प्रबन्धन के सामने, अपने दिमाग की Memory Chip निकालकर जाते हैं। प्रदेश के नियम-कायदों के एक प्रसिद्ध ज्ञाता एवं विशेषज्ञ, तो अब अपने ज्ञान के कैपसूल छोड़कर, गीतों के आधार पर ज्ञान देने लगे हैं। कि “तू न चलेगा, तो चल देंगी राहें”। अर्थात नियम से नहीं, बल्कि सिस्टम में चलते रहो, नहीं तो काला-पानी से बाहर निकलने की राह भी नहीं मिलेगी। क्योंकि वितरण कम्पनियों में ज्ञान नहीं, बल्कि दाम की महत्वता पूर्णतः स्थापित हो चुकी है। जो यह समझ गया, वो चल गया। नहीं तो कहीं न कहीं उलझकर, अटक कर रह गया। विघटन के बाद प्रकाश में आये निदेशक मण्डल में निदेशकों की नियुक्ति में गिन्नियों के खेल की चर्चा आम रही है।

प्रबन्धन ने अपने आपको ज्ञानी समझने वाले अभियन्ता अधिकारियों को स्थानान्तरण, नियुक्ति एवं निलम्बन-बहाली के नाम पर फेंट-फेंट कर, वितरण कम्पनियों का घाटा 1 लाख करोड़ के पार पहुंचा दिया। जिसमें आश्चर्यजनक रुप से प्रबन्धन का कोई उत्तरदायित्व ही नहीं है। कहीं न कहीं ये सत्य भी है क्योंकि वे तो बाहरी हैं। हम ही उनके पास अपने लिये लूट का लाइसेंस पाने के लिये, किसी भी स्तर तक समझौता करने के लिये तैयार रहते हैं। यह उनकी योग्यता है कि उन्होंने बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से, हमारे ही हाथों, हमारा ही जहाज लुटवाया। जिसमें उनकी तरफ मात्र एक ऊंगली ही उठाने से, शेष ऊंगलियां स्वतः हमारी ओर मुड़ जाती हैं। विगत् 25 वर्षों में भ्रष्टाचार के अफीम की लत् कुछ इस कदर बढ़ गई, कि आपस में कोई भी एक दूसरे पर ऊंगली उठाने की स्थिति में नहीं बचा है, चाहे वो बेईमान हो या ईमानदार। प्रबंधन ने निगमों में नियुक्त नियमित कार्मिकों की टीम भावना को कुछ इस प्रकार से संक्रमित कर दिया है कि सभी उत्तरदायी हैं और कोई भी उत्तरदायी नहीं है। आज निगमों में कार्य के लिए नहीं, बल्कि लूट के लिए टीम भावना शेष नहीं है। आज हालात यह हैं कि कोई लाख कहे कि वो इस डूबते जहाज को बाहर निकाल लेगा, तो वह एक स्वप्न के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। क्योंकि जिस भ्रष्टाचार के अफीम की लत् लग चुकी है उससे तौबा करने का दिखावा करने का भी साहस, किसी में शेष नजर नहीं आता है।

अन्त में बस इतना ही कहा जा सकता है कि भले ही अफीम उनकी थी। परन्तु घर तो हमारा था। कहीं आंखों पर पट्टी बांधकर, निजीकरण के विरोध से, यह तात्पर्य तो नहीं, कि यह विभाग हमारा है, इसे लूटने का भी अधिकार हमारा है। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!

-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA.

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