
मित्रों नमस्कार! बेबाक निजीकरण का समर्थन नहीं करता…. विद्युत परिषद एवं कम्पनी के अन्तर को समझना बहुत आवश्यक है। “परिषद” अर्थात No profit, No loss पर आधारित सार्वजनिक हितों के लिये समर्पित उद्योग। जबकि कम्पनी एक्ट-1956 के अनुसार ”कम्पनी“ का मतलब एक ऐसी कानूनी इकाई से है, जिसका उद्देश्य लाभ कमाना होता है।
भारत में, कंपनी अधिनियम-1956, सबसे महत्वपूर्ण कानून है, जो केंद्र सरकार को कंपनियों के गठन, वित्तपोषण, कामकाज और समापन को विनियमित करने का अधिकार देता है। इस अधिनियम में संगठनात्मक, वित्तीय और प्रबंधकीय, किसी कंपनी के सभी प्रासंगिक पहलुओं के बारे में तंत्र शामिल है। यह केंद्र सरकार को किसी कंपनी के खातों की पुस्तकों का निरीक्षण करने, विशेष ऑडिट का निर्देश देने, किसी कंपनी के मामलों की जांच करने और अधिनियम के उल्लंघन के लिए मुकदमा चलाने का अधिकार देता है।
इन निरीक्षणों का उद्देश्य यह पता लगाना है, कि क्या कंपनियाँ अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार अपने काम-काज का संचालन करती हैं, क्या किसी कंपनी या कंपनियों के समूह द्वारा सार्वजनिक हित को नुकसान पहुँचाने वाली कोई अनुचित प्रथा अपनाई जा रही है और यह जाँचना है कि क्या कोई कुप्रबंधन है जो शेयरधारकों, लेनदारों, कर्मचारियों और अन्य लोगों के किसी भी हित को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकता है। यदि निरीक्षण में धोखाधड़ी या धोखाधड़ी का प्रथम दृष्टया मामला सामने आता है, तो कंपनी अधिनियम के प्रावधानों के तहत कार्रवाई शुरू की जाती है या उसे ”केंद्रीय जांच ब्यूरो“ को भेजा जाता है। बदलते कारोबारी माहौल के जवाब में कंपनी अधिनियम, 1956 में समय-समय पर संशोधन किए गए हैं।
कम्पनी संचालक (प्रबन्धन) के अधिकारः कम्पनी संचालक का अर्थ नियमानुसार संचालन के लिये संचालकों (Directors) की आवश्यकता होती है। स्ांचालकों की संख्या एक से 15 होती है अर्थात विषम (odd) संख्या होती है। संचालकों का मूल कर्तव्य कम्पनी, जनहित एवं उसके कार्मिकों के उज्ज्वल भविष्य हेतु निर्णय लेना होता है। संचालकों की नियुक्तिः शिक्षित, योग्य एवं अनुभवी, भविष्य के भावी लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु, सफलता में संचालकों की योगदान महत्वपूर्ण है। जिसमें संचालकों की नियुक्ति पृवर्तको के द्वारा, सदस्यों के द्वारा, संचालकों के द्वारा, सरकार द्वारा, अधिकरण Tribunal द्वारा एवं केन्द्र सरकार द्वारा करने का प्रावधान है। ऊर्जा कम्पनियों में संचालकों की नियुक्ति शासन द्वारा जारी “MoA” के अनुसार किये जाने का प्रावधान है, जिसका स्वयं शासन के द्वारा ही कभी पूर्णतः पालन नहीं किया जाता। सरकार द्वारा संचालकों की नियुक्ति अपने विवेकानुसार की जाती है।
संचालकों के अधिकारः दायित्व पूरा करने का अधिकार, पारिश्रमिक पाने का अधिकार, अपने कार्यकाल तक पद पर बने रहने का अधिकार, कम्पनी की पुस्तकें देखने का अधिकार, सूचनायें मांगने का अधिकार, निरीक्षण करने का अधिकार, दण्डित करने का अधिकार, माफी देने का अधिकार, आदेश देने का अधिकार, अंकेक्षण रिपोर्ट देखने का अधिकार, बैठक में भाग लेने का अधिकार, भाषण देने का अधिकार, अंशों पर अधत्व राशि मांगने का अधिकार, रिक्त पदों पर नियुक्ति का अधिकार, कम्पनी हित में कार्य करने के अधिकार, आदि। संचालकों के कर्तव्य/कार्यः पार्षद अन्तर्नियम (Articles of Association) द्वारा निर्धारित कार्य, कम्पनी के हित में कार्य, ईमानदारी से लेन-देन, पूरी क्षमता से कार्य, अनुचित लाभ से दूरी, समय पर सभाओं का आयोजन, अनेक संस्थाओं से उचित अनुबन्ध, पद का हस्तान्तरण न करना, संकट के समय उचित निर्णय, लाभान्श का उचित समय पर वितरण, कम्पनी के खातों की जांच पड़ताल, अन्तिम खातों को प्रमाणित करना, प्रबन्ध व्यवस्था, अच्छे कर्मचारियों की नियुक्ति, समय पर वेतन देना, वाद-विवादों का निपटारा, अपने पदों का उचित पालन, अच्छे सौदे करना, आदि।
उपरोक्त प्रावधानों पर यदि एक सरसरी नजर डालें, तो यक्ष प्रश्न उठता है कि संचालकों ने कब और कहां अपने दायित्वों का पालन किया? उपरोक्त के साथ-साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि आज निजीकरण के विरोध के नाम पर नित्य फौटोसेशन कराने वाले कतिपय बाहरी लोगों के द्वारा, कब और कहां अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्वों का पालन किया गया? वितरण कम्पनियों के संचालकों एवं कार्मिकों के द्वारा किस तरह से अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह किया उसका जीता है, उसका जागता उदाहरण है, आये दिन संविदाकर्मियों के साथ घटती हृदय विदारक घटनायें और रोते बिलखते उनके परिवार। स्मरण रहे कि जिनके लिये आंख बन्दकर लूट-खसोट में प्रबंधन एवं कार्मिक लगे हुये हैं, ”गरुण पुराण“ के अनुसार, किसी निर्दोष व्यक्ति की हत्या के पाप की सजा हैः “पापी को गर्म तेल की कढ़ाही में डालकर, तल कर निकाला जाता है”। वहां पर VIP का कोई टैग नहीं चलता। बेबाक का स्पष्ट रुप से यह मानना है कि तत्कालीन उ0प्र0रा0वि0प0 से विघटित होकर कम्पनी एक्ट-1956 में पंजीकृत हुई वितरण कम्पनियों को लाभ के उद्देश्य से चलाने का कभी भी न तो प्रबंधन और न ही कार्मिकों के द्वारा कभी कोई प्रयास नहीं किया गया। बल्कि पंजीकृत वितरण कम्पनियों को राजनीतिक उद्देश्यों की प्रतिपूर्ति हेतु “उपभोक्ता देवो भवः” द्वारा प्रतिस्थापित कर, प्रबन्धन एवं कार्मिक संगठनों के गठबन्धन द्वारा कम्पनी की मूल भावना को ही समाप्त कर दिया गया है। जिसमें आज निजीकरण के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाते कतिपय कार्मिक संगठनों के पदाधिकारी पूर्णतः उत्तरदायी हैं। क्योंकि उनकी प्राथमिकता ”सार्वजनिक उद्योग“ न होकर संचालकों एवं अधिकारियों की नियुक्ति में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के अतिरिक्त कभी भी कुछ नहीं रही।
आज भी कहीं न कहीं हिस्सेदारी का ही खेल दिखलाई दे रहा है। जिसमें कहीं दूर-दूर तक भी निजीकरण रोकना दिखलाई नहीं देता है। यदि इन छदमभेष धारी कार्मिक नेताओं से नियमित कार्मिकों ने जल्द छुटकारा नहीं पाया, तो निजीकरण रोक पाना नामुमकिन है। क्योंकि जिस We want justice की तख्ती लेकर ये न्याय मांग रहे हैं, यदि उस तख्ती को वितरण कम्पनियों ने अपने गले में टांग लिया, तो दूर-दूर तक भी ये बाहरी एवं सेवानिवृत्त कार्मिक दिखलाई नहीं देंगे। राष्ट्रहित में समर्पित! जय हिन्द!
-बी0के0 शर्मा, महासचिव PPEWA. M.No. 9868851027.